क्या PMLA मामले में ED गिरफ्तारी के बाद CrPC को दरकिनार कर पुलिस कस्टडी मांग सकती है?
Himanshu Mishra
23 Jun 2025 12:01 PM

PMLA और CrPC के तहत गिरफ्तारी का दायरा (Scope of Arrest under PMLA and CrPC)
सुप्रीम कोर्ट ने वी. सेंथिल बालाजी बनाम राज्य (2023) में यह तय किया कि प्रिवेंशन ऑफ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट, 2002 (Prevention of Money Laundering Act – PMLA) के तहत प्रवर्तन निदेशालय (Enforcement Directorate – ED) गिरफ्तारी कर सकता है और अपराध प्रक्रिया संहिता 1973 (Code of Criminal Procedure – CrPC) की धारा 167 के तहत कस्टडी (Custody) की मांग भी कर सकता है।
कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि ED के अधिकारी पारंपरिक अर्थों में “पुलिस अधिकारी” नहीं हैं, लेकिन उन्हें जांच और गिरफ्तारी की शक्तियाँ प्राप्त हैं। ऐसे में, अगर ED किसी व्यक्ति को PMLA की धारा 19 के तहत गिरफ्तार करता है, तो वह CrPC की धारा 167 के अनुसार कस्टडी की मांग कर सकता है।
CrPC की धारा 167 के तहत कस्टडी और उसकी व्याख्या (Custody under Section 167 CrPC)
CrPC की धारा 167 यह तय करती है कि गिरफ्तारी के बाद किसी व्यक्ति को अधिकतम कितने दिनों तक हिरासत में (Custody) रखा जा सकता है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इसमें “कस्टडी” का अर्थ केवल पुलिस की हिरासत नहीं है, बल्कि ED की हिरासत को भी इसमें शामिल माना जा सकता है।
लेकिन यह कस्टडी केवल पहली 15 दिनों की अवधि में ही दी जा सकती है। यदि उस दौरान आरोपी अस्पताल में हो और ED उसकी वास्तविक हिरासत में न हो सके, तो उस अस्पताल में बिताए गए समय को कस्टडी की गणना (Calculation) से बाहर रखा जा सकता है, बशर्ते कोर्ट इस पर सहमति दे।
अस्पताल में भर्ती होने की स्थिति में कस्टडी की गणना (Exclusion of Hospitalization Period)
कोर्ट ने यह महत्वपूर्ण स्पष्टीकरण दिया कि यदि आरोपी ED की कस्टडी में नहीं है क्योंकि वह अस्पताल में भर्ती है, तो ED इस अवधि को कस्टडी की गणना से अलग रखने की मांग कर सकता है। लेकिन यह छूट अपने आप नहीं मिलती, बल्कि इसे न्यायिक रूप से मंजूरी देना जरूरी है। इससे ED को यह मौका मिलता है कि वह प्रभावी जांच के लिए वैध तरीके से कस्टडी मांग सके।
हैबियस कॉर्पस और न्यायिक हिरासत (Habeas Corpus and Judicial Custody)
कोर्ट के सामने यह प्रश्न भी था कि क्या PMLA के तहत गिरफ्तारी के बाद किसी व्यक्ति की न्यायिक हिरासत (Judicial Custody) को चुनौती देते हुए हैबियस कॉर्पस (Habeas Corpus) याचिका दाखिल की जा सकती है। कोर्ट ने कहा कि जब किसी व्यक्ति को PMLA की धारा 19(3) के तहत मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया गया हो और मजिस्ट्रेट ने हिरासत की मंजूरी दी हो, तो वह हिरासत अवैध नहीं मानी जा सकती। ऐसी स्थिति में हैबियस कॉर्पस याचिका स्वीकार नहीं की जा सकती।
PMLA के तहत ED की भूमिका और शक्तियाँ (Role and Powers of ED under PMLA)
कोर्ट ने यह दोहराया कि PMLA एक सुइ जेनेरिस (Sui Generis) कानून है, जिसका अर्थ है कि यह एक विशेष प्रकृति का कानून है जिसकी अपनी प्रक्रिया है। इस कानून की धारा 65 कहती है कि CrPC लागू होगा, लेकिन केवल तब जब वह PMLA के प्रावधानों से टकराव में न हो। ED के पास गिरफ्तारी और जांच की शक्तियाँ हैं, लेकिन इसके साथ-साथ PMLA की धारा 19(2) के तहत उन्हें गिरफ्तारी के कारणों को रिकॉर्ड करना और आरोपी को सूचित करना अनिवार्य है।
