पूरी तरह से धार्मिक या स्वैच्छिक नहीं: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने धर्मार्थ ट्रस्ट को इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट्स एक्ट के तहत 'इंडस्ट्री' माना
Shahadat
22 Dec 2025 7:47 PM IST

जम्मू-कश्मीर एंड लद्दाख के हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि जम्मू-कश्मीर धर्मार्थ ट्रस्ट अपनी गतिविधियों के व्यवस्थित, संगठित और व्यावसायिक स्वरूप के कारण इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट्स एक्ट, 1947 के तहत "इंडस्ट्री" की कानूनी परिभाषा को पूरा करता है।
जस्टिस एम ए चौधरी ने फैसला सुनाया कि ट्रस्ट के संचालन को पूरी तरह से धार्मिक या आध्यात्मिक नहीं माना जा सकता है, जो निस्वार्थ और स्वैच्छिक तरीके से किए जाते हैं। इसलिए वे श्रम कानून सुरक्षा के अधीन हैं।
यह फैसला धर्मार्थ ट्रस्ट द्वारा दायर रिट याचिका खारिज करते हुए दिया गया, जिसमें जम्मू के इंडस्ट्रियल ट्रिब्यूनल द्वारा दिए गए अवार्ड को चुनौती दी गई, जिसने एक सफाई कर्मचारी की बर्खास्तगी को अवैध घोषित किया और उसे 50 प्रतिशत पिछले वेतन के साथ सेवा में बने रहने का अधिकार दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद 1991 में धर्मार्थ ट्रस्ट द्वारा चांद राम को सफाई कर्मचारी के रूप में नियुक्त करने से शुरू हुआ। हालांकि, कथित अनुपस्थिति के कारण 1 जनवरी 2001 को उनकी सेवाएं समाप्त कर दी गईं।
बर्खास्तगी से व्यथित होकर चांद राम ने एक औद्योगिक विवाद उठाया, जिसे जम्मू और कश्मीर सरकार ने SRO 13 दिनांक 20 जनवरी 2003 के माध्यम से इंडस्ट्रियल ट्रिब्यूनल-श्रम न्यायालय को भेजा। ट्रिब्यूनल ने एकतरफा कार्यवाही करते हुए 9 सितंबर 2003 को एक अवार्ड पारित किया, जिसमें बर्खास्तगी को अवैध ठहराया गया, सेवा समाप्ति आदेश रद्द किया गया, कर्मचारी को सेवा में जारी माना गया और 50 प्रतिशत पिछले वेतन का अवार्ड दिया गया।
धर्मार्थ ट्रस्ट ने हाईकोर्ट में यह तर्क देते हुए संपर्क किया कि ट्रिब्यूनल के पास अधिकार क्षेत्र नहीं है, क्योंकि ट्रस्ट इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट्स एक्ट की धारा 2(j) के तहत "इंडस्ट्री" नहीं है, कि चांद राम "कर्मचारी" नहीं है, और कि अधिनियम की धारा 25-F के प्रावधानों को गलत तरीके से लागू किया गया।
कोर्ट की टिप्पणियां
मामले का मुख्य बिंदु यह तय करना था कि क्या धर्मार्थ ट्रस्ट को इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट्स एक्ट के दायरे में लाया जा सकता है।
जस्टिस चौधरी ने इस सवाल की विस्तृत जांच की, जिसमें सुप्रीम कोर्ट द्वारा बैंगलोर वाटर सप्लाई एंड सीवरेज बोर्ड बनाम आर. राजप्पा मामले में तय किए गए "ट्रिपल टेस्ट" और "डोमिनेंट नेचर टेस्ट" को लागू किया गया। गवर्निंग सिद्धांतों को दोहराते हुए कोर्ट ने कहा कि कोई संस्था इंडस्ट्री तब मानी जाएगी, जब वह कोई सिस्टमैटिक और ऑर्गनाइज़्ड एक्टिविटी करती है, जिसमें मालिक और कर्मचारियों के बीच सहयोग होता है, जो इंसानों की ज़रूरतों या इच्छाओं को पूरा करने के लिए सामान या सर्विस बनाती या बांटती है, जिसमें सिर्फ़ आध्यात्मिक या धार्मिक एक्टिविटी शामिल नहीं हैं।
धर्मार्थ ट्रस्ट ने दावा किया कि इसकी स्थापना महाराजा गुलाब सिंह ने हिंदू धार्मिक संस्थानों के रखरखाव और कल्याण के लिए की थी और यह संस्कृत शिक्षण संस्थान, रिसर्च लाइब्रेरी, गौशाला, यात्री भवन और अन्य धार्मिक संस्थान चला रहा था।
