निवारक निरोध| हिरासतकर्ता प्राधिकरण की संतुष्टि पुलिस डोजियर और जुड़े दस्तावेज़ों की सामूहिक जांच पर आधारित होनी चाहिए: जेएंडकेएंड एल हाईकोर्ट

Avanish Pathak

9 Nov 2022 10:08 AM GMT

  • Consider The Establishment Of The State Commission For Protection Of Child Rights In The UT Of J&K

    जम्मू एंड कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने हाल ही में एक फैसले में कहा कि आरोपों के समर्थन में सामग्री या ऐसी घटना के विशिष्ठ विवरणों के अभाव में, यह नहीं माना जा सकता कि कुछ गतिविधियां शांति और सार्वजनिक व्यवस्था के रखरखाव के लिए प्रतिकूल हैं, और वह भी तब जब इन अस्पष्ट आरोपों की पुष्टि के लिए दिए गए रिकॉर्ड में कोई संकेत न हो।

    जस्टिस वसीम सादिक नरगल ने याचिका पर सुनवाई करते हुए उक्त टिप्पणी की। पति के माध्यम से दायर याचिका में बंदी ने जम्मू-कश्मीर सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम, 1978 की धारा 8 के तहत प्रतिवादी की ओर से उन्हें दिए गए निरोध आदेश की वैधता को चुनौती दी थी।

    याचिकाकर्ता के वकील की ओर से दिया गया मुख्य तर्क यह था कि आक्षेपित आदेश से विशेष रूप से परिलक्षित होता है कि जिला मजिस्ट्रेट ने डोजियर में दी गई सामग्री और अनुशंसाओं को केवल पढ़ लिया था और हिरासत के आदेश को पारित करते समय अन्य संबंधित दस्तावेजों को नहीं देखा था, जिससे किसी भी संदेह से परे स्पष्ट रूप से साबित होता है कि विवेक का पूरी तरह से उपयोग नहीं किया गया है और हिरासत के आदेश को पारित करते समय सभी सामग्र‌ियों को विस्तार से नहीं देखा गया है, जिसने इसे खराब कर दिया और इसलिए यह रद्द किया जाने के लिए उत्तरदायी था।

    याचिकाकर्ता ने आगे तर्क दिया कि चूंकि हिरासत के आदेश को पारित करते समय हिरासत प्राधिकरण द्वारा सभी सामग्री पर ध्यान नहीं दिया गया था, इसलिए बंदी को प्रभावी प्रतिनिधित्व से वंचित कर दिया गया था, जो कि सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम, 1978 की धारा 13 (1) का उल्लंघन है।

    मामले पर फैसला सुनाते हुए जस्टिस नरगल ने कहा कि यह विशेष रूप से उल्लेख किया गया है कि शारशाली हज मोहल्ला, खरेव से गुजरते समय बंदी ने पुलिस दल पर पथराव किया है और इस तरह उसने पुलिस को अपने कानूनी कर्तव्यों का निर्वहन करने से रोका, जिसके बारे में एफआईआर संख्या 17/2020 थाना खरेव में धारा 147, 148, 336 और 427 आईपीसी के तहत दर्ज किया गया था, जिसमें उन्हें जमानत दे दी गई है।

    पीठ ने हालांकि दर्ज किया कि भले ही क्षेत्र में शांति और सार्वजनिक व्यवस्था को संभालने के लिए प्रतिकूल गतिविधियों के आरोप लगाए गए हैं, लेकिन उनमें व्यक्तियों के विवरण और सटीक तारीख को नहीं बताया गया है।

    आक्षेपित आदेश में विवरण को निर्दिष्ट ना करने के प्रभाव की व्याख्या करते हुए पीठ ने कहा कि चूंकि कोई विशेष घटना, वाकया या विवरण निरोध के आधार के रूप में परिलक्षित नहीं किया गया, जो कि आक्षेपित आदेश पारित करने का आधार है, इस प्रकार हिरासत में लिए गए व्यक्ति को प्रभावी प्रतिनिधित्व से इनकार किया गया है, क्योंकि बंदी को उस सामग्री के बारे में पता नहीं है जो उसके खिलाफ आदेश पारित करते समय लागू की गई है।

    कानून की उक्त स्थिति पर बल देते हुए पीठ ने खुदीराम दास बनाम पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य (1975) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा रखा।

    इस मामले पर अपने विचार का विस्तार करते हुए पीठ ने कहा कि सामान्य बयानों को छोड़कर, रिकॉर्ड पर ऐसी कोई सामग्री नहीं है जो यह दर्शाती हो कि बंदी ऐसा कार्य कर रहा था जो सार्वजनिक व्यवस्था के लिए खतरनाक हो। पीठ ने कहा, वर्तमान मामले में एक मात्र घटना, जिसमें उसे पहले ही जमानत दी जा चुकी है, आक्षेपित आदेश पारित करके बंदी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कम करने के लिए पर्याप्त नहीं है।

    पूर्वगामी कारणों से पीठ ने याचिका को स्वीकार कर लिया और हिरासत के आदेश को रद्द कर दिया गया। आगे यह भी निर्देश दिया गया कि हिरासत में लिए गए व्यक्ति को तत्काल निवारक हिरासत से रिहा किया जाए, बशर्ते कि किसी अन्य मामले (मामलों) के संबंध में उसकी आवश्यकता न हो।

    केस टाइटल: सज्जाद अहमद भट बनाम केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर

    साइटेशन: 2022 लाइव लॉ (जेकेएल) 208

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