इस्लाम में बहुविवाह तभी मान्य जब पति पत्नियों के बीच न्याय कर सके: केरल हाईकोर्ट
Praveen Mishra
20 Sept 2025 3:59 PM IST

केरल हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी की है कि इस्लाम में बहुविवाह (Polygamy) केवल तभी मान्य है जब पुरुष अपनी पत्नियों के साथ समान न्याय करने में सक्षम हो।
जस्टिस पी.वी. कुन्हिकृष्णन ने यह अवलोकन उस समय किया जब उन्होंने एक पुनरीक्षण याचिका का निपटारा करते हुए परिवार न्यायालय (Family Court) के आदेश को बरकरार रखा। परिवार न्यायालय ने पत्नी की उस मांग को खारिज कर दिया था जिसमें उसने अपने पति से ₹10,000 मासिक भरण-पोषण की मांग की थी। पति एक नेत्रहीन व्यक्ति है, जो भीख और पड़ोसियों की कभी-कभी मिलने वाली मदद से जीवनयापन करता है।
याचिकाकर्ता पत्नी ने तर्क दिया कि उसका पति पहले से दो पत्नियों के होते हुए भी दूसरी शादी करने की धमकी दे रहा है। इस पर कोर्ट ने कहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ में बहुविवाह तभी संभव है जब पति अपनी पत्नियों का उचित भरण-पोषण और न्याय कर सके। आर्थिक रूप से अक्षम व्यक्ति के लिए बहुविवाह संभव नहीं है।
कुरान की आयतों (सूरह 4, आयत 3 और 129) का हवाला देते हुए कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इस्लामी कानून की वास्तविक भावना एकपत्नी प्रथा (Monogamy) है और बहुविवाह केवल अपवाद है, वह भी न्याय और क्षमता की शर्त पर।
कोर्ट ने कहा,“इन आयतों की आत्मा और मंशा एकपत्नी प्रथा है, बहुविवाह केवल अपवाद है। कुरान न्याय पर विशेष जोर देता है। यदि मुस्लिम पुरुष अपनी पहली, दूसरी, तीसरी और चौथी पत्नी के साथ न्याय कर सकता है, तभी उसे एक से अधिक विवाह की अनुमति है। मुस्लिम समाज का अधिकांश हिस्सा, चाहे उनके पास आर्थिक क्षमता हो, एक ही पत्नी के साथ रहता है। यही कुरान की सच्ची भावना है।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि मुस्लिम समाज का छोटा-सा वर्ग जो कुरान की आयतों को भूलकर बहुविवाह कर रहा है, उसे धार्मिक नेताओं और समाज द्वारा शिक्षित किया जाना चाहिए।
इसके साथ ही कोर्ट ने कहा कि राज्य का यह कर्तव्य है कि मुस्लिम रीति-रिवाजों और कानून की बुनियादी बातों के बारे में उचित परामर्श दिया जाए।
“यदि कोई नेत्रहीन मुस्लिम व्यक्ति, जो मस्जिद के सामने भीख मांगकर जीवनयापन करता है, बिना इस बुनियादी जानकारी के लगातार शादियां कर रहा है, तो राज्य का कर्तव्य है कि उसे सही तरीके से परामर्श दिया जाए।”
कोर्ट ने आगे कहा कि मुस्लिम समुदाय की वे निर्धन महिलाएँ, जो बहुविवाह की शिकार हैं, उनकी रक्षा करना भी राज्य का दायित्व है।
इसलिए कोर्ट ने सरकार के संबंधित विभाग को निर्देश दिया कि उत्तरदाता (पति) को योग्य परामर्शदाताओं और धार्मिक नेताओं की मदद से उचित काउंसलिंग दी जाए, ताकि वह दोबारा विवाह न करे और एक और महिला बेसहारा न बने। कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि संभव हो तो राज्य सरकार पति और पत्नी को पुनः मिलाने का प्रयास करे, “यह किसी भी लोकतांत्रिक सरकार के लिए गर्व की बात होगी।”
अंततः कोर्ट ने पुनरीक्षण याचिका खारिज करते हुए परिवार न्यायालय का आदेश बरकरार रखा और इस निर्णय की प्रति केरल सरकार के समाज कल्याण विभाग के सचिव को उचित कार्रवाई हेतु भेजने का निर्देश दिया।

