NI Act के किसी इंस्ट्रूमेंट में दिखाई देने वाले बदलाव
Shadab Salim
12 April 2025 3:26 AM

धारा 89 की योजना है कि कोई भी किया गया तात्विक बदलाव लिखत पर दृश्यमान होना चाहिए, यदि यह ऐसा नहीं है वहाँ सम्यक् अनुक्रम में किया गया पेमेंट बाध्यकारी होगा और एक सही एवं मान्य पेमेंट माना जाएगा। इस धारा के अनुसार यदि :-
कोई वचन पत्र, विनिमय या चेक
तात्विक रूप में परिवर्तित है,
परन्तु ऐसा किया गया बदलाव दिखाई नहीं देता है, या
जहाँ चेक को पेमेंट के लिए उपस्थापित किया गया है,
जो उपस्थापन के समय
रेखांकित है, दिखाई नहीं देता, या
रेखांकन है, परन्तु उसे मिटा दिया गया है,
व्यक्ति बैंकर जो पेमेंट करने के लिए आबद्ध है, पेमेंट कर देता है,
पेमेंट के समय लिखत के दृश्यमान शब्दों के अनुसार, सम्यक् अनुक्रम में पेमेंट कर देता है, सही तथा विधिमान्य पेमेंट होगा। ऐसा पेमेंट ऐसे व्यक्ति या बैंकर को सभी दायित्वों से उन्मोचित कर देता है और ऐसा पेमेंट इस आधार पर कि लिखत में बदलाव किया गया है या चेक को रेखांकित किया गया था, को प्रश्नगत नहीं बनाया जा सकता है।
अधिनियम का उद्देश्य वचन पत्र या विनिमय पत्र की दशा में किसी व्यक्ति द्वारा एवं चेक की दशा में बैंकर द्वारा किए गए पेमेंट को संरक्षण देना है जहाँ लिखत में तात्विक बदलाव है या चेक का रेखांकन को मिटाया गया है जो दृश्यमान नहीं है, परन्तु यह कि जहाँ पेमेंट सद्भावनापूर्वक एवं सम्यक् अनुक्रम में किया गया है। परन्तु जहाँ बदलाव दृश्यमान है अर्थात् युक्तियुक्त परीक्षण से देखने योग्य है। ऐसे लिखत को अभिप्राप्त करने वाले व्यक्ति को भी कोई अधिकार नहीं होते।
परन्तु ऐसी दशा में प्रतिग्रहांता की आवद्धता केवल लिखत के मूल शब्दों के अनुसार न कि परिवर्तित शब्दों के अनुसार होती है। यह हाउस आफ लार्ड्स ने स्कालफील्ड बनाम दि अर्ल ऑफ लोन्डेसबरों में धारित किया है। इस मामले में एक विनिमय पत्र £500 के लिए प्रतिग्रहण के लिए उपस्थापित किया गया जिस पर अपेक्षित स्टाम्प से अधिक स्टाम्प था एवं स्थान खाली था। प्रतिग्रहीता ने लिखत को प्रतिग्रहीत कर लेखीवाल को परिदत्त कर दिया जिसने कपटपूर्वक खाली स्थान को भरकर विनिमय पत्र को £3500 में परिवर्तित कर इस कीमत के प्रतिफल पर एक सद्भावी धारक को परक्रामित कर दिया।
यह धारित किया गया कि प्रतिग्रहीता केवल प्रतिग्रहीत रकम £500 के लिए ही दायी था। विनिमय पत्र का प्रतिग्रहीता इसे प्रतिग्रहण के पश्चात् कपटपूर्ण बदलाव के लिए सतर्कता लेने के लिए कर्तव्याधीन नहीं था। परन्तु लेखीवाल की विनिमय पत्र में आबद्धता £ 3500 के लिए एक सम्यक् अनुक्रम धारक के प्रति विस्तारित है, क्योंकि वह सतर्कता लेने के लिए आबद्ध था।
