क्या धारा 482 CrPC के तहत हाई कोर्ट बिना पर्याप्त कारण के अंतरिम आदेश जारी कर सकता है?

Himanshu Mishra

26 Dec 2024 8:29 PM IST

  • क्या धारा 482 CrPC के तहत हाई कोर्ट बिना पर्याप्त कारण के अंतरिम आदेश जारी कर सकता है?

    धारा 482 दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) के तहत हाई कोर्ट को यह अधिकार है कि वह न्याय सुनिश्चित करने के लिए या किसी न्यायिक प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए आवश्यक आदेश पारित कर सके। लेकिन, यह अधिकार असीमित नहीं है और इसका उपयोग बहुत सावधानी से करना चाहिए।

    जितुल जेतिलाल कोठेचा बनाम गुजरात राज्य (2021) के हालिया सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने इस विषय पर महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए हैं, खासकर हाई कोर्ट द्वारा बिना उचित कारण के अंतरिम निर्देश जारी करने को लेकर।

    मुख्य मुद्दे (Fundamental Issues)

    इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह तय किया कि:

    1. क्या हाई कोर्ट जांच प्रक्रिया के दौरान बिना उचित कारण के हस्तक्षेप कर सकता है?

    2. क्या "ड्राफ्ट चार्जशीट" (Draft Charge-sheet) के आधार पर आपराधिक प्रक्रिया को समाप्त करना (Quash) कानूनी रूप से सही है?

    न्यायिक विश्लेषण (Judicial Analysis)

    1. जांच में हाई कोर्ट की भूमिका (Role of High Court in Investigations)

    सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि पुलिस को संज्ञेय अपराध (Cognizable Offense) की जांच का अधिकार CrPC की धारा 154 और 156 के तहत प्राप्त है। जांच के बाद, अंतिम रिपोर्ट (Final Report) धारा 173(2) के तहत मजिस्ट्रेट को प्रस्तुत की जाती है। इस रिपोर्ट की समीक्षा करने का अधिकार मजिस्ट्रेट का है, न कि हाई कोर्ट का।

    प्रतीभा बनाम रमेश्वरी देवी (2007) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाई कोर्ट जांच एजेंसी को रिपोर्ट अपने सामने प्रस्तुत करने का निर्देश नहीं दे सकता और न ही ऐसी रिपोर्ट पर निर्भर होकर धारा 482 के तहत किसी प्रक्रिया को समाप्त कर सकता है। वर्तमान मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाई कोर्ट का आदेश, जिसमें जांच एजेंसी को अंतिम रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को प्रस्तुत करने से रोका गया, जांच प्रक्रिया में अनुचित हस्तक्षेप था।

    2. अंतरिम आदेश के लिए कारण आवश्यक (Reasons Required for Interim Orders)

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाई कोर्ट को अंतरिम चरण (Interim Stage) में भी अपने निर्देशों के लिए स्पष्ट कारण प्रस्तुत करने चाहिए। बिना कारण के दिए गए आदेश न्यायिक पारदर्शिता (Judicial Transparency) और जवाबदेही (Accountability) के सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं। यह दृष्टिकोण स्टेट ऑफ पंजाब बनाम दविंदर पाल सिंह भुल्लर (2011) में व्यक्त किया गया था।

    3. ड्राफ्ट चार्जशीट पर आधारित प्रक्रिया समाप्ति (Quashing Based on Draft Charge-Sheet)

    सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट की आलोचना की, जिसने ड्राफ्ट चार्जशीट पर आधारित आपराधिक प्रक्रिया समाप्त कर दी। ड्राफ्ट चार्जशीट मजिस्ट्रेट को प्रस्तुत नहीं की गई थी, और इस पर हाई कोर्ट की निर्भरता समय से पहले और गलत थी। कप्तान सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2021) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाई कोर्ट को अपने निर्णयों को अंतिम जांच रिपोर्ट (Final Investigative Report) पर आधारित करना चाहिए, न कि अनुमानित दस्तावेजों पर।

    महत्वपूर्ण न्यायिक दृष्टांत (Key Judicial Precedents)

    1. जुगेश सहगल बनाम शमशेर सिंह गोगी (2009): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 482 के तहत हाई कोर्ट का अधिकार विवेकपूर्ण (Judicious) और न्यायिक सिद्धांतों के तहत सीमित है।

    2. सिमरिकिया बनाम डॉली मुखर्जी (1990): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाई कोर्ट का अंतर्निहित अधिकार (Inherent Power) कानूनी प्रावधानों को दरकिनार करने के लिए उपयोग नहीं किया जा सकता।

    3. महेंद्र केसी बनाम कर्नाटक राज्य (2021): कोर्ट ने दोहराया कि एफआईआर (FIR) में लगाए गए आरोपों का मूल्यांकन उनकी सतह पर करना चाहिए, न कि साक्ष्यों (Evidence) के गहन विश्लेषण के आधार पर।

    सुप्रीम कोर्ट का निष्कर्ष (Supreme Court's Conclusion)

    सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि हाई कोर्ट ने अपनी सीमाओं का उल्लंघन किया:

    1. जांच एजेंसी को मजिस्ट्रेट के समक्ष चार्जशीट प्रस्तुत करने से रोकने का निर्देश देकर।

    2. ड्राफ्ट चार्जशीट पर निर्भर होकर आपराधिक प्रक्रिया को समाप्त करने में।

    3. कुछ आरोपियों के खिलाफ स्पष्ट आरोपों की जांच किए बिना।

    सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया और जांच प्रक्रिया को बहाल कर दिया। कोर्ट ने कहा कि हाई कोर्ट को जांच प्रक्रिया में न्यूनतम और उचित हस्तक्षेप करना चाहिए।

    जितुल जेतिलाल कोठेचा बनाम गुजरात राज्य का यह निर्णय याद दिलाता है कि हाई कोर्ट को धारा 482 CrPC के तहत अपने अधिकारों का विवेकपूर्ण और सीमित उपयोग करना चाहिए।

    अंतरिम चरण में दिए गए निर्देश कारणयुक्त (Reasoned) होने चाहिए और केवल तभी दिए जाने चाहिए जब न्याय की प्रक्रिया में स्पष्ट दुरुपयोग या अन्याय हो रहा हो। यह मामला CrPC में निहित प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों (Procedural Safeguards) को बनाए रखने का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है।

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