केरल हाईकोर्ट ने कहा, अपनी पसंद का नाम रखना अभिव्यक्ति की आजादी का हिस्सा
LiveLaw News Network
4 May 2020 2:02 PM IST
केरल हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत किसी व्यक्ति के नाम को वैसे ही बोलना, जैसी उसका इच्छा है, उस व्यक्ति का मौलिक अधिकार है।
हाईकोर्ट ने कहा, "नाम रखना और उसे वैसे बोलना, जैसी उस व्यक्ति की इच्छा है, जिसका नाम लिया जा रहा है, निश्चित रूप से अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अनुच्छेद 21 के तहत स्वतंत्रता के अधिकार का हिस्सा है।"
जस्टिस बेचू कुरियन थॉमस की बेंच ने एक लड़की की रिट याचिका पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की। लड़की ने हाईकोर्ट से मांग की थी कि वह सीबीएसई को नाम में बदलाव के लिए दिए उसके आवेदन को अनुमति देने का निर्देश दें।
मामले की पृष्ठभूमि
मामले में केरल सरकार ने याचिकाकर्ता की नाम बदलने की इच्छा को स्वीकार कर लिया था। इस संबंध में 2017 में राजपत्र अधिसूचना भी जारी की गई, जिसके बाद जन्म प्रमाण पत्र सरकार द्वारा जारी अन्य दस्तावेज में याचिकाकर्ता का में नाम बदल दिया गया।
हालांकि, जब तक यह प्रक्रियाएं हो पातीं, याचिकाकर्ता ने 2018 में माध्यमिक परीक्षा पास कर ली और सीबीएसई ने उसे स्कूल के रिकॉर्ड उपलब्ध पुराने नाम से प्रमाण पत्र जारी कर दिया। इसके बाद, उसने नाम में बदलाव के लिए स्कूल के प्रिंसिपल के माध्यम से आवेदन दाखिल किया, जिसे सीबीएसई ने परीक्षा उप-कानूनों के नियम 69.1 (i) का हवाला देते हुए खारिज कर दिया।
नियम 69.1 (i) यह निर्धारित किया गया है कि, "उम्मीदवारों के नाम या उपनामों में परिवर्तन के आवेदनों पर विचार किया जाएगा, बशर्ते कि उम्मीदवार के नाम में पारिवर्तन को कोर्ट ने स्वीकार कर लिया हो और सरकारी राजपत्र में इस सबंध में अधिसूचना जारी की जा चुकी हो।"
सीबीएसई ने यह कहते हुए कि नाम में बदलाव का आवेदन परीक्षा के नतीजों के प्रकाशन के बाद दिया गया है, इसलिए इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
जांच के नतीजे
अदालत ने पाया कि राज्य या उसके साधन किसी व्यक्ति द्वारा पसंद किए गए किसी भी नाम के उपयोग में या किसी व्यक्ति को अपनी पंसद का नाम बदलने में, "हाइपर-टेक्निकलिटी" के आधार पर रोड़ा नहीं बन सकते।
"धोखाधड़ी और आपराधिक गतिविधियों या अन्य वैध कारणों की रोकथाम और विनियमन के सीमित कारणों को छोड़कर, सरकारी रिकॉर्डों में बिना किसी हिचकिचाहट के नाम बदलने की अनुमति दी जानी चाहिए।"
नियम 69.1(i) के मसले पर कोर्ट ने कहा, उक्त नियम दो स्थितियों पर विचार करता है। पहला, जहां परीक्षा के नतीजों के प्रकाशन से पहले नाम में बदलाव होता है और दूसरा वह, जहां न्यायालय निर्देश देता है।
कोर्ट ने कहा,