वचन पत्र रचयिता के द्वारा स्वयं पूरित करने की अपेक्षा नहीं जीवन सिंह बनाम शिव सिंह गलुडिया के मामले में यह धारित किया गया है कि वचन पत्र की सभी प्रविष्टियाँ स्वयं रचयिता के द्वारा पूरित करने के लिए अपेक्षित नहीं हैं। जब कृत से साबित है कि एक वचन पत्र रचयिता के हस्ताक्षर से युक्त है, तब यह आवश्यक नहीं है कि तिथि, रकम आदि स्वयं रचयिता द्वारा भरी जाय एवं ऐसी प्रविष्टियाँ तात्विक बदलाव को आकृष्ट नहीं करती हैं।
प्रतिफल के लिए वाद-उन सभी मामलों में जहाँ तात्विक बदलाव से किसी लिखत को परिवर्तनीय बनाया जाता है, धारक लिखत के अधीन अपने अधिकारों को खो देता है। परन्तु जो प्रतिफल उसने लिखत के लिये दिया है, तद्वारा निर्वापित (समाप्त) नहीं होती। धारक लिखत को प्रवर्तनीय नहीं करा सकता है, परन्तु वह प्रतिफल पर बाद ला सकेगा। परन्तु धारा 87 अभिव्यक्तः यह उपबन्धित करती है कि पृष्ठांकक अपने दायित्व से यहाँ तक प्रतिफल से भी उन्मोचित हो जाता है। इस प्रकार कोई बदलाव अनाधिकृत व्यक्ति के द्वारा किया गया है परन्तु पृष्ठांकिती के द्वारा नहीं बावजूद इसके लिखत को वर्जनीय बनाया जा सकता है, परन्तु पृष्ठांकिती प्रतिफल के लिए पृष्ठांकक पर वाद ला सकेगा।
संक्षेपित चेकों के सम्बन्ध में (तात्विक परिवर्तन)
परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 89 (2) संक्षेपित चेकों में तात्विक बदलाव का उपबन्ध करती है। इसके अनुसार "जहाँ चेक संक्षेपित चेक का कोई इलेक्ट्राकि प्रतिरूप है वहाँ ऐसे इलेक्ट्रानिक प्रतिरूप और संक्षेपित चेक के प्रकट शब्दों में कोई अन्तर तात्विक बदलाव होगा और यथास्थिति बैंक या समाशोधन गृह का यह कर्तव्य होगा कि वह प्रतिरूप का संक्षेपण और पारेषण करते समय, संक्षेपित चेक के इलेक्ट्रॉनिक प्रतिरूप के प्रकट शब्दों की यथार्थता को सुनिश्चित कर ले।"
अजनवी व्यक्ति द्वारा परिवर्तन- अनिरुधन बनाम धामकोस बैंस के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह धारित किया है कि जहाँ लिखत प्रतिग्रहीता या उसके अभिकर्ता के कब्जे में है और लिखत में कोई बदलाव प्रतिग्रहीता के संज्ञान के बिना किसी अजनवी व्यक्ति के द्वारा किया जाता है, वहाँ दूसरा पक्षकार (वचनदाता) अपने दायित्व से उन्मुक्त हो जाता है, परन्तु जहाँ लिखत किसी अजनबी के द्वारा परिवर्तित किया जाता है जब लिखत प्रतिग्रहीता या उसके अभिकर्ता के कब्जे में नहीं था, वहीं वचनदाता अपने दायित्व से उन्मुक्त नहीं होगा। परन्तु इस धारा के निबन्धनों के अनुसार ऐसा बदलाव किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध शून्य होगा जो लिखत का पक्षकार है और ऐसे बदलाव की सहमति नहीं देता है।
बदलाव जो लिखत की विधिमान्यता को प्रभावित नहीं करता- निम्नलिखित बदलाव परक्राम्य लिखत को दूषित नहीं बनाते हैं या तद्धीन पक्षकारों के दायित्व प्रभावित नहीं होते-
ऐसे बदलाव जो लिखत के जारी करने के पूर्व किए गए हैं।
बदलाव जो सभी पक्षकारों की सहमति से किए गए हैं।
