जेंडर और उम्र की परवाह किए बिना किसी भी व्यक्ति को POCSO Act के तहत आरोपी बनाया जा सकता है: केरल हाइकोर्ट ने नाबालिग के खिलाफ मामला रद्द करने से इनकार किया

Amir Ahmad

15 March 2024 8:11 AM GMT

  • जेंडर और उम्र की परवाह किए बिना किसी भी व्यक्ति को POCSO Act के तहत आरोपी बनाया जा सकता है: केरल हाइकोर्ट ने नाबालिग के खिलाफ मामला रद्द करने से इनकार किया

    केरल हाइकोर्ट ने माना कि जेंडर और उम्र की परवाह किए बिना कोई भी व्यक्ति यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम 2012 (POCSO Act) के तहत आरोपी हो सकता है।

    इस प्रकार इसने नाबालिग के खिलाफ अधिनियम के तहत लंबित कार्यवाही रद्द करने से इनकार किया।

    जस्टिस पीजी अजितकुमार की पीठ ने हालांकि स्पष्ट किया कि नाबालिग पर सामान्य आपराधिक अदालत में मुकदमा नहीं चलाया जा सकता, लेकिन केवल किशोर न्याय अधिनियम के प्रावधानों के तहत ही निपटा जा सकता है।

    कोर्ट ने कहा,

    “पेनिट्रेटिव सेक्सुअल असाल्ट और सेक्सुअल असाल्ट और इसके गंभीर रूपों को POCSO Act की धारा 3, 5, 7 और 9 में परिभाषित किया गया। उन परिभाषाओं और संबंधित दंडात्मक प्रावधानों को पढ़ने से पता चलता है कि जेंडर और उम्र की परवाह किए बिना बेशक आईपीसी में सामान्य अपवादों के अधीन है। कोई भी व्यक्ति ऐसे अपराधों का आरोपी व्यक्ति हो सकता है। याचिकाकर्ता, जो 13 वर्ष का है, आईपीसी की धारा 342 और 377 और धारा 4 सपठित धारा 3 (सी), और यौन अपराधों से बच्चों की सुरक्षा की धारा 6 सपठित धारा 5 (एम) के तहत अपराध का आरोपी है।”

    याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि याचिकाकर्ता पर न तो भारतीय दंड संहिता और न ही POCSO Act के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है, क्योंकि याचिकाकर्ता बच्चा है और उसे इस तरह के अपराध को करने के आपराधिक इरादे के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। वकील ने कहा कि इसलिए आरोपी के खिलाफ जांच अवैध है और इसे रद्द किया जाना चाहिए।

    अभियोजन पक्ष के वकील ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता को POCSO Act के प्रावधानों के तहत 'अपराधी' माना जाएगा।

    अदालत ने कहा कि कानून यह निर्धारित नहीं करता है कि POCSO Act के तहत किसी अपराध के संबंध में कानून का उल्लंघन करने वाले बच्चे के खिलाफ कार्रवाई करना संभव नहीं है, जो अनिवार्य रूप से यौन अपराधों से बच्चों की सुरक्षा के लिए अधिनियमित किया गया।

    अदालत ने निष्कर्ष निकाला

    "कानून का उल्लंघन करने वाले बच्चे के हितों की निश्चित रूप से रक्षा की जाएगी क्योंकि जांच की प्रक्रिया किसी बच्चे को दोषी ठहराने के लिए नहीं है बल्कि उसे सुधारने और समाज की मुख्य धारा में फिर से शामिल करने के लिए है।"

    केस टाइटल- सुहैब @ कुलप्पी कक्का बनाम केरल राज्य और अन्य।

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