BNSS की धारा 360 के तहत अभियोजन वापस लेने की सहमति देने से इनकार करने पर आरोपी ट्रायल कोर्ट के उस आदेश को चुनौती दे सकता है: केरल हाईकोर्ट

Shahadat

8 July 2025 10:31 AM IST

  • BNSS की धारा 360 के तहत अभियोजन वापस लेने की सहमति देने से इनकार करने पर आरोपी ट्रायल कोर्ट के उस आदेश को चुनौती दे सकता है: केरल हाईकोर्ट

    केरल हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि कोई आरोपी ट्रायल कोर्ट के उस 'मनमाने और तर्कहीन' आदेश को चुनौती दे सकता है, जिसमें भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 360/ CrPC की धारा 321 के तहत उसके खिलाफ अभियोजन वापस लेने के लिए राज्य को सहमति देने से इनकार किया गया, भले ही राज्य ने ऐसे आदेशों को चुनौती न देने का विकल्प चुना हो।

    यह आदेश जस्टिस कौसर एडापागथ ने पारित किया।

    मामले की पृष्ठभूमि

    यह मामला दो पुनर्विचार याचिकाओं से उत्पन्न हुआ, जिसमें से एक में कई आरोपी शामिल थे, जिन पर IPC, आर्म्स एक्ट, विस्फोटक पदार्थ और PDPP Act के तहत गंभीर आरोप लगे। दूसरी पुनर्विचार याचिका में एकमात्र आरोपी शामिल था, जिस पर IPC की धारा 466 और 468 के तहत जालसाजी का आरोप लगाया गया।

    दोनों मामलों में संबंधित सरकारी अभियोजकों ने अभियोजन वापस लेने की मांग करते हुए CrPC की धारा 360 BNSS/धारा 321 के तहत आवेदन दायर किए। इन आवेदनों को ट्रायल कोर्ट ने खारिज कर दिया। इसके बाद आरोपी ने इन इनकारों को हाईकोर्ट के समक्ष चुनौती दी।

    CRL RP 268/2017 में पुनर्विचार याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश हुए वकील ने तर्क दिया कि याचिका बनाए रखने योग्य है, क्योंकि अभियोजन वापस लेने का आवेदन खारिज करने के आदेश का वास्तविक प्रभावित पक्ष आरोपी था, भले ही राज्य ने उक्त आदेश को चुनौती नहीं दी हो। उन्होंने अब्दुल वहाब बनाम केरल राज्य में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया, जिसमें यह माना गया था कि कोई तीसरा पक्ष या अजनबी भी उचित मामलों में हाईकोर्ट के समक्ष पुनर्विचार में BNSS की धारा 360/CrPC की धारा 321 के तहत पारित आदेश को चुनौती दे सकता है।

    पुनर्विचार याचिकाकर्ताओं की ओर से उपस्थित वकील ने कहा कि CrPC की धारा 401 के साथ धारा 397 के तहत हाईकोर्ट को दी गई पुनर्विचार शक्ति अधीनस्थ न्यायालय के किसी निष्कर्ष, सजा या आदेश की वैधता, शुद्धता या औचित्य की जांच करने के लिए पर्यवेक्षी प्रकृति की है। वह कार्यवाही में किसी भी पक्ष द्वारा औपचारिक याचिका के बिना भी उक्त शक्ति का प्रयोग कर सकता है।

    सीनियर लोक अभियोजक ने कहा कि BNSS की धारा 360 के तहत अभियोजन से वापसी के लिए आवेदन करने का अधिकार केवल अभियोजक के पास है। अभियुक्त का इसमें कोई अधिकार नहीं है। अंजलि दावदास बनाम केरल राज्य पर भरोसा करते हुए वकील ने तर्क दिया कि यदि राज्य ने अभियोजन से वापसी के लिए याचिका खारिज करने के आदेश को चुनौती देने के लिए पुनर्विचार दायर करने का विकल्प नहीं चुना है तो अभियुक्त को आदेश को चुनौती देने का अधिकार नहीं है।

    निष्कर्ष

    अदालत ने देखा कि BNSS/CrPC की योजना के तहत अपराधी का अभियोजन मुख्य रूप से कार्यपालिका की जिम्मेदारी है। न्यायालय ने BNSS की धारा 360 के तहत दोहरी आवश्यकता निर्धारित की, जिसमें कहा गया कि आवेदन लोक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक द्वारा किया जाना चाहिए और न्यायालय की सहमति प्राप्त की जानी चाहिए।

    न्यायालय ने पाया कि BNSS की धारा 360 का उद्देश्य न्यायपालिका की देखरेख में कार्यकारी सरकार के लिए शक्ति आरक्षित करना है।

    न्यायालय ने पुष्टि की कि अभियोजक द्वारा प्रस्तुत सभी सामग्रियों के आधार पर न्यायिक विवेक का प्रयोग किया जाना चाहिए। विवेक का कोई भी प्रयोग न करना या न्यायिक जांच में विफलता ट्रायल कोर्ट के आदेश को संशोधन के लिए उत्तरदायी बनाती है।

    न्यायालय ने आगे कहा:

    “यदि BNSS की धारा 360 के तहत अभियोजन से वापसी के लिए सहमति देने से इनकार करने वाला आदेश विवेक के प्रयोग न करने के कारण दूषित है.. तो अभियुक्त को संशोधन के माध्यम से इसे उच्च न्यायालय के संज्ञान में लाने का पूरा अधिकार है।”

    न्यायालय ने माना कि अभियुक्त उचित मामलों में संशोधन दायर कर सकता है, खासकर जहां आदेश मनमाना हो या उसमें तर्क की कमी हो।

    जस्टिस एडप्पागथ ने पाया कि दोनों मामलों में ट्रायल कोर्ट ने कोई तर्कपूर्ण आदेश देने में विफल रहे। उन्होंने न तो अभियोजकों द्वारा उठाए गए आधारों पर ध्यान दिया और न ही प्रस्तुत सामग्री पर विचार किया। इस प्रकार, न्यायालय ने टिप्पणी की कि "दोनों विवादित आदेशों को पढ़ने से पता चलता है कि वे बोलने वाले आदेश नहीं हैं।"

    न्यायालय ने कहा,

    "हालांकि अभियोजक ने दोनों मामलों में वापसी के लिए अपने आवेदनों में कई आधारों का विशेष रूप से उल्लेख किया, लेकिन उनमें से किसी पर भी ट्रायल कोर्ट द्वारा विचार नहीं किया गया या संबोधित नहीं किया गया।"

    हाईकोर्ट ने कहा कि यह न्याय की विफलता है।

    इस प्रकार, ट्रायल कोर्ट के आदेशों को अनुचित और न्यायिक विचार की कमी के कारण रद्द कर दिया गया और ट्रायल कोर्ट को आवेदनों पर नए सिरे से विचार करने का निर्देश दिया गया।

    Case Title: George Alexander @ Prince v. State of Kerala

    Next Story