क्या Magistrate की अनुमति के बिना Police आगे की जांच कर सकती है? – Section 173(8) और Section 482 CrPC पर Supreme Court का निर्णय

Himanshu Mishra

28 May 2025 11:45 AM

  • क्या Magistrate की अनुमति के बिना Police आगे की जांच कर सकती है? – Section 173(8) और Section 482 CrPC पर Supreme Court का निर्णय

    Peethambaran बनाम State of Kerala (2023) के फैसले में Supreme Court ने दो अहम कानूनी मुद्दों पर चर्चा की – पहला, क्या Police को Code of Criminal Procedure, 1973 की धारा 173(8) (Section 173(8) CrPC) के तहत Magistrate की अनुमति के बिना Further Investigation (आगे की जांच) करने का अधिकार है? और दूसरा, क्या High Court अपनी Inherent Powers (निहित शक्तियों) का इस्तेमाल Section 482 CrPC के तहत कैसे और कब कर सकती है?

    इस फैसले में Supreme Court ने यह भी स्पष्ट किया कि IPC की धारा 420 (Section 420 IPC) के तहत Cheating (धोखाधड़ी) का अपराध साबित करने के लिए कौन-कौन से तत्व जरूरी हैं। यह निर्णय जांच एजेंसियों और निचली अदालतों के लिए दिशा-निर्देश तय करता है और न्यायिक प्रक्रिया में अनुशासन को सुनिश्चित करता है।

    Further Investigation का अधिकार (Authority to Order Further Investigation under Section 173(8) CrPC)

    Section 173(8) CrPC कहता है कि Police अगर Final Report (अंतिम रिपोर्ट) Magistrate को सौंप चुकी हो, तब भी अगर उसे नया सबूत (New Evidence) मिले तो वह Supplementary Report (पूरक रिपोर्ट) दे सकती है। लेकिन Supreme Court ने यह साफ किया कि किसी भी Police अधिकारी, चाहे वह District Police Chief (जिला पुलिस प्रमुख) ही क्यों न हो, को यह अधिकार नहीं है कि वह खुद से Further Investigation शुरू कर दे। यह आदेश केवल Magistrate या High Court जैसे उच्च न्यायालय द्वारा ही दिया जा सकता है।

    Vinubhai Haribhai Malaviya बनाम State of Gujarat (2019) में Court ने कहा कि CrPC के तहत “Investigation” (जांच) में वह सब कुछ आता है जो Evidence (सबूत) इकट्ठा करने से जुड़ा हो, लेकिन किसी Fresh या De Novo Investigation (नई या फिर से जांच) का आदेश केवल Superior Court ही दे सकती है।

    Further Investigation और Reinvestigation में फर्क (Difference between Further Investigation and Reinvestigation)

    Supreme Court ने यह स्पष्ट किया कि “Further Investigation” (आगे की जांच) और “Reinvestigation” (पुनः जांच) में कानूनी रूप से बड़ा फर्क है। Vinay Tyagi बनाम Irshad Ali (2013) में Court ने कहा कि Further Investigation का मतलब पहले से चल रही जांच को नए सबूत मिलने पर आगे बढ़ाना है। यह पहली जांच को खत्म नहीं करता बल्कि उसका विस्तार करता है। दूसरी ओर, Reinvestigation पूरी तरह नई जांच होती है और यह तभी हो सकती है जब Court इसके लिए स्पष्ट आदेश दे, वह भी Valid Reason (उचित कारण) के साथ।

    Devendra Nath Singh बनाम State of Bihar (2023) में Court ने माना कि भले ही CrPC में स्पष्ट शब्दों में Court की अनुमति जरूरी नहीं कही गई हो, लेकिन न्यायिक व्याख्या और लम्बे समय से चले आ रहे व्यवहार से यह बात स्थापित हो चुकी है कि बिना Magistrate की अनुमति के कोई Further Investigation नहीं हो सकती।

    Magistrate के अधिकार (Judicial Precedents on Magistrate's Powers)

    Minu Kumari बनाम State of Bihar (2006) और Hemant Dhasmana बनाम CBI (2001) में Court ने यह कहा कि जब Police अपनी Final Report प्रस्तुत करती है, तो Magistrate के पास तीन विकल्प होते हैं – रिपोर्ट स्वीकार करना (Accept), अस्वीकार करना (Reject) या Further Investigation का आदेश देना।

    Court ने यह भी दोहराया कि Magistrate के अलावा कोई और अधिकारी ऐसा आदेश नहीं दे सकता। State of Haryana बनाम Bhajan Lal (1992) में Court ने कुछ स्थितियों को रेखांकित किया जहां FIR के आधार पर मुकदमा रद्द (Quash) किया जा सकता है, जैसे अगर FIR में कोई Prima Facie अपराध नहीं दिखता हो, या आरोप बिल्कुल भी भरोसे लायक न हों।

    Section 482 CrPC की शक्तियां – कब और कैसे इस्तेमाल करें? (Power under Section 482 CrPC – When Should It Be Used?)