क्या CrPC की धारा 41A ED पर लागू होती है? (Inapplicability of Section 41A CrPC)
CrPC की धारा 41A कहती है कि जिन मामलों में गिरफ्तारी जरूरी नहीं होती, वहां पहले नोटिस दिया जाना चाहिए। कोर्ट ने Arnesh Kumar बनाम बिहार राज्य (2014) के निर्णय का हवाला देते हुए स्पष्ट किया कि यह धारा केवल छोटे अपराधों के लिए बनाई गई थी और इसका उद्देश्य गिरफ्तारी से पहले व्यक्ति को एक अवसर देना है। लेकिन PMLA जैसे गंभीर आर्थिक अपराधों (Serious Economic Offences) में यह प्रावधान लागू नहीं होता क्योंकि PMLA की अपनी सख्त प्रक्रिया और सुरक्षा तंत्र पहले से मौजूद है।
जांच (Investigation) बनाम पूछताछ (Inquiry) की व्याख्या (Nature of PMLA Investigations)
कोर्ट ने Vijay Madanlal Choudhary बनाम भारत संघ (2022) केस का हवाला देते हुए यह स्पष्ट किया कि PMLA के तहत ED द्वारा की गई जांच CrPC के तहत की गई पारंपरिक पुलिस जांच से भिन्न है। PMLA में जांच दो स्तरों पर होती है – एक, संपत्ति की कुर्की और अनुलग्नन (Attachment) के लिए और दूसरा, आपराधिक अभियोजन (Prosecution) के लिए। ED एक विशेष अदालत (Special Court) के समक्ष शिकायत (Complaint) दाखिल कर सकता है, जो चार्जशीट (Chargesheet) के समान मानी जाती है।
गिरफ्तारी में पारदर्शिता और जवाबदेही (Safeguards and Accountability)
PMLA की धारा 19(2) यह सुनिश्चित करती है कि गिरफ्तारी के बाद कारणों और साक्ष्यों को एक सीलबंद लिफाफे में PMLA की Adjudicating Authority को भेजा जाए। यह प्रक्रिया यह सुनिश्चित करती है कि गिरफ्तारी मनमानी (Arbitrary) न हो। यदि कोई गिरफ्तारी बिना कारण या दुर्भावनापूर्ण तरीके से की गई हो, तो PMLA की धारा 62 के तहत संबंधित अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई भी हो सकती है। कोर्ट ने Premium Granites बनाम तमिलनाडु राज्य और Ahmed Bhatti बनाम गुजरात राज्य जैसे मामलों का हवाला देते हुए कहा कि शक्तिशाली पदों पर बैठे अधिकारियों को जिम्मेदारी से कार्य करना चाहिए।
Anupam Kulkarni निर्णय की पुनर्व्याख्या (Revisiting Anupam Kulkarni Case)
CBI बनाम अनुपम कुलकर्णी V. सेंथिल बालाजी केस (1992) में यह सिद्धांत दिया गया था कि गिरफ्तारी के पहले 15 दिनों के भीतर ही पुलिस कस्टडी दी जा सकती है। कोर्ट ने कहा कि इस सिद्धांत को अब बड़ी पीठ द्वारा पुनः विचार किया जाना चाहिए, खासकर उन मामलों में जहां पहली 15 दिनों की अवधि में हिरासत नहीं मिल पाई हो क्योंकि आरोपी अस्पताल में रहा हो या कोर्ट द्वारा कस्टडी रोकी गई हो।
कानून की शक्ति और व्यक्ति की स्वतंत्रता का संतुलन
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि PMLA का उद्देश्य आर्थिक अपराधों पर सख्ती से नियंत्रण करना है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि व्यक्ति की स्वतंत्रता और संविधान में दिए गए अधिकारों को नजरअंदाज कर दिया जाए।
ED को शक्तियाँ दी गई हैं, लेकिन उन्हें संविधान और कानून की मर्यादा में रहकर ही प्रयोग किया जाना चाहिए। कोर्ट ने यह भी दोहराया कि PMLA की प्रक्रियाएँ कठोर हैं, लेकिन उनमें पर्याप्त सुरक्षा के उपाय (Safeguards) भी मौजूद हैं, जिनका पालन करना अनिवार्य है।
यह फैसला न केवल ED की शक्तियों की सीमा स्पष्ट करता है, बल्कि व्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को सुरक्षित रखने की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण कदम है। PMLA और CrPC दोनों का संतुलन बनाए रखना ही न्याय का सही मार्ग है।