क्या NDPS Act के तहत ट्रायल में देरी होने पर जमानत दी जा सकती है?
Himanshu Mishra
1 May 2025 3:25 PM

सुप्रीम कोर्ट ने मो. मुस्लिम बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली) के फैसले में यह अहम सवाल उठाया कि क्या एनडीपीएस कानून (NDPS Act) के तहत किसी आरोपी को जमानत (Bail) दी जा सकती है जब ट्रायल में अत्यधिक देरी हो रही हो?
इस फैसले में यह साफ किया गया कि यदि ट्रायल लंबा खिंचता है और आरोपी को बिना दोषी ठहराए सालों तक जेल में रखा जाता है, तो यह अनुच्छेद 21 (Article 21) के तहत मिलने वाले जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार (Right to Life and Liberty) का उल्लंघन हो सकता है।
एनडीपीएस अधिनियम की धारा 37 का मतलब (Meaning of Section 37 of NDPS Act: Bail Restrictions and Exceptions)
धारा 37 के तहत जमानत पर बहुत सख्त शर्तें लगाई गई हैं। कोर्ट को यह मानना होता है कि आरोपी अपराधी नहीं है और वह जमानत पर रहते हुए कोई और अपराध नहीं करेगा। इसके अलावा सरकारी वकील (Public Prosecutor) को अपनी बात रखने का मौका देना अनिवार्य है। ये शर्तें न्यायिक विवेक (Judicial Discretion) को सीमित करती हैं और सामान्य आपराधिक मामलों की तुलना में जमानत को मुश्किल बना देती हैं।
अनुच्छेद 21 और धारा 37 के बीच संतुलन (Balancing Article 21 with Section 37: Right to Speedy Trial)
कोर्ट ने माना कि जहां धारा 37 जनता के हित (Public Interest) में है, वहीं आरोपी का अनुच्छेद 21 के तहत त्वरित सुनवाई (Speedy Trial) का अधिकार भी अत्यंत जरूरी है। हुसैनआरा खातून बनाम बिहार राज्य के केस में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा था कि त्वरित ट्रायल जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का हिस्सा है। इसी बात को अब्दुल रहमान अंतुले और कदरा पहाड़िया जैसे फैसलों में भी दोहराया गया।
कोर्ट ने साफ किया कि केवल इस आधार पर कि मामला एनडीपीएस एक्ट के तहत है, जमानत से इंकार नहीं किया जा सकता। अगर ट्रायल समय पर नहीं हो रहा है और आरोपी लंबे समय से जेल में है, तो यह अन्याय है।
सीआरपीसी की धारा 436A और इसका एनडीपीएस मामलों में उपयोग (Section 436A of CrPC and Its Applicability to NDPS Cases)
सीआरपीसी की धारा 436A कहती है कि अगर आरोपी ने उस अपराध की अधिकतम सजा का आधा हिस्सा जेल में बिता दिया है और ट्रायल खत्म नहीं हुआ है, तो उसे जमानत दी जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह प्रावधान एनडीपीएस जैसे विशेष कानूनों पर भी लागू होता है।
सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम सीबीआई के फैसले में भी यही बात कही गई थी कि यदि ट्रायल लंबा खिंचता है, तो धारा 436A आरोपी को राहत देती है, भले ही वह विशेष कानून के तहत गिरफ्तार किया गया हो।
विशेष कानूनों में देरी के आधार पर जमानत के लिए पुराने फैसलों का सहारा (Precedents Supporting Bail in Delayed Trials under Special Laws)
कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट लीगल एड कमेटी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के फैसले का हवाला दिया, जिसमें यह कहा गया था कि एनडीपीएस कानून की सख्त जमानत शर्तों के बावजूद यदि ट्रायल पूरा नहीं हो रहा है, तो जमानत दी जा सकती है। इसी तरह यूनीयन ऑफ इंडिया बनाम के. ए. नजीब के फैसले में भी यह तय हुआ कि संविधानिक अदालतें आरोपी के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए हस्तक्षेप कर सकती हैं।
