हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने चेक राशि के पूर्ण भुगतान पर NI Act की धारा 138 के तहत सजा घटाकर 'टिल राइजिंग ऑफ कोर्ट' कर दिया

Shahadat

3 Jun 2025 4:30 PM IST

  • हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने चेक राशि के पूर्ण भुगतान पर NI Act की धारा 138 के तहत सजा घटाकर टिल राइजिंग ऑफ कोर्ट कर दिया

    हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने परक्राम्य लिखत अधिनियम (NI Act) की धारा 138 के तहत सजा को घटाकर 'टिल राइजिंग ऑफ कोर्ट' (Till Rising Of Court) कर दिया, यह मानते हुए कि अधिनियम में कोई न्यूनतम सजा निर्धारित नहीं है, लेकिन जहां अभियुक्त ने पूरी डिफ़ॉल्ट राशि जमा कर दी है, वहां सजा कम की जा सकती है।

    जस्टिस वीरेंद्र सिंह:

    "इस तथ्य पर विचार करते हुए कि परक्राम्य लिखत अधिनियम के तहत NI Act की धारा 138 के तहत दंडनीय अपराध के लिए कोई न्यूनतम सजा प्रदान नहीं की गई, इस न्यायालय का विचार है कि सजा की मात्रा संशोधित की जा सकती है। नतीजतन, अगर अभियुक्त को टिल राइजिंग ऑफ कोर्ट सजा भुगतने की सजा सुनाई जाती है तो न्याय का उद्देश्य पूरा हो जाएगा।"

    मामले की पृष्ठभूमि के तथ्य

    यह मामला तब शुरू हुआ जब शिकायतकर्ता साहिल सूद ने आरोपी दिनेश नेगी के खिलाफ निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट (NI Act) की धारा 138 के तहत शिकायत दर्ज कराई। उसने आरोप लगाया कि आरोपी ने उसे बकाया वित्तीय देनदारी के आंशिक भुगतान के रूप में ₹5,20,000 का चेक जारी किया था।

    हालांकि, जब शिकायतकर्ता ने बैंक में चेक पेश किया तो यह अनादरित हो गया और भुगतान न करने का कारण "अपर्याप्त धनराशि" बताते हुए एक ज्ञापन के साथ वापस कर दिया गया।

    इसके अनुसार, शिकायतकर्ता ने आरोपी को कानूनी नोटिस जारी किया, जिसमें पंद्रह दिनों के भीतर चेक का भुगतान करने की मांग की गई। नोटिस प्राप्त करने के बावजूद, आरोपी ने न तो कोई जवाब दिया और न ही कोई भुगतान किया। परिणामस्वरूप, शिकायतकर्ता ने ट्रायल कोर्ट के समक्ष आपराधिक शिकायत दर्ज कराई।

    दोनों पक्षकारों को सुनने और रिकॉर्ड की समीक्षा करने के बाद ट्रायल कोर्ट ने बकाया राशि का भुगतान न करने के लिए NI Act की धारा 138 के तहत आरोपी को दोषी ठहराया और उसे मुआवजे के साथ साधारण कारावास की सजा सुनाई।

    अभियुक्त ने सेशन कोर्ट में अपील दायर करके इस दोषसिद्धि को चुनौती दी, जिसे खारिज कर दिया गया। इससे व्यथित होकर उसने हाीकोर्ट में आपराधिक पुनर्विचार याचिका दायर की, जिसमें दोषसिद्धि को पलटने की मांग की गई।

    मामले में दिए गए तर्क:

    अभियुक्त ने तर्क दिया कि निचली अदालत ने साक्ष्य को गलत तरीके से पढ़ा और उसका गलत मूल्यांकन किया, क्योंकि निचली अदालत ने दो दस्तावेजों पर गलत तरीके से विचार किया, जिनका उल्लेख शिकायतकर्ता द्वारा जारी नोटिस में नहीं था और जिन्हें बाद में लाया गया।

    उन्होंने आगे कहा कि शिकायतकर्ता ने स्वीकार किया कि अभियुक्त का उसके साथ कोई लेन-देन नहीं था और यह भी स्वीकार किया कि यदि कोई दायित्व था तो वह शिकायतकर्ता के पिता के प्रति था। इस आधार पर अभियुक्त ने तर्क दिया कि शिकायतकर्ता उचित समय में चेक का सही धारक नहीं था।