बदलाव जो साशय नहीं है एवं घटनावश है।
बदलाव जो लिखत के क्लर्कयल गलतियों या भूलों को सुधारने के लिए किये गये हैं।
बदलाव जो लिखत के मूल पक्षकारों सामान्य आशय को पूरा करने के लिए किए गए हैं।
बदलाव जो तात्विक नहीं है एवं जो संविदा को दूषित नहीं बनाते हैं। अधिनियम के अधीन अनुज्ञात परिवर्तन-धारा 87 के अधीन तात्विक बदलाव के उपबन्ध अधिनियम की धारा 20, 49, 86 एवं 125 के अधीन है। अर्थात् ये बदलाव अनुज्ञात हैं :-
अधिनियम की धारा 20 के अधीन अपूर्ण लिखतों को पूर्ण करना एवं इससे लिखत को वर्जनीय नहीं बनाया जा सकता यद्यपि कि प्राधिकार में निहित धनराशि से आधिक्यपूर्ण किया जाता है।
धारा 49 के अधीन निरंक पृष्ठांकन का पूर्ण पृष्ठांकन में परिवर्तित करना।
धारा 86 विशेषित प्रतिग्रहण की अनुज्ञा देती है।
धारा 125 चेक का रेखांकन करना, सामान्य रेखांकन को विशेष रेखांकन में बदलाव करना, रेखांकन में अपरक्रामणीय", "एण्ड कं०" "आदाता के खाते में" शब्दों को अन्तःस्थापित करना बदलाव को अनुज्ञात करती है,
चेक को पुनः वैध बनाना, तात्विक बदलाव का सिद्धान्त प्रयोज्य नहीं होता है,
धारा 88 के अनुसार लिखत में किसी पूर्विक बदलाव के होते हुए भी परक्राम्य लिखत का प्रतिग्रहीता या पृष्ठांकक अपने प्रतिग्रहण या पृष्ठांकन से आबद्ध होता है। धारा 89 उपबन्ध करती है-
"लिखत में किसी पूर्विक बदलाव के होते हुए भी परक्राम्य लिखत का प्रतिग्रहीता या पृष्ठांकक अपने प्रतिग्रहण या पृष्ठांकन से आवद्ध रहता है।"
पृष्ठांकिती द्वारा बदलाव [ धारा 87 ]- यदि ऐसा कोई बदलाव पृष्ठांकिती द्वारा किया गया है, तो वह उसके प्रतिफल की बाबत उसके सब दायित्व से उसके पृष्ठांकक को उन्मोचित कर देता है। इस प्रकार जहाँ कोई बदलाव पृष्ठांकिती द्वारा किया गया है, पृष्ठांकक अपनी आबद्धता से पृष्ठांकिती के प्रति उन्मुक्त हो जाता है, परन्तु ऐसा पृष्ठांकक किसी सद्भावी धारक के प्रति आबद्ध बना रहेगा।
क्या चेक का पुनः वैध बनाना तात्विक बदलाव है - एक ही महत्वपूर्ण प्रश्न उत्पन्न होता है कि चेक को पुनः वैध बनाना क्या तात्विक बदलाव है? इसी प्रकार अन्य लिखतों विधिमान्य बनाना क्या तात्विक बदलाव होता है? यह प्रश्न सर्वप्रथम सुप्रीम कोर्ट के समक्ष वीरा एक्सपोर्ट बनाम टी० कलावती के मामले में आया था। प्रत्यर्थी (टी० कलावधी) ने अपीलार्थी को 8 चेक विभिन्न तिथियों पर 9 अप्रैल, 1995 से 30 अप्रैल, 1995 के लिए सम्पूर्ण रकम चार लाख के लिये जारी किए थे।