हालांकि, कोर्ट ने इस बात पर ज़ोर दिया कि लेबर कानूनों की एप्लीकेबिलिटी सिर्फ़ किसी संस्था से जुड़े चैरिटेबल या धार्मिक लेबल पर निर्भर नहीं करती, बल्कि उसकी एक्टिविटी के फंक्शनल नेचर पर निर्भर करती है।
कोर्ट ने कहा,
“याचिकाकर्ता धर्मार्थ ट्रस्ट पर इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट्स एक्ट की एप्लीकेबिलिटी उसकी खास एक्टिविटी के फंक्शनल नेचर से तय की जाएगी, न कि सिर्फ़ उसके ओवरऑल चैरिटेबल पदनाम से।”
तथ्यों पर ट्रिपल टेस्ट लागू करते हुए कोर्ट ने पाया कि ट्रस्ट की एक्टिविटी एक स्ट्रक्चर्ड और ऑर्गनाइज़्ड तरीके से की जा रही थीं। उन्हें सैलरी पर रखे गए कर्मचारियों का सपोर्ट था। हाईकोर्ट ने ट्रस्ट के इस दावे को साफ तौर पर खारिज कर दिया कि उसके ऑपरेशन पूरी तरह से धार्मिक और आध्यात्मिक है।
बेंच ने बताया कि ट्रस्ट कमर्शियल ऑपरेशन में भी शामिल है और ऐसे संस्थानों को मैनेज करता है, जिनके रखरखाव के लिए सैलरी वाले स्टाफ की ज़रूरत होती है।
जस्टिस चौधरी ने कहा,
“याचिकाकर्ता ट्रस्ट की एक्टिविटी सिस्टमैटिक और ऑर्गनाइज़्ड तरीके से हो रही थीं और ट्रस्ट की एक्टिविटी सर्विस के प्रोडक्शन और डिस्ट्रीब्यूशन के लिए थीं, जो इंसानों की ज़रूरतों या इच्छाओं को पूरा करने के लिए डिज़ाइन की गईं, जिसमें आध्यात्मिक या धार्मिक प्रकृति की एक्टिविटी भी शामिल हैं।”
खास बात यह है कि कोर्ट ने इस बात पर ज़ोर दिया कि ट्रस्ट की एक्टिविटी सिर्फ़ वॉलंटरी या भक्ति सेवा तक सीमित नहीं हैं, यह देखते हुए,
“इसकी एक्टिविटी के फंक्शनल नेचर को देखते हुए, यह कहा जा सकता है कि याचिकाकर्ता धर्मार्थ ट्रस्ट ऐसी एक्टिविटी कर रहा है, जो पूरी तरह से धार्मिक या आध्यात्मिक नहीं हैं और निस्वार्थ और वॉलंटियर तरीके से नहीं की जा रही हैं।”
तथ्यों और कानून के कुल मूल्यांकन पर हाईकोर्ट एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचा और टिप्पणी की,
"अपनी खास एक्टिविटीज़ के फंक्शनल नेचर को देखते हुए याचिकाकर्ता-ट्रस्ट को इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट्स एक्ट, 1947 के तहत एक 'इंडस्ट्री' माना जा सकता है ताकि उस पर इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट्स एक्ट के प्रावधान लागू हो सकें।"
एक बार जब ट्रस्ट को इंडस्ट्री मान लिया गया तो कोर्ट को यह नतीजा निकालने में कोई मुश्किल नहीं हुई कि चांद राम, जो रोज़ाना दिहाड़ी पर सफ़ाई कर्मचारी के तौर पर काम कर रहा था, एक "वर्कमैन" था और पार्टियों के बीच का रिश्ता मालिक और कर्मचारी का है।
कोर्ट ने यह भी नोट किया कि ट्रस्ट ने न तो उस समय सरकारी रेफरेंस को चुनौती दी थी और न ही ट्रिब्यूनल के सामने यह साबित करने के लिए कोई सबूत पेश किया कि वह इंडस्ट्री नहीं है। जस्टिस चौधरी ने कहा कि ऐसे तथ्यात्मक मुद्दों को पहली बार रिट ज्यूरिस्डिक्शन में प्रभावी ढंग से दोबारा नहीं खोला जा सकता।
ग्रेच्युटी के दावों से जुड़े एक पिछले फैसले पर निर्भरता खारिज करते हुए कोर्ट ने साफ किया कि उस मामले के तथ्य पूरी तरह से अलग थे और उन्हें नौकरी से निकाले जाने से जुड़े इंडस्ट्रियल विवाद पर बिना सोचे-समझे लागू नहीं किया जा सकता।
यह निष्कर्ष निकालते हुए कि इंडस्ट्रियल ट्रिब्यूनल के फैसले में कोई गैरकानूनी बात या ज्यूरिस्डिक्शन की गलती नहीं थी, हाईकोर्ट ने रिट याचिका खारिज कर दी और वर्कमैन के पक्ष में फैसले को बरकरार रखा।
Case Title: Dharmarth Trust J&K Vs Industrial Tribunal & Anr.

