दिल्ली हाईकोर्ट ने धारा 498ए लागू करने के लिए पत्नी का अस्पताल में भर्ती होना आवश्यक होने का तर्क खारिज किया, कहा- 'संकीर्ण व्याख्या' कई पीड़ितों को चुप करा देगी
Shahadat
18 Jan 2025 5:17 AM

दिल्ली हाईकोर्ट ने पति का तर्क खारिज कर दिया कि पत्नी का अस्पताल में भर्ती होना उसके साथ क्रूरता और उत्पीड़न को स्थापित करने और भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498ए लागू करने के लिए आवश्यक है।
जस्टिस स्वर्ण कांता शर्मा ने कहा,
“इस तरह के तर्क को मानने से - कि धारा 498ए लागू करने के लिए अस्पताल में भर्ती होना एक शर्त है - प्रावधान के मूल उद्देश्य को ही नष्ट कर देगा। IPC की धारा 498ए उन महिलाओं की दुर्दशा को दूर करने के लिए बनाई गई, जो विभिन्न प्रकार की क्रूरता का शिकार होती हैं, न कि केवल शारीरिक शोषण जिसके परिणामस्वरूप दिखाई देने वाली चोटें होती हैं।”
न्यायालय ने कहा कि अगर इस तरह की विचारधारा को बढ़ने दिया जाता है तो यह बंद दरवाजों के पीछे दुर्व्यवहार सहने वाली अनगिनत महिलाओं के लिए न्याय के दरवाजे बंद कर देगा, जिससे वे एक कष्टदायक और दमनकारी माहौल में फंस जाएंगी।
न्यायालय ने कहा,
"इस तरह की संकीर्ण व्याख्या धारा 498ए को अप्रभावी बना देगी, जिससे कई पीड़ितों की आवाज बंद हो जाएगी और दुर्व्यवहार का सिलसिला जारी रहेगा। इसलिए यह न्यायालय आवेदक के वकील द्वारा प्रस्तुत तर्क को योग्यता से रहित और मौलिक रूप से दोषपूर्ण पाता है, क्योंकि यह कानून के व्यापक दायरे और सुरक्षात्मक इरादे की अवहेलना करता है।"
इसने भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498ए, 406 और 34 तथा दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 3 और 4 के तहत अपराधों के लिए पत्नी द्वारा पिछले साल दर्ज की गई FIR में पति को अग्रिम जमानत देने से इनकार कर दिया।
दोनों पक्षों के बीच मुस्लिम रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह संपन्न हुआ। पति के खिलाफ आरोप यह था कि उसने न केवल पत्नी को गंभीर रूप से प्रताड़ित किया, बल्कि उसके आभूषण और अन्य निजी सामान भी अपने पास रख लिए, जिससे उसे उसकी जायज संपत्ति से वंचित होना पड़ा।
अग्रिम जमानत याचिका खारिज करते हुए न्यायालय ने कहा कि पत्नी की सहमति के बिना पति द्वारा दोबारा विवाह करना उसके निजी कानून और विवाह की पवित्रता के प्रति अनादर दर्शाता है।
न्यायालय ने कहा,
“अपनी मां की इच्छा और स्वास्थ्य का हवाला देते हुए पुनर्विवाह के लिए उसका औचित्य तथा बहस के दौरान उसका यह तर्क कि वह उसे वैवाहिक घर में वापस ले जाने के लिए तैयार था, जहां उसकी दूसरी पत्नी अब उसके और उसके परिवार के साथ रहती है। यह दर्शाना कि शिकायतकर्ता का उसके साथ रहने से इनकार करना, क्योंकि वह दोबारा विवाहित है और अपनी दूसरी पत्नी के साथ रह रहा है, यह नहीं दर्शाता है कि उसने उसे छोड़ दिया और वह उसके साथ नहीं रहना चाहती है।”
उसने पति के इस तर्क पर आपत्ति जताई कि यह ऐसा मामला नहीं था, जिसमें पत्नी को उसके साथ क्रूरता या उत्पीड़न के कारण अस्पताल में भर्ती कराया गया हो।
न्यायालय ने आगे कहा,
“यह तर्क न केवल अपने आप में अनुचित है, बल्कि यह मानसिकता की दहलीज को भी पार करता है कि धारा 498ए के मामले को गंभीर बनाने के लिए महिला के पास अस्पताल में चोटों और उपचार का रिकॉर्ड होना चाहिए। इस तर्क का तात्पर्य है कि महिला को शारीरिक रूप से पीटा जाना चाहिए। अस्पताल में भर्ती होने की आवश्यकता होने पर ही यह आईपीसी की धारा 498 ए के तहत क्रूरता का मामला बनेगा।"
इसने कहा कि इस तरह का दृष्टिकोण क्रूरता की बहुआयामी प्रकृति को पहचानने में विफल रहता है, जिसमें मानसिक, भावनात्मक और वित्तीय दुर्व्यवहार शामिल हैं, जो सभी समान रूप से हानिकारक हैं और धारा 498 ए के दायरे में आते हैं।
जस्टिस शर्मा ने निष्कर्ष निकाला कि आईपीसी की धारा 498 ए के मामलों में अग्रिम जमानत देते समय न्यायालयों को दायर किए गए कई मामलों के बारे में सचेत रहना चाहिए जो प्रावधान के दुरुपयोग का संकेत दे सकते हैं।
न्यायालय ने कहा कि प्रत्येक मामले के तथ्य और व्यक्तिगत मामलों में अभियुक्त का आचरण मुख्य प्रश्न है, जिसका उत्तर न्यायालय को जमानत देते या अस्वीकार करते समय देना होता है।
केस टाइटल: बिलाल अंसारी बनाम राज्य