सिविल कोर्ट को विस्थापित भूमि विवादों से निपटने के दौरान कस्टोडियन विस्थापितों की संपत्ति को सूचित करना चाहिए: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट

Shahadat

24 May 2024 4:04 AM GMT

  • सिविल कोर्ट को विस्थापित भूमि विवादों से निपटने के दौरान कस्टोडियन विस्थापितों की संपत्ति को सूचित करना चाहिए: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट

    निष्क्रांत संपत्ति से संबंधित विवादों के लिए कानूनी प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए जम्मू-कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने हाल ही में फैसला सुनाया कि निष्क्रांत संपत्ति के संबंध में किसी सिविल मुकदमे का संज्ञान लेते समय सिविल अदालतों को कस्टोडियन निष्क्रांत संपत्ति को सूचित करना चाहिए।

    इस शर्त के पीछे विधायी मंशा पर प्रकाश डालते हुए जस्टिस राहुल भारती ने जम्मू एंड कश्मीर राज्य विस्थापित (संपत्ति का प्रशासन) अधिनियम, 2006 एसवीटी की धारा 35 का हवाला दिया।

    हाईकोर्ट ने कहा,

    “यहां तक कि अगर किसी निष्क्रांत संपत्ति के संबंध में किसी सिविल मुकदमे/राजस्व वाद पर सिविल/राजस्व न्यायालय द्वारा या उसके समक्ष संज्ञान लिया गया तो कस्टोडियन इवेक्यूई को अनभिज्ञ नहीं रखा जाना चाहिए, क्योंकि दिन के अंत में सिविल मुकदमे/राजस्व मुकदमे का निर्णय निष्क्रांत संपत्ति के अलावा किसी अन्य संपत्ति को प्रभावित नहीं करेगा, जिसका कस्टोडियन वैधानिक देखभालकर्ता और प्रबंधक है।

    यह मामला जम्मू में मंज़ूर हुसैन और उनके भाइयों (अपीलकर्ताओं) और सैयद मोहसिन अब्बास और अन्य (प्रतिवादियों) के बीच भूमि विवाद से जुड़ा था। अपीलकर्ताओं ने प्रतिवादियों को 43-कनाल भूमि के भूखंड पर उनके कब्जे में हस्तक्षेप करने से रोकने के लिए स्थायी निषेधाज्ञा की मांग की।

    हालांकि, ट्रायल कोर्ट और प्रथम अपीलीय अदालत ने इस आधार पर मुकदमा खारिज किया कि भूमि निष्क्रांत संपत्ति थी और सिविल अदालतों के पास राज्य निष्क्रांत अधिनियम, 2006 एसवीटी के तहत क्षेत्राधिकार का अभाव था।

    अपीलकर्ताओं ने इस फैसले को हाईकोर्ट के समक्ष दूसरी अपील में चुनौती दी। उन्होंने तर्क दिया कि स्थायी निषेधाज्ञा के लिए उनका मुकदमा निकासी अधिनियम से असंबंधित निजी मामला था और इसकी सुनवाई सिविल अदालत द्वारा की जानी चाहिए।

    अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया कि ट्रायल और अपीलीय अदालतों दोनों ने कानून की अपनी व्याख्या में गलती की, यह दावा करते हुए कि मुकदमा निजी प्रकृति का था और निकासी अधिनियम से प्रभावित नहीं था। उन्होंने तर्क दिया कि स्थायी निषेधाज्ञा के लिए उनके मुकदमे में निकासी अधिनियम के आवेदन की आवश्यकता नहीं थी।

    इसके विपरीत, उत्तरदाताओं ने कहा कि विचाराधीन संपत्ति वास्तव में निष्क्रांत संपत्ति थी और सिविल अदालतों को निष्क्रांत अधिनियम की धारा 31 के तहत मुकदमे पर विचार करने से रोक दिया गया था।

    न्यायालय की टिप्पणियां:

    अपीलकर्ताओं के तर्क को स्वीकार करते हुए जस्टिस भारती ने कहा कि मुकदमे में न केवल निजी व्यक्तियों को प्रतिवादी के रूप में नामित किया गया, बल्कि उपायुक्त, जम्मू और तहसीलदार सहित सार्वजनिक अधिकारियों को भी नामित किया गया। इसके आलोक में न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्ताओं के पक्ष में डिक्री प्रभावी रूप से इन अधिकारियों को भी भूमि से निपटने से प्रतिबंधित कर देगी।

    जस्टिस भारती ने आगे महत्वपूर्ण बिंदु पर प्रकाश डाला- अपीलकर्ताओं ने स्वयं अपनी याचिका में भूमि को निष्क्रांत संपत्ति के रूप में वर्णित किया। इसने, सार्वजनिक अधिकारियों को प्रतिवादी के रूप में शामिल करने के साथ न्यायालय को यह निष्कर्ष निकालने के लिए प्रेरित किया कि मुकदमे को निजी पक्षों के बीच साधारण मामला नहीं माना जा सकता।

    न्यायालय ने प्रासंगिक प्रावधान, निष्क्रमण अधिनियम की धारा 35 पर भी विचार किया, जो कि जब कोई सिविल या राजस्व अदालत निष्क्रांत भूमि से संबंधित मुकदमे का संज्ञान लेती है तो कस्टोडियन निष्क्रांत व्यक्तियों की संपत्ति को अधिसूचित करने का आदेश देती है।

    पीठ ने रेखांकित किया कि यह आवश्यकता सुनिश्चित करती है कि कस्टोडियन, जो निष्क्रांत संपत्ति का वैधानिक देखभालकर्ता है, उसको ऐसी भूमि को प्रभावित करने वाली किसी भी कानूनी कार्यवाही के बारे में सूचित किया जाता है।

    अदालत ने पाया कि मुकदमे की प्रकृति निजी व्यक्तियों के खिलाफ साधारण निषेधात्मक निषेधाज्ञा से आगे तक फैली हुई है, क्योंकि इसका उद्देश्य सार्वजनिक अधिकारियों को उनकी वैधानिक क्षमताओं में कार्य करने से प्रतिबंधित करना भी है। पीठ ने कहा कि इस व्यापक निहितार्थ ने कस्टोडियन को सूचित करने की आवश्यकता को मजबूत किया।

    यह स्वीकार करते हुए कि निचली अदालतों का तर्क पूरी तरह से सटीक नहीं हो सकता, हाईकोर्ट ने अंततः मुकदमा खारिज कर दिया और इस बात पर जोर दिया कि निकासी अधिनियम की धारा 31 सिविल अदालतों को ऐसे मुकदमों पर विचार करने से रोकती है।

    हालांकि, न्यायालय ने यह कहते हुए निष्कर्ष निकाला कि अपीलकर्ताओं के पास अभी भी अधिनियम के तहत स्थापित उचित चैनलों के माध्यम से अपने दावे को आगे बढ़ाने का विकल्प है।

    केस टाइटल: मंजूर हुसैन बनाम सैयद मोहसिन अब्बास

    Next Story