मुस्लिम महिला तलाक एक्ट के तहत फाइल किए गए आवेदन पर 3 साल का लिमिटेशन पीरियड लागू होगा: केरल हाईकोर्ट
Shahadat
1 Dec 2025 9:32 AM IST

केरल हाईकोर्ट ने फिर से स्पष्ट किया कि लिमिटेशन एक्ट, 1963 का आर्टिकल 137, मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) एक्ट, 1986 की धारा 3 के तहत फाइल किए गए आवेदन पर लागू होता है।
डॉ. जस्टिस ए के जयशंकरन नांबियार और जस्टिस जोबिन सेबेस्टियन की डिवीजन बेंच ने यह ऑर्डर एक इंट्रा-कोर्ट रेफरेंस में दिया, जो तब शुरू हुआ जब एक सिंगल जज ने हसैनर बनाम रजिया (1993 (2) KLT 805) में पहले के उदाहरण के सही होने पर सवाल उठाया, जिसमें कहा गया कि 1986 एक्ट की धारा 3 के तहत फेयर और रीजनेबल प्रोविजन और मेंटेनेंस के क्लेम पर तीन साल का लिमिटेशन पीरियड लागू होता है।
याचिकाकर्ता ने 2004 में अपने तलाक के लगभग नौ साल बाद मेंटेनेंस के लिए क्लेम फाइल किया, जिससे मजिस्ट्रेट ने माना कि आर्टिकल 137 के तहत क्लेम की समय-सीमा खत्म हो चुकी थी। सेशंस कोर्ट ने रिवीजन पिटीशन में लिमिटेशन कानून के लागू होने की पुष्टि की, लेकिन तथ्यों के आधार पर पाया कि उसका क्लेम फिर भी समय के अंदर था, क्योंकि यह मेंटेनेंस से कथित इनकार के तीन साल के अंदर फाइल किया गया। कोर्ट ने यह भी माना कि याचिकाकर्ता यह साबित नहीं कर पाई कि रेस्पोंडेंट पति के पास उसके द्वारा क्लेम की गई रकम देने के लिए पर्याप्त साधन थे और रिवीजन पिटीशन खारिज कर दी।
हाईकोर्ट के सिंगल जज के सामने क्रिमिनल मिसलेनियस याचिका फाइल की गई, जिसमें सेशंस कोर्ट के इस नतीजे को चुनौती दी गई कि उसने 1986 के एक्ट के तहत अपने सभी अधिकार छोड़ दिए।
हालांकि, सिंगल जज के सामने लिमिटेशन असल में विवाद में नहीं था, क्योंकि लिमिटेशन पर सेशंस कोर्ट का फैसला याचिकाकर्ता के पक्ष में था, सिंगल जज ने हसनैर के सही होने पर सवाल उठाए और कानूनी सवाल को एक डिवीजन बेंच को भेज दिया।
डिवीज़न बेंच ने माना कि रेफरेंस ऑर्डर इस गलत आधार पर बनाया गया कि 1986 एक्ट की धारा 3 के तहत एप्लीकेशन क्रिमिनल प्रोसिडिंग्स हैं, जिससे लिमिटेशन एक्ट लागू नहीं होता।
कोर्ट ने कहा कि क्रिमिनल प्रोसिडिंग्स में लिमिटेशन एक्ट के प्रोविज़न्स को बाहर रखना इस बुनियादी सिद्धांत पर आधारित है कि 'क्राइम कभी नहीं मरते' जिसे लैटिन कहावत 'नलम टेम्पस ऑट लोकस ऑक्यूरिट रेजी' से बताया गया, जिसका मतलब है 'अपराधियों के खिलाफ प्रोसिडिंग्स में समय बीत जाना क्राउन के लिए कोई रुकावट नहीं है'।
कोर्ट ने कहा कि 1986 एक्ट की धारा 3 के तहत प्रोसिडिंग्स क्रिमिनल प्रोसिडिंग्स नहीं बल्कि सिविल प्रोसिडिंग्स हैं। हालांकि एडजुडिकेटरी फोरम मजिस्ट्रेट कोर्ट हो सकता है।
कोर्ट ने आगे कहा,
"सिर्फ यह बात कि एडजुडिकेटेड अधिकार को लागू करने के लिए एनफोर्समेंट मशीनरी CrPC के तहत बताई गई, इस बात को खत्म नहीं करती कि एडजुडिकेशन प्रोसिडिंग्स खुद सिविल प्रोसिडिंग्स हैं।"
हसैनर की बात को सही ठहराते हुए बेंच ने कहा कि 1986 एक्ट की धारा 3 के तहत आवेदन आर्टिकल 137 के मतलब में “आवेदन” हैं, जो उन आवेदन के लिए तीन साल का लिमिटेशन पीरियड तय करता है, जिनके लिए कोई खास लिमिटेशन पीरियड नहीं दिया गया।
कोर्ट ने इस दलील को खारिज कर दिया कि धारा 3 को CrPC की धारा 125 की तरह ही माना जाना चाहिए, जहां यह देखते हुए कोई लिमिटेशन लागू नहीं होती कि धारा 125 के विपरीत, 1986 एक्ट में आवेदन फाइल करने के बाद के समय तक क्लेम को लिमिट करने वाला कोई बिल्ट-इन सेफगार्ड नहीं है। इसके बजाय, 1986 एक्ट एक खास कानूनी अधिकार बनाता है और लिमिटेशन लागू करने से क्लेम को अनिश्चित काल तक दोबारा शुरू होने से रोका जा सकता है।
इस तरह बेंच ने यह मानते हुए इस रेफरेंस का जवाब हाँ में दिया कि लिमिटेशन एक्ट के आर्टिकल 137 के प्रोविज़न 1986 एक्ट की धारा 3 के तहत किए गए एडज्यूडिकेशन के लिए आवेदन पर लागू होंगे।
केस को सिंगल जज को एक अनसुलझे असल मुद्दे पर विचार करने के लिए भेजा गया, कि क्या पति के पास पिटीशनर द्वारा क्लेम की गई रकम चुकाने के लिए काफ़ी साधन थे।
Case Title: Safia P M v State of Kerala and Anr.

