मध्यस्थता अधिनियम, 1940 के तहत निष्पादन कार्यवाही में धारा 47 सीपीसी के तहत आवेदन सुनवाई योग्य नहीं: इलाहाबाद हाईकोर्ट

Avanish Pathak

31 May 2022 7:13 AM GMT

  • इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट


    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना कि मध्यस्थता अधिनियम, 1940 की धारा 17 के तहत निष्पादन कार्यवाही में सीपीसी की धारा 47 के तहत एक आवेदन सुनवाई योग्य नहीं है।

    जस्टिस पीयूष अग्रवाल की पीठ ने माना कि एक मध्यस्थता अवॉर्ड सीपीसी की धारा 2 (2) के तहत परिभाषित डिक्री नहीं है और इसलिए, सीपीसी की धारा 47 के तहत आपत्ति, जिसे केवल डिक्री के निष्पादन में दायर किया जा सकता है (जैसा कि धारा 2(2) सीपीसी में परिभाषित किया गया है), अवॉर्ड के निष्पादन की मांग वाली कार्यवाही में सुनवाई योग्य नहीं है।

    कोर्ट ने माना कि मध्यस्थता अधिनियम 1940 एक स्व-निहित कोड है, इसलिए, मध्यस्थ के अधिकार क्षेत्र के बारे में आपत्ति अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार और उसमें प्रदान की गई समय अवधि के भीतर उठाई जानी चाहिए।

    कोर्ट ने कि एक पक्ष जो कई मौकों पर नोटिस दिए जाने के बाद भी मध्यस्थ न्यायाधिकरण के समक्ष पेश होने में आपत्तियां उठाने में विफल रहा है, वह सीपीसी की धारा 47 का लाभ नहीं ले सकता।

    तथ्य

    पार्टियों ने फैब्रिकेटेड आइटम्स और एसेसरीज आदि के निर्माण के लिए 05.07.1983 को एक समझौता किया। समझौते में एक मध्यस्थता क्लॉज था। दोनों पक्षों के बीच विवाद हो गया।

    जिसके बाद विरोधी पक्षकार ने 05.05.1991 को नोटिस भेजकर मध्यस्थता क्लॉज का आह्वान किया और से याचिकाकर्ता से मध्यस्थ नामित करने का अनुरोध किया। याचिकाकर्ता ने उक्त नोटिस का जवाब दिया और दलील दी कि वह एकमात्र मध्यस्थ नियुक्त करेगा। विरोधी पक्ष ने मध्यस्थ के समक्ष अपना दावा दायर किया और 01.01.1992 के एक अधिनिर्णय के जर‌िए मध्यस्थ ने विरोधी पक्ष के दावे की अनुमति दी। इसके बाद, इसने अवॉर्ड को कोर्ट का नियम बनाने के लिए आवेदन किया। इसके आवेदन की अनुमति दी गई और अवॉर्ड को निष्पादन के लिए दायर किया गया।

    इसके बाद, याचिकाकर्ता ने सीपीसी की धारा 47 के तहत एक आवेदन दायर किया, जिसे अदालत ने खारिज कर दिया। नतीजतन, याचिकाकर्ता ने पुनरीक्षण याचिका दायर की।

    विवाद

    याचिकाकर्ता ने निम्नलिखित आधारों पर धारा 47 के तहत आवेदन को खारिज करने के कोर्ट के आदेश को चुनौती दी ‌थी-

    -पक्षों के बीच विवाद का निर्णय करने के लिए मध्यस्थ के पास कोई अधिकार क्षेत्र नहीं था।

    -मध्यस्थ की नियुक्ति मध्यस्थता समझौते के अनुसार नहीं थी, इसलिए, कानून में अमान्य है।

    -मध्यस्थ ने याचिकाकर्ता को कोई नोटिस नहीं दिया; इसलिए, उसे सुनवाई के अधिकार से वंचित कर दिया गया था।

    -कोर्ट ने अधिनिर्णय को कोर्ट का नियम बनाने के लिए विरोधी पक्षकार के संदर्भ का निर्णय करते हुए याचिकाकर्ता को भी नोटिस जारी नहीं किया।

    -निष्पादन याचिका दायर होने के बाद ही याचिकाकर्ता को विरोधी पक्ष के पक्ष में इस तरह के एक अवॉर्ड के बारे में पता चला, उसने तदनुसार सीपीसी की धारा 47 के तहत आपत्ति दर्ज की। हालांकि, निचली अदालत ने उसके आवेदन को सुनवाई योग्य न मानते हुए खारिज करने में गलती की।