    अभियुक्त ने यह भी प्रस्तुत किया कि मुआवजे की पूरी राशि जमा कर दी गई है। मुआवजे का 20% ट्रायल कोर्ट के समक्ष जमा किया गया और उसी का 80% हाईकोर्ट के समक्ष जमा किया गया।

    जवाब में शिकायतकर्ता ने कहा कि ट्रायल कोर्ट के साथ-साथ अपीलीय न्यायालय ने भी साक्ष्य का सही मूल्यांकन किया और अब पुनर्विचार क्षेत्राधिकार में ट्रायल कोर्ट द्वारा चर्चित साक्ष्य का पुनर्मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।

    निष्कर्ष:

    हाईकोर्ट ने पाया कि आरोपी ने चेक पर अपने हस्ताक्षर स्वीकार किए। एक बार चेक पर हस्ताक्षर स्वीकार हो जाने के बाद NI Act की धारा 139 के तहत कानून यह मान लेता है कि चेक किसी कानूनी दायित्व के निर्वहन के लिए जारी किया गया। फिर आरोपी को यह साबित करके इस धारणा का खंडन करना होगा कि चेक किसी कानूनी दायित्व के निर्वहन के लिए जारी नहीं किया गया। हालांकि, न्यायालय ने पाया कि आरोपी इस धारणा का खंडन करने के लिए पर्याप्त सबूत पेश करने में विफल रहा।

    मामले में बाद में पेश किए गए दो दस्तावेजों के बारे में न्यायालय ने पाया कि आगे की पूछताछ के लिए गवाह को वापस बुलाकर उन्हें रिकॉर्ड पर लाने की अनुमति दी गई। शिकायतकर्ता को गवाह के कठघरे में वापस बुलाया गया और उन दस्तावेजों पर उससे क्रॉस एक्जामिनेशन की गई। इसलिए न्यायालय ने माना कि इससे आरोपी को कोई अनुचित या नुकसान नहीं हुआ।

    जहां तक ​​इस दावे का सवाल है कि आरोपी का शिकायतकर्ता से कोई सीधा संबंध नहीं है, बल्कि उसके पिता से है, न्यायालय ने माना कि यह तर्क इस कानूनी धारणा को खारिज नहीं कर सकता कि चेक कर्ज चुकाने के लिए जारी किया गया, खासकर तब जब आरोपी इस धारणा का खंडन करने में विफल रहा।

    महाराष्ट्र राज्य बनाम जगमोहन सिंह कुलदीप सिंह आनंद (2004) में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि “पुनर्विचार में हाईकोर्ट की शक्ति अनुचित या विकृत कानूनी निष्कर्षों को सही करने तक सीमित है। इसका उपयोग उन तथ्यों की फिर से जांच करने के लिए नहीं किया जा सकता, जिन पर निचली अदालतों द्वारा पहले ही उचित रूप से विचार किया जा चुका है।”

    इसलिए न्यायालय ने नोट किया कि ट्रायल कोर्ट द्वारा दर्ज किए गए निष्कर्ष जिन्हें अपीलीय न्यायालय ने बरकरार रखा था, वे 'विकृत निष्कर्षों' की परिभाषा के अंतर्गत नहीं आते हैं और उनमें किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।

    हालांकि, हाईकोर्ट ने इस बात को ध्यान में रखा कि आरोपी ने पूरी मुआवजा राशि जमा की और शिकायतकर्ता ने मुआवजे में वृद्धि के लिए कोई अपील दायर नहीं की। इन परिस्थितियों को देखते हुए न्यायालय ने कहा कि ट्रायल कोर्ट द्वारा दी गई सजा अधिक है।

    पी. मोहनराज बनाम शाह ब्रदर्स इस्पात प्राइवेट लिमिटेड, 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर प्रकाश डाला कि “NI Act की धारा 138 के प्रावधान का वास्तविक उद्देश्य पहले से ही बनाए गए अपराध के लिए अपराधी को दंडित करना नहीं है, बल्कि पीड़ित को मुआवजा देना है।”

    अंत में हाईकोर्ट ने NI Act की धारा 138 के तहत अभियुक्त की दोषसिद्धि बरकरार रखी, लेकिन सजा को संशोधित किया। मुआवजे के पूर्ण भुगतान को ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने सजा को “न्यायालय उठने तक” कारावास में बदल दिया।

    केस टाइटल: दिनेश नेगी बनाम साहिल सूद

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