यूपी सरकार ने मॉब लिंचिंग पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को लागू करने के लिए दायर याचिका की सुनवाई योग्यता का किया विरोध
Shahadat
12 July 2025 2:47 PM

उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में जमीयत उलेमा-ए-हिंद द्वारा दायर आपराधिक जनहित याचिका (PIL) की सुनवाई योग्यता का विरोध किया। यह याचिका तहसीन एस. पूनावाला बनाम भारत संघ (2018) मामले में मॉब लिंचिंग और भीड़ हिंसा की घटनाओं को रोकने और उनसे निपटने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित दिशानिर्देशों का अनुपालन करने की मांग करती है।
जस्टिस सिद्धार्थ और जस्टिस अवनीश सक्सेना की खंडपीठ ने मंगलवार को एडिशनल एडवोकेट जनरल ने सूचित किया कि वह प्रतिवादियों के विरुद्ध इस जनहित याचिका की सुनवाई योग्यता के मुद्दे पर इस न्यायालय को संबोधित करना चाहते हैं।
मामले की सुनवाई 15 जुलाई को होगी।
वकील सैयद अली मुर्तजा, सीमाब कय्यूम और रज़ा अब्बास के माध्यम से दायर याचिका में सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2018 के अपने फैसले में निर्धारित निवारक, उपचारात्मक और दंडात्मक उपायों को लागू करने में राज्य सरकार की कथित विफलता पर प्रकाश डाला गया।
जनहित याचिका में उत्तर प्रदेश में मॉब लिंचिंग और भीड़ हिंसा की विशिष्ट घटनाओं का भी उल्लेख किया गया, जिसमें अलीगढ़ में हाल ही में हुई [मई 2025 की] घटना भी शामिल है।
याचिका में दावा किया गया कि राज्य के प्रतिवादी फैसले के पैरा 40(ए) (निवारक उपाय) और पैरा 40(सी) (दंडात्मक उपाय) में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन करने में विफल रहे हैं।
इसमें तर्क दिया गया कि यद्यपि सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों दोनों को पेशेवर जांच सुनिश्चित करने, भीड़ हिंसा को रोकने और पीड़ितों को मुआवजा देने का निर्देश दिया था। फिर भी उत्तर प्रदेश सरकार ये कदम उठाने में विफल रही है।
याचिका में भीड़ द्वारा किए गए हमलों में चार लोगों की मौत और 15 गंभीर रूप से घायल होने की घटनाओं का विवरण दिया गया। ये हमले कथित तौर पर गोमांस परिवहन, मांसाहार, गौ तस्करी और फर्जी खबरों के प्रसार से जुड़े हैं।
याचिका में कहा गया,
"भीड़-हिंसा को भीड़तंत्र भी कहा जाता है। यह अराजकता से उत्पन्न शासन के तीन 'बुरे रूपों' में से एक है। यह दलील दी गई कि उपरोक्त घटनाओं पर राज्य तंत्र द्वारा नियंत्रण होना चाहिए। समानता, बंधुत्व और न्याय को महत्व देने वाले भारत में भीड़तंत्र को हावी नहीं होने दिया जाना चाहिए। अक्सर देखा जाता है कि भीड़-हत्या या भीड़-हिंसा के दोषियों को तुरंत न्याय के कटघरे में नहीं लाया जाता। परिणामस्वरूप यह दूसरों को कानून अपने हाथ में लेने और भीड़तंत्र या भीड़-शासन का समर्थन करने के लिए प्रेरित करता है।"
याचिका में दावा किया गया कि तथाकथित निगरानी समूह जो स्वयंभू कानून प्रवर्तक के रूप में कार्य करते हैं, उनके पास कोई कानूनी अधिकार नहीं है। उनके कार्य राज्य के अधिकार को चुनौती देते हैं और नागरिकों, विशेष रूप से अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों का उल्लंघन करते हैं।
याचिका में राज्य सरकार पर पिछले पांच वर्षों में ऐसी घटनाओं से प्रभावित ज़िलों और उप-विभागों की पहचान न करने और न ही इसमें शामिल आरोपियों के आंकड़े संकलित करने का आरोप लगाया गया।
यह भी दावा किया गया कि उत्तर प्रदेश सरकार ने 2018 में न्यायालय द्वारा दी गई एक महीने की समय-सीमा बीत जाने के बावजूद, CrPC की धारा 357ए के तहत सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित कोई पीड़ित मुआवज़ा योजना तैयार नहीं की।
अंत में याचिका में अलीगढ़ मॉब लिंचिंग मामले की जांच में निष्पक्षता और पेशेवर रवैये की कमी पर गंभीर चिंता जताई गई। इसके अलावा, याचिका में अलीगढ़ मॉब लिंचिंग मामले की जांच के लिए एक विशेष जांच दल (SIT) के गठन की भी मांग की गई।
याचिका में राज्य सरकार को निम्नलिखित निर्देश देने का भी अनुरोध किया गया:
1. मॉब लिंचिंग के मामलों से निपटने वाले प्रत्येक जिले में नोडल अधिकारियों की नियुक्ति से संबंधित अधिसूचना और सर्कुलर, साथ ही ऐसे मामलों की स्थिति रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया जाए।
2. पुलिस महानिदेशक को पिछले पांच वर्षों में मॉब लिंचिंग की घटनाओं की आपराधिक जाँच की स्थिति रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया जाए।
3. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पैरा 40.17 के अनुसार, लिंचिंग/भीड़-हिंसा के मामलों के लिए विशेष या फास्ट-ट्रैक अदालतों के गठन और मुकदमों की वर्तमान स्थिति संबंधी अधिसूचना निर्दिष्ट की जाए।
4. फैसले के पैरा 40.5 के अनुसार, नोडल अधिकारियों और पुलिस खुफिया प्रमुखों के साथ पिछले पाँच वर्षों में आयोजित तिमाही समीक्षा बैठकों के सर्कुलर और कार्यवृत्त प्रस्तुत किए जाएं।
5. राज्य को CrPC की धारा 357ए के तहत अपनी मुआवज़ा योजना और पीड़ितों को दिए गए आर्थिक मुआवज़े का विवरण प्रस्तुत करने के लिए बाध्य किया जाए। इसके अतिरिक्त, 24.05.2025 की अलीगढ़ घटना के पीड़ितों को उचित मुआवज़ा के रूप में ₹15,00,000 प्रदान करने का निर्देश देने का अनुरोध किया गया।
इसके अलावा, याचिका में केंद्र सरकार को प्रिंट, डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से जन जागरूकता अभियान चलाने का निर्देश देने का भी अनुरोध किया गया ताकि नागरिकों को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पैरा 40ए (viii) और (ix) के अनुसार मॉब लिंचिंग के परिणामों और कानूनी दंड के बारे में सूचित किया जा सके।
याचिका में केंद्र सरकार और NCRB को लिंचिंग और मॉब हिंसा के मामलों पर वर्षवार आंकड़े एकत्र करने और प्रकाशित करने का निर्देश देने का भी अनुरोध किया गया ताकि जांच और मुकदमे की निगरानी में मदद मिल सके।