    -याचिकाकर्ता ने धर्म प्रतिष्ठानम बनाम मधोक कंस्ट्रक्शन प्राइवेट लिमिटेड [AIR 5005 SC 214] में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर भरोसा किया।

    विरोधी पक्ष ने निम्नलिखित आधारों पर याचिकाकर्ता के तर्क का विरोध किया-

    -याचिकाकर्ता ने जानबूझकर मध्यस्थता समझौते की प्रति दाखिल नहीं की है क्योंकि यह उसकी दलील को विफल कर देगा क्योंकि नियुक्ति पूरी तरह से समझौते के संदर्भ में थी।

    -मध्यस्थ ने कई नोटिस जारी किए थे, जो याचिकाकर्ता को विधिवत तामील किए गए थे; हालांकि, उसने उन नोटिसों का जवाब न देने का फैसला किया और मध्यस्थता की कार्यवाही में भाग नहीं लिया।

    -कोर्ट ने विरोधी पक्ष के आवेदन पर निर्णय लेते हुए याचिकाकर्ता को नोटिस भी जारी किया, हालांकि, वह कोर्ट के समक्ष उपस्थित नहीं हुआ।

    -मध्यस्थता अधिनियम, 1940 अपने आप में एक पूर्ण संहिता है और मध्यस्थ की नियुक्ति या उसके अधिकार क्षेत्र या अवॉर्ड के खिलाफ सभी आपत्तियां केवल अधिनियम के संदर्भ में उठाई जाएंगी और याचिकाकर्ता समय पर ऐसी कोई आपत्तियां उठाने में विफल रहा है।

    -सीपीसी की धारा 47 मध्यस्थता अवॉर्ड के निष्पादन में आकर्षित नहीं होती है, इसलिए, निचली अदालत ने याचिकाकर्ता के आवेदन को सुनवाई योग्य न मानते हुए खारिज कर दिया।

    कोर्ट का विश्लेषण

    कोर्ट ने पाया कि मध्यस्थ ने निर्णय में एक विशिष्ट निष्कर्ष निकाला है कि कई नोटिसों की तामील के बावजूद, याचिकाकर्ता उसके सामने पेश होने में विफल रहा। तदनुसार, इसने इस तर्क को खारिज कर दिया कि याचिकाकर्ता को कोई नोटिस दिए बिना अवॉर्ड पारित किया गया था।

    कोर्ट ने धर्म प्रतिष्ठानम (सुप्रा) में निर्णय को इस आधार पर अलग किया कि उस मामले में, मध्यस्थ की नियुक्ति के संबंध में याचिकाकर्ता की आपत्ति पर विचार नहीं किया गया था और निर्णय शून्य था, इसलिए, धारा 47 के तहत आवेदन सुनवाई योग्य था। हालांकि, वर्तमान मामले में, याचिकाकर्ता ने कभी भी ऐसी कोई आपत्ति नहीं उठाई और मध्यस्थता और साथ ही कोर्ट के समक्ष कार्यवाही से अनुपस्थित रहे, इसलिए, सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से याचिकाकर्ता को कोई मदद नहीं मिली।

    कोर्ट ने माना कि मध्यस्थता अवॉर्ड सीपीसी की धारा 2(2) के तहत परिभाषित डिक्री नहीं है और इसलिए, सीपीसी की धारा 47 के तहत आपत्ति, जिसे केवल डिक्री के निष्पादन में दायर किया जा सकता है (जैसा कि धारा 2(2) सीपीसी के तहत परिभाषित किया गया है।), अवॉर्ड के निष्पादन की मांग वाली कार्यवाही में सुनवाई योग्य नहीं है।

    कोर्ट ने आगे कहा कि मध्यस्थता अधिनियम 1940 एक स्व-निहित कोड है, इसलिए, मध्यस्थ के अधिकार क्षेत्र के बारे में आपत्ति अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार और उसमें प्रदान की गई समय अवधि के भीतर उठाई जानी चाहिए।

    तदनुसार, पुनरीक्षण आवेदन को खारिज कर दिया गया।

    केस टाइटल: भारत पंप्स एंड कंप्रेशर्स बनाम चोपड़ा फैब्रिकेटर्स,(Civil Revision No. 53 of 2022)

    केस साइटेशन: 2022 लाइव लॉ (एबी) 269


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