"वाक्यांश-"उम्मीदवार के नतीजों के प्रकाशन से पहले कोर्ट ऑफ लॉ में और सरकारी राजपत्र में अधिसूचित किया जाता है" में शब्द 'और' यदि एक संयोजक रूप में इस्तेमाल किया गया है तो इसका कोई मतलब नहीं है। यदि शब्द 'और' का उपयोग संयोजक के रूप में किया जाता है तो इसका अर्थ यह होगा कि कोर्ट द्वारा नाम बदलना स्वीकार कर लिए जाने के बाद भी उसे वैधता प्रदान करने के लिए सरकारी राजपत्र में अधिसूचित किया जाना चाहिए। हालांकि यह बकवास है।" कोर्ट ने माना कि नतीजों के प्रकाशन से पूर्व दो में एक शर्त का अनुपालन होना चाहिए।
कोर्ट ने कहा,
"फिलहाल किसी भी कानून में ऐसा नहीं कहा गया है कि कोर्ट एक नाम को स्वीकार कर ले तो उसे वैधता प्रदान करने के लिए सरकारी राजपत्र में प्रकाशित किया जाना चाहिए। कोर्ट द्वारा नाम में बदलाव को स्वीकार किया जाना ही दुनिया में घोषणा करने के लिए एक आदेश है कि व्यक्ति का नाम बदल दिया गया है। सरकारी राजपत्र में प्रकाशन द्वारा नाम बदलने की अधिसूचना दुनिया को यह बताने का एक और तरीका है कि नाम में बदलाव हो चुका है। दोनों अलग-अलग तरीके हैं और एक दूसरे के पूरक नहीं हैं।"
कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के पेन्टियाह बनाम मुदल्ला वीरमल्लप्पा (AIR 1961 SC 1107) के फैसले पर भरोसा किया और कहा,
"आम तौर पर शब्द 'और' को शाब्दिक अर्थ में संयोजक के रूप में स्वीकार किया जाता है। हालांकि, अगर 'और' संयोजक के रूप में उपयोग बेतुका या दुरूह परिणाम दे है, तो अदालत के पास 'और' शब्द की व्याख्या का अधिकार है, ताकि नियम बनानें वालों के इरादे पर अमल किया जा सके।"
मौजूदा मामले में, वर्ष 2018 में CBSE द्वारा परीक्षा परिणाम के प्रकाशन से पहले ही वर्ष 2017 में याचिकाकर्ता के नाम में बदलाव की सूचना गजट नोटिफिकेशन प्रकाशित हो चुकी थी। अदालत ने कहा कि, इस प्रकार नियम 69.1 के तहत निर्धारित की गई शर्त का (i) गजट अधिसूचना प्रकाशित होने के साथ ही अनुपालन हो चुका था, इसलिए बोर्ड याचिकाकर्ता के अनुरोध को स्वीकार करने के लिए बाध्य था।
कोर्ट ने कहा कि कि याचिकाकर्ता को एक "हाइपर-टेक्निकेलिटी" के आधार पर याचिकाकर्ता को मौलिक अधिकार का उपयोग करने वंचित नहीं किया जा सकता है।
कोर्ट ने उप कानूनों के नियम 69.1 (ii) पर भी ध्यान दिया, जिसके अनुसार उम्मीदवार के नाम में सुधार के आवेदन को नतीजों की घोषणा की तारीख के 5 साल के भीतर ही स्वीकार किया जाएग, बशर्ते कि आवेदन संस्था प्रमुख द्वारा अग्रेषित किया जाए।
मौजूदा मामले में कोर्ट ने कहा, "Ext. P6 में यह देखा जा सकता है कि संस्था के प्रमुख ने नतीजों के प्रकाशन की तारीख से 16 महीने के भीतर याचिकाकर्ता का नाम बदलने का आवेदन अग्रेषित कर दिया था।" ऐसी स्थिति में उत्तरदाता सीबीएसई के रिकॉर्ड में याचिकाकर्ता के नाम को बदलने के लिए बाध्य था।"
मामले का विवरण
केस टाइटल: कशिश गुप्ता (एम) बनाम सीबीएसई व अन्य।
केस नं: WP (C) नंबर 7489/2020
कोरम: जस्टिस बेचू कुरियन थॉमस
प्रतिनिधित्व: एडवोकेट केआर विनोद (याचिकाकर्ता के लिए); एडवोकेट एस निर्मल (उत्तरदाताओं के लिए)
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