अस्थायी निवास कहीं और रहने से संरक्षकता याचिकाओं में अधिकार क्षेत्र में कोई परिवर्तन नहीं होता, यह सामान्य निवास पर निर्भर करता है: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट
Amir Ahmad
15 Oct 2024 12:35 PM IST
जम्मू-कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने फिर से पुष्टि की कि यह नाबालिग का सामान्य निवास स्थान है जो संरक्षकता मामलों में न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को संरक्षक और वार्ड अधिनियम 1890 की धारा 9 के तहत निर्धारित करता है। आवेदन दाखिल करने के समय अस्थायी निवास कहीं और रहने से इस अधिकार क्षेत्र में कोई परिवर्तन नहीं होता।
नाबालिग के सामान्य निवास और प्राकृतिक अभिभावक के निवास के बीच स्पष्ट अंतर को उजागर करते हुए जस्टिस संजीव कुमार और राजेश सेखरी की खंडपीठ ने कहा,
“यह नाबालिग का सामान्य निवास है, जो न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को निर्धारित करेगा न कि प्राकृतिक अभिभावक का निवास। नाबालिग का सामान्य निवास प्राकृतिक अभिभावक के निवास से अलग है, जो व्यक्तिगत कानून के तहत नाबालिग की हिरासत में माना जा सकता है जिसके अधीन नाबालिग है।”
ये टिप्पणियां एक अपीलकर्ता मां द्वारा जम्मू के फैमिली कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश के आदेश के खिलाफ दायर अपील पर सुनवाई करते हुए आईं, जिसमें अभिभावक और वार्ड अधिनियम, 1890 की धारा 12 और 25 के तहत अपनी नाबालिग बेटियों की कस्टडी मांगने वाली उसकी अर्जी को वापस कर दिया गया था।
प्रधान न्यायाधीश ने फैसला सुनाया कि फैमिली कोर्ट के पास अधिकार क्षेत्र नहीं है, क्योंकि नाबालिग आमतौर पर पुंछ में रह रहे थे, जो उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर है। अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत मां को अपनी नाबालिग बेटियों की संरक्षक माना जाना चाहिए, जब तक कि वे यौवन प्राप्त नहीं कर लेतीं इस प्रकार यह दावा किया गया कि नाबालिगों को जम्मू में उसके साथ सामान्य रूप से रहने वाला माना जाना चाहिए।
ट्रायल कोर्ट ने इस तर्क को खारिज कर दिया और उसकी अर्जी को वापस कर दिया, जिसके कारण हाईकोर्ट के समक्ष यह तत्काल अपील की गई।
आदेश की आलोचना करते हुए अपीलकर्ता ने अधिनियम की धारा 6 और 17 पर भरोसा करते हुए अपनी दलील को पुष्ट किया कि अधिनियम की धारा 9 के अनुसार अधिकार क्षेत्र निर्धारित करते समय न्यायालय को उस व्यक्तिगत कानून को ध्यान में रखना चाहिए जिसके अधीन नाबालिग है।
संरक्षक और वार्ड अधिनियम की धारा 9 का सावधानीपूर्वक विश्लेषण करते हुए जो यह अनिवार्य करता है कि संरक्षकता के लिए आवेदन उस न्यायालय में दायर किया जाना चाहिए, जहां नाबालिग सामान्य रूप से रहता है न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अधिकार क्षेत्र नाबालिग के निवास पर आधारित है, न कि प्राकृतिक अभिभावक के स्थान पर, इस बात पर जोर देते हुए कि सामान्य निवास तथ्य और इरादे का मामला है।
अपीलकर्ता की याचिका खारिज करते हुए न्यायालय ने कहा कि नाबालिग का सामान्य निवास ही न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को निर्धारित करेगा, न कि प्राकृतिक अभिभावक का निवास। न्यायालय ने रेखांकित किया कि नाबालिग का सामान्य निवास प्राकृतिक अभिभावक के निवास से भिन्न होता है, जो व्यक्तिगत कानून के तहत नाबालिग की हिरासत में हो सकता है।
इसके अलावा न्यायालय ने कहा,
"यह न्यायालय इस बात की सराहना करता यदि अपीलकर्ता का मामला होता कि अपीलकर्ता अपनी नाबालिग बेटियों के साथ सामान्य रूप से जम्मू में रह रही थी और उसकी हिरासत से नाबालिगों को प्रतिवादी द्वारा हटा दिया गया था। इससे मामले का पूरा परिदृश्य ही बदल जाता।"
न्यायालय ने कहा कि इस मामले में नाबालिग कभी जम्मू में नहीं रहे थे, जिसने अपीलकर्ता के अधिकार क्षेत्र का दावा निरस्त किया।
पीठ ने रुचि माजू बनाम संजीव माजू 2011 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी हवाला दिया, जिसमें इस बात की पुष्टि की गई कि नाबालिग को अस्थायी रूप से हटाने से सामान्य निवास के निर्धारण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
अंततः हाईकोर्ट ने अपील को खारिज कर दिया तथा अधिकार क्षेत्र के अभाव में याचिका को वापस करने के पारिवारिक न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा।
केस टाइटल: सबाहत सन्ना बनाम डॉ. शबीर अहमद