    Section 482 CrPC High Court को Inherent Power देता है ताकि न्यायालय अपनी शक्ति का उपयोग ऐसे मामलों में कर सके जहां न्याय का उल्लंघन हो रहा हो या न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग हो रहा हो। Paramjit Batra बनाम State of Uttarakhand (2013) में Court ने कहा कि यह शक्ति बहुत ही सावधानी से, केवल दुर्लभ मामलों में इस्तेमाल की जानी चाहिए, खासकर जब विवाद Civil Nature (दीवानी प्रकृति) का हो लेकिन उसे Criminal रंग दे दिया गया हो।

    Neeharika Infrastructure Pvt. Ltd. बनाम State of Maharashtra (2021) में Court ने इस धारा के इस्तेमाल के लिए कुछ दिशा-निर्देश तय किए – जैसे कि अगर FIR में कोई भी अपराध नहीं दिखता तो जांच को जारी रखना गलत होगा। लेकिन अगर अपराध दिखता हो तो Court को जांच में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

    Section 420 IPC के तहत धोखाधड़ी (Ingredients of Cheating under Section 420 IPC)

    Supreme Court ने फिर से स्पष्ट किया कि Section 420 IPC के तहत Cheating का अपराध तभी बनता है जब निम्नलिखित चार बातें साबित हों:

    1. आरोपित व्यक्ति ने झूठा Representation (प्रस्तुति) किया हो।

    2. उसे पहले से पता हो कि वह Representation झूठा है।

    3. उसने जान-बूझकर धोखा देने की मंशा (Dishonest Intention) से ऐसा किया हो।

    4. इस झूठ की वजह से पीड़ित व्यक्ति ने अपनी Property (संपत्ति) या Valuable Security किसी को दे दी हो।

    Court ने Vijay Kumar Ghai बनाम State of West Bengal (2022) और R.K. Vijayasarathy बनाम Sudha Seetharam (2019) का हवाला देते हुए बताया कि अगर इनमें से कोई एक भी तत्व नहीं है, तो Section 420 IPC के तहत मामला नहीं बनता।

    District Police Chief द्वारा जांच आदेश की वैधता (Validity of Investigation Ordered by District Police Chief)

    Supreme Court ने यह निर्णय दिया कि District Police Chief द्वारा दिए गए Further Investigation के आदेश को कानून में कोई समर्थन नहीं है क्योंकि यह अधिकार केवल Magistrate या Superior Court के पास है। इस मामले में FR-I में Police ने जांच कर यह निष्कर्ष निकाला था कि कोई सबूत नहीं है, और इसे झूठा मामला करार दिया गया था। ऐसे में FR-II जो कि District Police Chief के आदेश पर हुआ, वह कानूनी रूप से अवैध (Illegal) है।

    अवैध Reinvestigation के प्रभाव (Consequences of Unlawful Reinvestigation)

    Court ने कहा कि कानून के अनुसार बिना न्यायिक अनुमति के की गई जांच वैध नहीं हो सकती। Vinay Tyagi के फैसले का हवाला देते हुए Court ने कहा कि Police को Court की अनुमति के बिना Supplementary Report (पूरक रिपोर्ट) दाखिल नहीं करनी चाहिए। ऐसा करना जांच प्रक्रिया को Arbitrary (मनमाना) और Unfair बना देता है।

    Supreme Court का अंतिम निष्कर्ष (Conclusion of the Supreme Court)

    Supreme Court ने High Court द्वारा दायर याचिका को खारिज करने के आदेश को रद्द कर दिया और Criminal Case No. 1326/2017 को पूरी तरह से रद्द (Quashed) कर दिया। Court ने माना कि पुलिस अधिकारी द्वारा बिना अनुमति के शुरू की गई Further Investigation कानून के अनुरूप नहीं थी। इस प्रकार यह निर्णय Police की जांच शक्तियों में न्यायिक निगरानी (Judicial Oversight) की आवश्यकता को मजबूत करता है।

    यह निर्णय Criminal Law की Procedural Safeguards (प्रक्रियात्मक सुरक्षा) को दोहराता है। यह स्पष्ट करता है कि कोई भी Police Officer चाहे वह कितना भी वरिष्ठ क्यों न हो Magistrate की अनुमति के बिना Further Investigation नहीं कर सकता। Court ने Section 482 CrPC के तहत High Court की शक्तियों की सीमाएं भी तय कीं और बताया कि केवल विशेष परिस्थितियों में ही मुकदमा रद्द किया जा सकता है।

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