सीआरपीसी की धारा 220 | ट्रायल कोर्ट के पास यह निर्णय लेने का विवेक है कि जॉइंट ट्रायल का आदेश दिया जाए या नहीं: केरल हाईकोर्ट

Shahadat

1 May 2023 4:36 AM GMT

  • सीआरपीसी की धारा 220 | ट्रायल कोर्ट के पास यह निर्णय लेने का विवेक है कि जॉइंट ट्रायल का आदेश दिया जाए या नहीं: केरल हाईकोर्ट

    केरल हाईकोर्ट ने हाल ही में माना कि सीआरपीसी की धारा 220 के तहत जॉइंट ट्रायल करना अदालत के लिए अनिवार्य नहीं है, क्योंकि यह अदालत के विवेक पर है कि वह जॉइंट ट्रायल की अनुमति दे या नहीं।

    जस्टिस वी जी अरुण की एकल पीठ एक फर्म के भागीदारों के बीच उठे कुछ विवादों से संबंधित मामले पर विचार कर रही थी। अदालत ने पक्षों को आर्बिट्रेशन के लिए भेजा था। इस मामले को इस शर्त पर तय किया गया कि भागीदारों में से एक (द्वितीय याचिकाकर्ता) 32 किश्तों में पूर्ण और अंतिम निपटान के रूप में प्रतिवादी को 2 करोड़ रुपये का भुगतान करेगा।

    प्रतिवादी को भुगतान किए गए कुछ चेक अपर्याप्त धनराशि के कारण अस्वीकृत हो गए और कुछ भुगतान रोकने के कारण अस्वीकृत हो गए। प्रतिवादी ने बाद में नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट (NIA Act) की धारा 138 के तहत शिकायत दर्ज की।

    इस संबंध में प्रतिवादी द्वारा सात मामले दायर किए गए और अभियुक्त ने मामलों की संयुक्त सुनवाई के लिए याचिका दायर की। संयुक्त सुनवाई की इस याचिका को मजिस्ट्रेट ने खारिज कर दिया। इसके बाद आरोपी ने मजिस्ट्रेट के आदेश के खिलाफ हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

    मजिस्ट्रेट ने देखा कि चूंकि सभी चेक अलग-अलग तारीखों के होते हैं और चूंकि वे अलग-अलग तारीखों पर डिसऑनर्ड हो गए, समग्र साक्ष्य लेने से भ्रम पैदा होगा। अदालत ने साक्ष्य की बेहतर सराहना की अनुमति देने के लिए संयुक्त परीक्षण से इनकार कर दिया।

    याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि सीआरपीसी की धारा 218 के प्रावधान के अनुसार, मजिस्ट्रेट के पास संयुक्त मुकदमे का आदेश देने की शक्ति है, अगर अभियुक्त इससे प्रभावित नहीं होगा। याचिकाकर्ता द्वारा यह भी तर्क दिया गया कि सीआरपीसी की धारा 220 (1) के तहत यदि एक ही व्यक्ति द्वारा एक ही लेन-देन का हिस्सा बनने वाले कार्यों की श्रृंखला में एक से अधिक अपराध किए जाते हैं तो ऐसे सभी अपराधों की सुनवाई एक ही मुकदमे में की जा सकती है।

    याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि चूंकि चेक पार्टियों के बीच समझौते के हिस्से के रूप में जारी किए गए, यह एक ही लेनदेन का हिस्सा बनता है। इसलिए उन्हें एक साथ आजमाया जाना चाहिए।

    हालांकि, प्रतिवादी ने तर्क दिया कि कार्रवाई का कारण हर मामले के लिए अलग है, क्योंकि प्रत्येक चेक की अलग तारीख होती है और अलग-अलग तारीखों पर प्रस्तुत और डिसऑनर्ड किया गया और नोटिस अलग-अलग तारीखों पर जारी किए गए। इसलिए यह एक ही लेनदेन का हिस्सा नहीं बन सकता।

    हाईकोर्ट ने पाया कि प्रत्येक मामले के लिए कार्रवाई का कारण अलग है,

    “आठ चेक अलग-अलग तारीखों के होते हैं और अलग-अलग तारीखों में पेश किए गए और अनादरित हो गए। अलग-अलग तारीखों पर वैधानिक नोटिस भी जारी किए गए। नतीजतन, शिकायत दर्ज करने के लिए कार्रवाई का कारण अर्थात; अधिनियम की धारा 138 के परंतुक (बी) के तहत जारी वैधानिक नोटिस की प्राप्ति के बाद निर्धारित समय के भीतर भुगतान करने में आहर्ता की विफलता भी अलग है। इसलिए शिकायतें प्रत्येक व्यक्तिगत चेक के संबंध में अपराधों से संबंधित कार्रवाई के विभिन्न कारणों के आधार पर दर्ज की गईं।

    हाईकोर्ट ने माना कि मजिस्ट्रेट के आदेश में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं था, क्योंकि मजिस्ट्रेट ने सही निष्कर्ष निकाला कि जॉइंट ट्रायल संभव नहीं होगा।

    याचिकाकर्ताओं के वकील: एस.राजीव एस, वी.विनय, एम.एस.अनीर, प्रीरिथ फिलिप जोसेफ, सारथ केपी।

    उत्तरदाताओं के लिए वकील: पीएम मोहनदास, पीके सुधीनकुमार, साबू पुल्लन, गोकुल डी सुधाकरा, आर भास्कर कृष्णन और के पी सतीसन।

    केस टाइटल: एम/एस डी-फैब वी प्रिया वर्मा

    साइटेशन: लाइवलॉ (केरल) 209/2023

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