अतः चेकों को 15 मई, 1995 को पेमेंट के लिए बैंक के समक्ष उपस्थापित किए गए थे जो अनादूत हो गए। अपीलार्थी ने इस तथ्य को प्रत्यर्थों के संज्ञान में लाया उसने अपीलार्थों से कुछ और समय देने के लिए अनुरोध किया जो प्राप्त हुआ, परन्तु प्रत्यर्थी चेकों का पेमेंट जनवरी, 1996 तक नहीं कर सका। उसने चेक की तिथि को 1995 के स्थान पर 1996 आवश्यक बदलाव के साथ उस समय उसमें कर दिया। चेकों को पुनः 18 जुलाई, 1996 को पेमेंट के लिए बैंक में उपस्थापित किया गया जो अनादृत हो गए। अपोलार्थी ने एक विधिक सूचना प्रत्यर्थी को 8 अगस्त, 1996 को भेजा। तत्पश्चात् अपीलार्थी ने धारा 138 के अधीन परिवाद दाखिल किया। प्रत्यर्थी का कथन था कि
उसे चेक की तिथियों को परिवर्तित करने के लिए दबाव दिया गया और अपनी स्वतंत्र इच्छा से उसने ऐसा नहीं किया; एवं
चेक तात्विक बदलाव से शून्य एवं अप्रवर्तनीय हो गए।
विचारण कोर्ट ने यह धारित किया कि जब एक बार चेक की वैधता अवधि समाप्त हो जाती है, तो तिथि के बदलाव द्वारा चेक को पुनः 6 माह के लिए जीवन प्रदान कर उसे पुनः वैध नहीं बनाया जा सकता है। हाईकोर्ट में अपील करने पर यह धारित किया गया कि चेक की तिथि में बदलाव एक तात्विक बदलाव है जो प्रत्यर्थी के हितों को प्रभावित करता है और यह धारित किया गया है कि प्रत्यर्थी ऐसे बदलाव का इच्छुक पक्षकार नहीं था, अधिनियम की धारा 87 के अनुध्यात से चेक शून्य थे।
परन्तु सुप्रीम कोर्ट ने अपील में यह धारित किया कि परक्राम्य लिखतों को पुनः वैध बनाया जा सकेगा और इस सम्बन्ध में किया गया बदलाव तात्विक बदलाव नहीं होता है एवं हाईकोर्ट के निर्णय को अपास्त कर यह सिद्धान्त स्थापित किया गया है कि अवैध (पुराना) चेकों को पुनः वैध बनाया जाता है जिससे उन्हें पुनः नया 6 माह का जीवन दिया जा सकता है।
क्या अपूर्ण चेकों को पूर्ण करना तात्विक बदलाव है? अधिनियम की धारा 20 के अधीन एक धारक को एक अपूर्ण लिखत को पूर्ण करने का विधिक अधिकार होता है। अतः यह तात्विक बदलाव नहीं होता है, एच० एस० श्रीनिवासा बनाम गिरिजम्मों के मामले में कर्नाटक हाईकोर्ट ने यह धारित किया है कि एक अधूरी लिखत के प्रविष्टियों को पूरित करना अभिलेख में बदलाव करना नहीं होता है, क्योंकि संविधि में यह उपबन्धित है (धारा 20) कि इस प्रक्रिया को अधूरी लिखत के लिए अपनायी जाय। अतः धारा 20 के प्रभाव से एक अधूरी लिखत को पूरित करना तात्विक बदलाव नहीं होता है। हितेन भाई बनाम गुजरात राज्यों में भी यह धारित किया गया है कि निरंक चेक को पूरित करना इसे वैध बनाता है और अनादर की दशा में धारा 138 को आकर्षित करता है।
मे० पायनियर ड्रिप सिस्टम प्रा० लि० बनाम मे० जैन इरिगेशन सिस्टम लि० के मामले में परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 20 के अधीन धारक उस रकम से अधिक न हो जिसके लिए वह स्टाम्प पर्याप्त है, किसी भी रकम के लिए पूरित कर ले और ऐसा करना तात्विक बदलाव नहीं होगा जहाँ निरंक (Blank) चेक जारी किया गया है। बोरा सिंह बनाम मुकेश कुमाएँ, के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णीत किया है कि एक अपूर्ण हस्ताक्षरित चेक को पूर्ण करना बदलाव नहीं होता है।