केवल जन-आक्रोश और मीडिया कवरेज अपराध की गंभीरता को कम नहीं कर सकते: दिल्ली हाईकोर्ट ने POCSO मामले में ज़मानत खारिज की

Shahadat

4 Aug 2025 10:18 AM IST

  • केवल जन-आक्रोश और मीडिया कवरेज अपराध की गंभीरता को कम नहीं कर सकते: दिल्ली हाईकोर्ट ने POCSO मामले में ज़मानत खारिज की

    POCSO मामले में व्यक्ति को ज़मानत देने से इनकार करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि केवल जन आक्रोश और घटना की मीडिया कवरेज अपराध की गंभीरता को कम नहीं कर सकती।

    जस्टिस गिरीश कठपालिया ने कहा,

    "केवल जन आक्रोश और घटना की मीडिया कवरेज से अपराध की गंभीरता कम नहीं हो जाती।"

    भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 (हत्या), 363 (अपहरण) और 201 (साक्ष्य मिटाना) और POCSO Act की धारा 6 (गंभीर यौन उत्पीड़न) के तहत अपराधों के लिए 2016 में FIR दर्ज की गई थी।

    आरोप है कि आरोपी ने 8 साल की बच्ची के साथ बलात्कार किया, उसका गला घोंट दिया और शव को एक प्लास्टिक बैग में एक गड्ढे में छिपा दिया।

    आरोपी ने दलील दी कि उसे जनता के दबाव और मीडिया ट्रायल की चकाचौंध में इस मामले में झूठा फंसाया गया। उसने कहा कि मृतक लड़की की मृत्यु के समय को लेकर संदेह है।

    आरोपी को ज़मानत देने से इनकार करते हुए जस्टिस कठपालिया ने कहा कि लंबी कैद निश्चित रूप से आरोपी को ज़मानत पर रिहा करने का एक आधार है, लेकिन यह एकमात्र आधार नहीं है।

    अदालत ने कहा,

    "अदालत को कथित अपराध की प्रकृति और गंभीरता और उसे समर्थन देने वाली रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री सहित न्यायिक रूप से मान्य विभिन्न मानदंडों को ध्यान में रखना होगा।"

    अदालत ने आगे कहा कि ज़मानत के चरण में अदालत रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों की बारीकी से जांच नहीं कर सकती और "व्यापक तस्वीर" उस वीभत्स तरीके को दर्शाती है, जिसमें एक आठ साल की बच्ची के साथ बलात्कार किया गया और उसकी हत्या कर दी गई, वह भी उसके अपने चचेरे भाई द्वारा।

    अदालत ने कहा,

    "यह सिर्फ़ आरोपी/आवेदक के खिलाफ लगाए गए अपराधों के गंभीर परिणाम नहीं हैं। इस बात को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि चचेरे भाइयों के बीच विश्वास के रिश्ते का आरोपी/आवेदक ने इतने क्रूर तरीके से फायदा उठाया। उपरोक्त परिस्थितियों को देखते हुए मुझे लगता है कि अभियुक्त/आवेदक को ज़मानत पर रिहा करना बिल्कुल भी उचित नहीं है। ज़मानत याचिका खारिज की जाती है।"

    Title: PRADEEP @ PIDDI v. STATE OF (GNCT) NEW DELHI

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