हिरासत में यातना सरकारी कर्तव्य का हिस्सा नहीं: हाईकोर्ट ने बिना 'अनुमति' पुलिसकर्मियों के खिलाफ आरोप तय करने का दिया आदेश

Shahadat

9 July 2025 7:34 PM IST

  • हिरासत में यातना सरकारी कर्तव्य का हिस्सा नहीं: हाईकोर्ट ने बिना अनुमति पुलिसकर्मियों के खिलाफ आरोप तय करने का दिया आदेश

    केरल हाईकोर्ट ने निचली अदालत को महिला से कथित चोरी के मामले में पूछताछ के दौरान हिरासत में यातना देने के आरोपी चार पुलिस अधिकारियों के खिलाफ आरोप तय करने का आदेश दिया।

    जस्टिस डॉ. कौसर एडप्पागथ ने निचली अदालत का आदेश रद्द कर दिया, जिसमें आरोपी पुलिस अधिकारियों को यह कहते हुए बरी कर दिया गया था कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 197 के तहत पूर्व अनुमति नहीं ली गई थी।

    न्यायालय ने पाया कि CrPC की धारा 197 के तहत संरक्षण लोक सेवकों द्वारा की गई आपराधिक गतिविधियों पर लागू नहीं होता है। इसके अलावा, सरकार की पूर्व अनुमति के बिना संज्ञान लेने पर प्रतिबंध केवल आधिकारिक कर्तव्य का पालन करते समय या उसका पालन करने का दावा करते हुए किए गए अपराधों के संबंध में है।

    जी.सी. मंजूनाथ बनाम सीताराम (2025) में न्यायालय ने कहा:

    "CrPC की धारा 197 का संरक्षण केवल तभी उपलब्ध होता है, जब लोक सेवक द्वारा किया गया कथित कार्य उसके आधिकारिक कर्तव्य के निर्वहन या कथित निर्वहन से युक्तिसंगत और आंतरिक रूप से जुड़ा हो... यह कभी नहीं कहा जा सकता कि जब कोई पुलिस अधिकारी किसी गिरफ्तार व्यक्ति को हिरासत में यातना देता है तो वह अपने आधिकारिक कर्तव्य के निर्वहन में कार्य करता है या कार्य करने का अभिप्राय रखता है। न ही यह कहा जा सकता है कि अनुचित हिरासत में यातना देना संबंधित पुलिस अधिकारी के आधिकारिक कर्तव्य के निर्वहन या कथित निर्वहन से युक्तिसंगत और आंतरिक रूप से जुड़ा है, ताकि उसे CrPC की धारा 197 के तहत संरक्षण प्राप्त हो।"

    न्यायालय पुलिस अधिकारियों (आरोपी संख्या 5 से 8) और अन्य आरोपियों को आरोपमुक्त किए जाने के विरुद्ध शिकायतकर्ता द्वारा दायर पुनर्विचार याचिका पर विचार कर रहा था।

    शिकायतकर्ता एक घरेलू सहायिका थी, जिसे तीन महिला पुलिस कांस्टेबल (आरोपी नंबर 6 से 8) आरोपी नंबर 1 से 4 के घर में कथित चोरी के आरोप में पुलिस स्टेशन ले गईं। उसने आरोप लगाया कि पुलिस उसे अंदर वाले कमरे में ले गई और बेंत व डंडे से पीटा, उसका सिर दीवार पर मारा गया, उसकी गर्दन दबाई गई और सब-इंस्पेक्टर (आरोपी नंबर 5) के निर्देश पर उसके पेट पर लात मारी गई।

    उसने दावा किया कि उसका सरकारी अस्पताल में इलाज हुआ था। बाद में उसने भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 166, 211, 220, 323, 324, 330, 331, 341, 342, 348 और 354 (सहित धारा 34) और अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC/ST Act) की धारा 3(1)(ix)(x) और (xi) के तहत एक निजी शिकायत दर्ज कराई।

    इस मामले की सुनवाई कर रही सेशन कोर्ट ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया, क्योंकि उसे आरोपी नंबर 1 से 4 के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए प्रथम दृष्टया कोई सबूत नहीं मिला और आरोपी नंबर 5 से 8 के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं मिली।

    हाईकोर्ट ने कहा कि निचली अदालत ने स्पष्ट रूप से पाया कि शिकायतकर्ता को चोटें आई थीं और प्रथम दृष्टया यह दिखाने के लिए सबूत मौजूद थे कि आरोपी पुलिस अधिकारियों ने उसे प्रताड़ित किया था। इस प्रकार, न्यायालय ने निचली अदालत के इस निष्कर्ष को स्वीकार करने से इनकार कर दिया कि पुलिस द्वारा ये कृत्य अपने आधिकारिक कर्तव्य के पालन में किए गए थे।

    न्यायालय ने कहा:

    “मेडिकल रिकॉर्ड से पता चलता है कि उसके शरीर पर चोटें थीं। अभियुक्त नंबर 5 से 8 के इन कृत्यों का उनके आधिकारिक कर्तव्यों से कोई उचित संबंध नहीं हो सकता। यह दिखावटी या मनगढ़ंत दावा कि उन्होंने अपने आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान ये कृत्य किए, मान्य नहीं हो सकता... उनके आधिकारिक कर्तव्यों ने उन्हें हिरासत में याचिकाकर्ता पर हमला करने या उसके साथ दुर्व्यवहार करने का अधिकार नहीं दिया, जबकि रिकॉर्ड में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे यह पता चले कि उसकी ओर से कोई बाधा या प्रतिरोध हुआ था। ऐसी परिस्थितियां हो सकती हैं, जो पुलिस द्वारा अपने आधिकारिक कर्तव्य का निर्वहन करते समय बल प्रयोग को उचित ठहरा सकती हैं। लेकिन यहां ऐसा नहीं है।”

    न्यायालय का कर्तव्य है कि वे हिरासत में यातना पर नियंत्रण रखें।

    हाईकोर्ट ने टिप्पणी की कि हिरासत में यातना सभ्य समाज में "सबसे बुरे अपराधों में से एक" है और पुलिस अधिकारियों को खुद को कानून से ऊपर समझने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

    इसने यह सुनिश्चित करने में अदालतों के महत्व पर प्रकाश डाला कि पुलिस अधिकारी कानून को अपने हाथ में न लें और कहा,

    “जब तक इस बीमारी को रोकने के लिए कड़े कदम नहीं उठाए जाते, आपराधिक न्याय प्रणाली की नींव हिल जाएगी। इसलिए अदालतों को ऐसे मामलों को यथार्थवादी तरीके से और उस संवेदनशीलता के साथ निपटाना चाहिए जिसकी वे हकदार हैं; अन्यथा, आम आदमी का न्यायपालिका पर से ही विश्वास उठ सकता है।”

    Case Title: Sudha v. State of Kerala and Ors.

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