अनुच्छेद 226 के तहत शक्तियों का प्रयोग करते समय कानूनी उपचारों को लागू करने में अस्पष्टीकृत और अत्यधिक देरी प्रासंगिक विचार है: झारखंड हाईकोर्ट

Shahadat

16 Aug 2022 11:09 AM IST

  • अनुच्छेद 226 के तहत शक्तियों का प्रयोग करते समय कानूनी उपचारों को लागू करने में अस्पष्टीकृत और अत्यधिक देरी प्रासंगिक विचार है: झारखंड हाईकोर्ट

    झारखंड हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि पुनर्विचार के वैधानिक उपाय पर परिसीमा अवधि से रोक लगाने को बरकरार रखा जाता है तो बिना किसी स्पष्टीकरण के रिट कार्यवाही में देरी को नजरअंदाज करना हाईकोर्ट को संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत प्राप्त शक्ति को उसके दायरे से खींचने के समान होगा।

    जस्टिस अनुभा रावत चौधरी ने कहा:

    "इस न्यायालय का सुविचारित विचार है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग करने के लिए वैधानिक उपायों को लागू करने वाले वैधानिक अधिकारियों से संपर्क करने में अस्पष्ट और अत्यधिक देरी और लापरवाही भी महत्वपूर्ण विचार है। यह अच्छी तरह से तय है कि रिट अदालतें अनुशासनात्मक कार्यवाही के मामले में अधिकारियों द्वारा पारित आदेशों के खिलाफ अपील की सुनवाई नहीं करेंगी, क्योंकि न्यायिक समीक्षा का दायरा बहुत सीमित है।"

    मामले में याचिकाकर्ता को लगभग 24 घंटे ड्यूटी से अनुपस्थित रहने पर दो साल की अवधि के दौरान वेतनमान में 2 चरणों की कटौती करने की सजा सुनाई गई है। अपीलीय न्यायालय स्तर तक अनुशासनात्मक प्राधिकार के आदेश को कायम रखा गया है। इसके बाद याचिकाकर्ता ने पुनर्विचार याचिका दायर की। इसे 6 साल की अस्पष्टीकृत देरी का हवाला देते हुए खारिज कर दिया गया। इस आदेश को वर्तमान रिट कार्यवाही में चुनौती दी गई।

    प्रतिवादी ने प्रारंभिक आपत्ति उठाते हुए कहा कि जांच कार्यवाही में दर्ज निष्कर्षों में कोई विकृति नहीं है। विभागीय कार्यवाही में हस्तक्षेप के सीमित दायरे को देखते हुए भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।

    याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि उसकी जानबूझकर अनुपस्थिति के संबंध में अधिकारियों द्वारा कोई निष्कर्ष दर्ज नहीं किया गया। याचिकाकर्ता की ओर से अनुमति के बिना छोड़ने के लिए पर्याप्त स्पष्टीकरण है, इसलिए आक्षेपित आदेश इस न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप की मांग करते हैं।

    कोर्ट ने दोनों पक्षों को सुनने के बाद कहा कि वर्तमान मामले में न तो कोई अधिकार क्षेत्र का मुद्दा है और न ही याचिकाकर्ता के किसी मौलिक अधिकार के उल्लंघन का कोई गंभीर आरोप है। इसके अलावा, वैधानिक अधिकारियों की ओर से मनमानी कार्रवाई करने का भी कोई गंभीर आरोप नहीं है।

    कोर्ट ने कहा,

    "इस न्यायालय का सुविचारित विचार है कि एक बार याचिकाकर्ता के लिए उपलब्ध पुनरीक्षण के वैधानिक उपाय को परिसीमा से रोक दिया गया है। फिर न तो अत्यधिक देरी के लिए कोई स्पष्टीकरण दिया गया और न ही वैधता के संबंध में कोई तर्क दिया गया। जब पुनर्विचार के वैधानिक उपाय पर परिसीमा अवधि से रोक लगाने को बरकरार रखा जाता है तो बिना किसी स्पष्टीकरण के रिट कार्यवाही में देरी को नजरअंदाज करना हाईकोर्ट को संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत प्राप्त शक्ति को उसके दायरे से खींचने के समान होगा।"

    इस तर्क पर आते हुए कि याचिकाकर्ता अपनी बीमार मां को देखने गया था, अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता अपनी दलील के समर्थन में ऐसा कोई भी मौखिक या दस्तावेजी सबूत पेश नहीं कर सका।

    कोर्ट ने कहा,

    "याचिकाकर्ता द्वारा उसकी अनुपस्थिति के लिए दिए गए स्पष्टीकरण की अस्वीकृति और अनुपस्थिति के लिए कोई स्पष्टीकरण नहीं होने के कारण विभागीय जांच में साबित हुआ है कि याचिकाकर्ता का मामला निश्चित रूप से जानबूझकर अनुपस्थिति के दायरे में आएगा। जब जानबूझकर अनुपस्थिति के संबंध में आरोप लगाया जाता है तो यह निश्चित रूप से दोषी कर्मचारी के लिए है कि वह कर्तव्य से अनुपस्थिति के कारणों को साबित करे, क्योंकि कर्तव्य से अनुपस्थिति का ऐसा कारण निश्चित रूप से अपराधी कर्मचारी के अनन्य ज्ञान के भीतर है। यदि दोषी कर्मचारी द्वारा अनुपस्थिति का कारण साबित नहीं किया जाता है या रिकॉर्ड पर नहीं लाया जाता है तो अनुपस्थिति के कारणों को वास्तविक साबित करने या यह साबित करने का दायित्व याचिकाकर्ता पर है कि वह जानबूझकर अनुपस्थिति नहीं था।"

    उपरोक्त अवलोकन और न्यायिक समीक्षा के सीमित दायरे को देखते हुए अदालत ने याचिका खारिज कर दी।

    केस टाइटल: राकेश कुमार सिंह बनाम भारत संघ और अन्य।

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