धारा 37 की "निर्दोष होने की संतुष्टि" का मतलब (Prima Facie Satisfaction under Section 37)
धारा 37 में लिखा है कि कोर्ट को यह संतुष्टि होनी चाहिए कि आरोपी "अपराधी नहीं है"। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इसका मतलब यह नहीं है कि आरोपी को पहले ही निर्दोष घोषित कर दिया जाए। यह केवल एक Prima Facie (प्रथम दृष्टया) संतुष्टि होनी चाहिए, यानी जांच के शुरुआती दस्तावेजों को देखकर एक सामान्य अनुमान।
यूनीयन ऑफ इंडिया बनाम रतन मलिक के फैसले में भी कोर्ट ने कहा था कि जमानत सुनवाई के दौरान गहराई से सबूतों की जांच जरूरी नहीं होती, सिर्फ एक सामान्य नजरिया अपनाना होता है।
जेल में लंबे समय तक बंद रहने से सामाजिक और मानसिक नुकसान (Incarceration, Social Consequences, and Mental Impact)
कोर्ट ने यह भी बताया कि गरीब तबके के लोगों के लिए जेल में लंबा समय बिताना केवल आज़ादी की हानि नहीं बल्कि रोज़गार और पारिवारिक जीवन की भी क्षति है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार 2021 में भारत की जेलों में कुल कैदियों की संख्या 5.5 लाख से ज़्यादा थी, जिनमें अधिकांश Undertrials (मुकदमा चल रहा है) थे।
कोर्ट ने Prisonisation (जेल संस्कृति में ढलना) शब्द का उल्लेख किया, जिसमें बताया गया कि जेल का माहौल व्यक्ति की मानसिकता, पहचान और सामाजिक संबंधों को नष्ट कर देता है। लंबे समय तक जेल में रहना कई बार साधारण व्यक्ति को अपराधी बना देता है।
कोर्ट का निष्कर्ष और निर्देश (Court's Conclusion and Directions)
कोर्ट ने अंत में कहा कि एनडीपीएस जैसे कानून समाज के लिए ज़रूरी हैं, लेकिन उनका पालन करते समय संविधान के तहत मिलने वाले मौलिक अधिकारों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यदि ट्रायल में देरी हो रही है और आरोपी पहले ही लंबी कैद भुगत चुका है, तो जमानत देना संविधान की मांग है।
इसलिए कोर्ट ने आरोपी को जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया, यह कहते हुए कि ट्रायल कोर्ट जमानत की शर्तें तय करेगा। साथ ही यह भी कहा गया कि राज्य सरकारों को चाहिए कि विशेष कानूनों के तहत मामलों का ट्रायल प्राथमिकता पर चलाया जाए और समय से पूरा किया जाए।
न्याय, स्वतंत्रता और अदालतों की जिम्मेदारी (Justice, Liberty, and Responsibility of Courts)
इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह दोहराया कि अदालतें केवल कानून लागू करने वाली संस्थाएं नहीं हैं, बल्कि नागरिकों की स्वतंत्रता की रक्षक भी हैं। यदि किसी कानून के तहत जमानत के लिए सख्त शर्तें लगाई जाती हैं, तो यह सरकार की ज़िम्मेदारी है कि ट्रायल समय पर पूरा हो। वरना यह व्यवस्था केवल सज़ा देने वाली बन जाती है, न कि न्याय देने वाली।
मो. मुस्लिम बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली) का यह निर्णय यह सिद्ध करता है कि संविधान सर्वोच्च है और कोई भी कानून यदि मौलिक अधिकारों को ठेस पहुंचाता है, तो उसे पीछे हटना होगा। स्वतंत्रता एक अमूल्य अधिकार है जिसे देरी की बलि नहीं चढ़ाया जा सकता।