धारा 167 (2) सीआरपीसी- जांच एजेंसी गंभीर आरोपों को लागू करके अभियुक्तों के डिफॉल्ट बेल के अधिकार को कम नहीं कर सकती: बॉम्बे हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

6 May 2022 6:22 AM GMT

  • बॉम्बे हाईकोर्ट, मुंबई

    बॉम्बे हाईकोर्ट

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि एक जांच एजेंसी गंभीर आरोप लगाकर किसी आरोपी के डिफॉल्ट बेल को विफल नहीं कर सकती।

    जस्टिस सीवी भडांग ने देखा,

    "इसमें कोई संदेह नहीं है कि जांच जांच एजेंसी का अधिकार क्षेत्र है। हालांकि इसका अर्थ यह नहीं कि अदालत, लगभग सभी मामलों में, अभियोजन एजेंसी की ओर से आरोपी के खिलाफ एक विशेष धारा में आरोप लगाने के बाद बाध्य हो जाएगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि धारा या प्रावधान लगाना निर्णायक नहीं होगा। इसे अन्य तरीके से कहें तो यह डिफॉल्ट बेल के अधिकार को जांच एजेंसी की दया पर रखने जैसा होगा, और परोक्ष रूप से मजिस्ट्रेट के ल‌िए अधिकारों को, जहां जरूरी हो, लागू करने के कर्तव्य को त्याग करने जैसे होगा।"

    कोर्ट ने कहा कि अदालत को डिफॉल्ट बेल के लिए याचिका पर विचार करते हुए लगाए गए आरोपों और एकत्र की गई सामग्री की व्यापकता को देखना होगा। किसी द‌िए हुए मामले में, जहां पूर्व दृष्टया प्रावधान आकर्षित नहीं होता, कोर्ट बाध्य नहीं हो सकता है।

    कोर्ट ने यह टिप्पणी ऐसे मामले में की है, जहां उसे मुख्य रूप से यह निर्धारित करने की आवश्यकता थी कि क्या आरोपी 60 दिनों या 90 दिनों के भीतर जांच पूरी करने में विफल रहने पर डिफॉल्ट बेल का हकदार होगा।

    यह सवाल तब उठा जब आरोपी के खिलाफ जांच की अवधि के 60 दिनों की समाप्ति से पहले धारा 409 आईपीसी के तहत आरोप जोड़ा गया, जिसका पर‌िणाम यह होता कि जांच की अवधि 90 दिनों तक बढ़ जाती।

    कोर्ट ने कहा,

    "जांच पूरी करने के लिए एक टाइमलाइन निर्धारित करने और निर्धारित अवधि के भीतर जांच पूरी नहीं होने पर आरोपी के बेल पर रिहा होने के संबंधित अधिकार का प्रावधान है, जिसका उद्देश्य जांच और व्यक्तिगत स्वतंत्रता दोनों के हित को संतुलित करना है।

    इस प्रकार मैं पाता हूं कि आरोप पत्र दाखिल करने में विफलता के कारण 60 दिनों की समाप्ति पर आवेदक के अर्जित अक्षम्य अधिकार को केवल आईपीसी की धारा 409 को लागू कर विफल नहीं किया जा सकता है, जिसमें दावा किया गया है कि जांच पूरी होने की अवधि और चार्जशीट दाखिल करने की अवधि 90 दिन है।"

    यह फैसला तब आया जब कोर्ट ने नोट किया कि आरोपी, भुगतान में चूक में शामिल फर्म में भागीदार होने के नाते, आईपीसी की धारा 409 के तहत अपराध के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है, क्योंकि साझेदारी की संपत्ति/ एसेट्स सभी भागीदारों का स्वामित्व का एक जैसा है, और इस प्रकार किसी सुपुर्दगी के अभाव में उक्त अपराध नहीं बनता है (वेलजी राघवजी पटेल बनाम महाराष्ट्र राज्य, 1965 AIR 1433)।

    अतिरिक्त लोक अभियोजक ने तर्क दिया कि नई धारा को जोड़ने की अनुमति देने वाले किसी औपचारिक आदेश की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह जांच अधिकारी का विशेषाधिकार है और जांच का मामला विशेष क्षेत्राधिकार और जांच एजेंसी के अधिकार क्षेत्र में है।

    यह प्रस्तुत किया गया कि सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत आवेदक के बेल मांगने से पहले आईपीसी की धारा 409 को जोड़ा/लागू किया गया था। वेलजी राघवजी में निर्धारित सिद्धांत को बाद के फैसलों में सुप्रीम कोर्ट ने समझाया है।

    यह भी प्रस्तुत किया गया कि मजिस्ट्रेट/विशेष अदालत सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत आवेदन पर विचार की प्रक्रिया में इस पहलू पर विचार नहीं कर सकती है, जब जांच अधिकारी जांच पूरी करने के लिए 90 दिनों की अवधि को स्वीकार करने वाली धारा को लागू करता है।

    कोर्ट ने हालांकि कहा कि इसमें कोई शक नहीं है कि जांच जांच एजेंसी का अधिकार क्षेत्र है। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि अभियोजन एजेंसी द्वारा अभियुक्त के खिलाफ एक विशेष धारा के आह्वान से अदालत बाध्य होगी।

    हाईकोर्ट ने कहा,

    "कम से कम प्रथम दृष्टया यह नहीं दिखाया गया है कि आवेदक के पक्ष में इस तरह का विशेष अधिकार था और यह कि विशेष अदालत ने इन पहलुओं पर ध्यान नहीं दिया है, सिवाय यह कहने के कि आईपीसी की धारा 409 के तहत अपराध आकर्षित है।" .

    उपरोक्त को ध्यान में रखते हुए, अदालत ने ट्रायल कोर्ट की संतुष्टि के लिए समान राशि में एक या दो सॉल्वेंट स्योरीटीज़ के साथ एक लाख रुपये की राशि में पीआर बॉन्ड के निष्पादन पर जमानत दी।

    केस शीर्षक: अलनेश अकील सोमजी बनाम महाराष्ट्र राज्य


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