सिविल केस में मिली राशि को चेक बाउंस मुआवजे में समायोजित किया जा सकता है: दिल्ली हाईकोर्ट
Praveen Mishra
20 Nov 2025 5:44 PM IST

दिल्ली हाईकोर्ट ने चेक बाउंस मामले में दोषी ठहराए गए एक व्यक्ति को बड़ी राहत देते हुए यह स्पष्ट किया है कि सिविल मुकदमे में वसूली गई रकम को आपराधिक कार्यवाही में देय मुआवजे के खिलाफ समायोजित किया जा सकता है, बशर्ते दोनों कार्यवाही एक ही चेक dishonour से संबंधित हों।
जस्टिस मनोज कुमार ओहरी की एकल-न्यायाधीश खंडपीठ ने कहा कि जैसे दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 357(5) आपराधिक मुकदमे में दी गई राशि को बाद की सिविल कार्यवाही में समायोजित करने की अनुमति देती है, वैसे ही इसका उल्टा भी किया जा सकता है। यानी पहले सिविल मुकदमे में अदा की गई राशि को बाद में आपराधिक मामले के मुआवजे में घटाया जा सकता है।
क्या है मामला?
अपीलकर्ता को धारा 138, एनआई एक्ट के तहत दोषी करार देते हुए अदालत ने ₹1.5 करोड़ मुआवजा देने का आदेश दिया था। इसी चेक dishonour के आधार पर शिकायतकर्ता ने एक सिविल सूट भी दायर किया था, जिसके तहत अपीलकर्ता ने निष्पादन कार्यवाही में ₹33,10,000 चुका दिए थे।
अपीलकर्ता ने मांग की कि यह राशि आपराधिक कार्यवाही में लगाए गए मुआवजे में जोड़कर समायोजित की जाए। हाईकोर्ट ने यह मांग स्वीकारते हुए आदेश दिया—
“निष्पादन कार्यवाही में प्राप्त ₹33,10,000 को ₹1.5 करोड़ के मुआवजे में समायोजित किया जाए।”
जेल से रिहाई का आदेश
अपीलकर्ता मुआवजा न चुका पाने के चलते डिफॉल्ट सजा (6 महीने) काट रहा था। कोर्ट ने IPC की धारा 69 के आधार पर कहा कि चूंकि वह कुल राशि का लगभग 22% पहले ही चुका चुका है, इसलिए उसकी डिफॉल्ट सजा भी उतनी ही अनुपात में कम होगी—यानी लगभग 39 दिन।
कोर्ट ने पाया कि अपीलकर्ता यह अवधि पहले ही जेल में रहकर पूरी कर चुका है। इसलिए आदेश दिया—
“अपीलकर्ता को तुरंत रिहा किया जाए, यदि वह किसी अन्य मामले में वांछित न हो।”
कोर्ट का निष्कर्ष
अदालत ने माना कि एक ही चेक dishonour पर आधारित सिविल और आपराधिक दोनों कार्यवाही में भुगतान का समायोजन न्यायसंगत है और CrPC की धारा 357 के उद्देश्यों के अनुरूप भी।

