S.148 NI Act | अपीलीय अदालत को न्यूनतम 20% जुर्माना माफ करने या जमा करने का आदेश देने का अधिकार, लेकिन उसे कारण बताना होगा: केरल हाईकोर्ट

Shahadat

29 March 2024 6:10 AM GMT

  • S.148 NI Act | अपीलीय अदालत को न्यूनतम 20% जुर्माना माफ करने या जमा करने का आदेश देने का अधिकार, लेकिन उसे कारण बताना होगा: केरल हाईकोर्ट

    केरल हाईकोर्ट ने माना कि अपीलीय न्यायालय के पास परक्राम्य लिखत अधिनियम (NI Act) की धारा 148 के तहत जुर्माना या मुआवजा राशि जमा करने का आदेश देने या माफ करने का वैधानिक अधिकार है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि चूंकि अपीलीय न्यायालय वैधानिक विवेक का प्रयोग करेगा, इसलिए वह जमा करने का आदेश देने या जुर्माना या मुआवजा राशि जमा करने से छूट देने के लिए कारण बताने के लिए कानूनी रूप से बाध्य होगा।

    एक्ट की धारा 138 के तहत चेक अनादर के लिए सजा के खिलाफ अपील पर सुनवाई करते समय अपीलीय अदालत एक्ट की धारा 148 के तहत अपीलकर्ता को ट्रायल कोर्ट द्वारा दिए गए मुआवजे या जुर्माना राशि का न्यूनतम 20% जमा करने का निर्देश दे सकती है।

    जस्टिस एके जयशंकरन नांबियार और जस्टिस कौसर एडप्पागथ की खंडपीठ एक्ट की धारा 148 और सुरिंदर सिंह देसवाल @ कर्नल एस.एस. देसवाल और अन्य बनाम वीरेंद्र गांधी (2019) और जंबू भंडारी बनाम एमपीस्टेट औद्योगिक डेवलपेटमेंट कॉर्पोरेशन लिमिटेड (2023) में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का विश्लेषण कर रही थी।

    खंडपीठ ने निम्नलिखित बिंदु निर्धारित किए:

    1. अपीलीय न्यायालय जुर्माना या मुआवजा राशि जमा करने या माफ करने का आदेश देने के लिए अपने विवेक का प्रयोग करते हुए कानूनी रूप से यह बताने के लिए बाध्य है कि उसने वैधानिक प्रावधान के उद्देश्य के अनुसार अपने कानूनी विवेक का प्रयोग किया।

    2. यदि अपीलीय न्यायालय निर्देश देता है कि जुर्माना या मुआवजा राशि जमा करनी होगी तो यह ट्रायल कोर्ट द्वारा दिए गए जुर्माने या मुआवजे की राशि के 20% के बराबर राशि से कम नहीं हो सकती।

    3. यदि अपीलीय अदालत निर्देश देती है कि 20% से अधिक जुर्माना या मुआवजा राशि जमा करनी होगी तो उसे ऐसी रकम का आदेश देने के लिए अतिरिक्त कारण देना होगा, जो ट्रायल कोर्ट द्वारा आदेशित न्यूनतम 20% जुर्माना या मुआवजा राशि से अधिक हो।

    मामले के तथ्यों के अनुसार, अपीलकर्ताओं ने हाईकोर्ट में अपीलीय न्यायालय (सत्र न्यायालय) द्वारा जारी उस आदेश को चुनौती दी। इसमें उन्हें एक्ट की धारा 148 के तहत मुआवजे की राशि का प्रतिशत जमा करने का निर्देश दिया गया। इसे यह कहते हुए चुनौती दी गई कि अपीलीय न्यायालय (सत्र न्यायालय) कोर्ट) ने बिना कोई कारण बताए मुआवजा भुगतान का आदेश दिया।

    सुरिंदर (सुप्रा) मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विश्लेषण करते हुए कोर्ट ने कहा कि एक्ट की धारा 148 में 2018 का संशोधन अपीलीय अदालत को 20% जुर्माना या मुआवजा राशि जमा करने का आदेश देने का अधिकार देता है। इसमें कहा गया कि भले ही 'हो सकता है' शब्द का इस्तेमाल धारा 148 में किया गया। इसे 'नियम' या 'करेगा' के रूप में समझा जाएगा। अपीलीय अदालत केवल असाधारण मामलों में विशेष कारण दर्ज करने के बाद ट्रायल कोर्ट द्वारा दिए गए जुर्माने या मुआवजे की राशि जमा करने का निर्देश जारी करने से बच सकती है।

    जम्बू (सुप्रा) में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि आम तौर पर अपीलीय न्यायालय द्वारा एक्ट की धारा 148 के तहत जुर्माना/मुआवजा राशि जमा करने की शर्त लगाना उचित होगा। हालांकि, न्यायालय ने कहा कि जहां अपीलीय न्यायालय को लगता है कि 20% जमा की शर्त अन्यायपूर्ण होगी या ऐसी शर्त लगाने से अपीलकर्ता के अपील के अधिकार से वंचित होना पड़ेगा, वह विशेष रूप से दर्ज कारणों से अपवाद बना सकता है।

    कोर्ट ने कहा,

    "अदालत ने दूसरे शब्दों में पाया कि अपने पहले के फैसले में उसने कभी भी ट्रायल कोर्ट द्वारा दिए गए जुर्माने या मुआवजे का न्यूनतम 20% जमा करने की परिकल्पना पूर्ण नियम के रूप में नहीं की थी, जिसमें किसी भी अपवाद को शामिल नहीं किया गया।"

    सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त निर्णयों पर विचार करते हुए न्यायालय ने कहा कि अपीलीय न्यायालय कानूनी रूप से ट्रायल कोर्ट के आदेश के अनुसार जुर्माना या मुआवजा राशि जमा करने या माफ करने का आदेश देने के लिए अपने विवेक का प्रयोग करते हुए कारण बताने के लिए बाध्य है।

    अदालत ने इस प्रकार सत्र न्यायालय द्वारा जारी आदेशों को रद्द कर दिया, क्योंकि इसमें जुर्माना या मुआवजा राशि जमा करने का आदेश देने का कोई कारण नहीं था। इसने सत्र न्यायालय को याचिकाकर्ताओं द्वारा प्रस्तुत सजा के निलंबन की याचिकाओं पर विचार करते हुए नए आदेश जारी करने का भी निर्देश दिया।

    केस टाइटल: पी श्रीनिवासन बनाम बाबू राज और कनेक्टेड केस

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