धारा 437(6) सीआरपीसी | यदि अभियोजन साक्ष्य शुरू होने के 60 दिनों में मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय मामला समाप्त नहीं होता है तो जमानत दी जा सकती है: पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट
Avanish Pathak
22 Aug 2022 12:34 PM IST
पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने दोहराया कि सीआरपीसी की धारा 437 (6) के संदर्भ में, जहां मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय मामले में मुकदमा अभियोजन के लिए तय की गई पहली तारीख के बाद 60 दिनों की अवधि के भीतर समाप्त नहीं होता है, वहां जमानत दी जानी चाहिए।
जस्टिस जसजीत सिंह बेदी ने यह टिप्पणी याचिकाकर्ता के खिलाफ धारा 420, 409, 120-बी आईपीसी के तहत दर्ज प्राथमिकी में सीआरपीसी की धारा 439 के तहत एक याचिका पर विचार करते हुए की, जिसमें कथित तौर पर आरडी, एफडीआर खोलने के बहाने 1,01,32,600 रुपये तक कई लोगों के साथ धोखाधड़ी करने का आरोप लगाया गया था।
आरोप था कि याचिकाकर्ता डाकघर का एजेंट था और लोगों की आरडी, एफडीआर खोलकर पैसे जमा करता था। शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि 12,53,000 रुपये की राशि का गबन किया गया है। जांच के दौरान, यह पाया गया कि आरोपियों ने विभिन्न व्यक्तियों से 1,01,32,600 रुपये की ठगी भी की थी।
पार्टियों के प्रतिद्वंद्वी प्रस्तुतीकरण पर विचार करने के बाद अदालत ने कहा,
याचिका के साथ संलग्न कुछ जिम्नी आदेशों के अवलोकन से पता चलता है कि मुकदमा तेजी से आगे नहीं बढ़ रहा है। अन्यथा भी, धारा 437 (6) सीआरपीसी के प्रावधानों के अनुसार, जमानत दी जानी चाहिए, जहां अभियोजन साक्ष्य के लिए निर्धारित पहली तारीख के बाद 60 दिनों की अवधि के भीतर मुकदमा समाप्त नहीं होता है।
इसने आगे कहा कि अभियोजन साक्ष्य के लिए निर्धारित पहली तारीख 22.12.2021 थी और इसलिए, ट्रायल 21.02.2022 तक समाप्त हो जाना चाहिए था। हालांकि, अब तक 55 में से केवल 5 गवाहों से ही पूछताछ हुई है।
अदालत ने विनोद कुमार बनाम हरियाणा राज्य, CRM-M-29702-2018, और धर्मिंदर शर्मा बनाम पंजाब राज्य, CRM-M-20684-2020 के फैसले पर भरोसा किया, जिसमें एक ही सिद्धांत को उजागर किया गया था। हालांकि, इन फैसलों ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि धारा 437 (6) सीआरपीसी के तहत आरोपी को जमानत लेने का पूर्ण अधिकार नहीं मिलता है।
कोर्ट ने कहा,
"यह प्रावधान एक ओर, मजिस्ट्रेट को सीआरपीसी की धारा 437 (6) की आवश्यकताओं के पूरा होने पर जमानत देने में सक्षम बनाता है, जबकि दूसरी ओर, अन्यथा दर्ज किए जाने वाले कारणों के लिए जमानत को अस्वीकार करने का विवेक निहित है। ऐसी परिस्थितियों में, मजिस्ट्रेट को दो परस्पर विरोधी हितों यानि व्यक्तिगत स्वतंत्रता की पवित्रता और न्याय के हित के बीच एक पूर्ण संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता होती है।
उक्त टिप्पणियों के आलोक में याचिका को स्वीकार किया गया और याचिकाकर्ता को जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया गया।
केस टाइटल: रमन कुमार बनाम पंजाब राज्य