लाल किला ब्लास्ट ट्रायल की कोर्ट निगरानी की मांग को लेकर हाईकोर्ट में याचिका

Shahadat

2 Dec 2025 8:00 PM IST

  • लाल किला ब्लास्ट ट्रायल की कोर्ट निगरानी की मांग को लेकर हाईकोर्ट में याचिका

    दिल्ली हाईकोर्ट में एक जनहित फाइल कर लाल किला ब्लास्ट केस के ट्रायल के सभी स्टेज की निगरानी के लिए कोर्ट की निगरानी वाली कमेटी बनाने का निर्देश देने की मांग की गई।

    इस मामले की सुनवाई बुधवार को चीफ जस्टिस देवेंद्र कुमार उपाध्याय और जस्टिस तुषार राव गेडेला की डिवीजन बेंच करेगी।

    डॉ. पंकज पुष्कर की फाइल की गई इस याचिका में इस केस का डे-टू-डे ट्रायल करने की मांग की गई, जिसकी जांच नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (NIA) कर रही है और प्रॉसिक्यूशन को ज्यूडिशियल कमेटी के सामने हर महीने स्टेटस रिपोर्ट फाइल करनी होगी।

    यह ब्लास्ट 10 नवंबर को हुआ था। लाल किले के बाहर हुए इस ब्लास्ट में 13 लोग मारे गए थे।

    एडवोकेट राजा चौधरी की फाइल की गई जनहित याचिका में इस ब्लास्ट को भारत की सॉवरेनिटी, नेशनल सिक्योरिटी और दिल्ली के लोगों की साइकोलॉजिकल इंटीग्रिटी पर हमला बताया गया।

    याचिका में कहा गया कि पीड़ितों के परिवार पूरी तरह अंधेरे में हैं, क्योंकि उन्हें नहीं पता कि उनके अपनों को क्यों मारा गया या किन “ताकतों” ने हमला करवाया।

    याचिका में कहा गया,

    “ऑफिशियल भरोसे के बावजूद, सिर्फ़ ज्यूडिशियल सुपरविज़न ही गारंटी दे सकता है कि सबूत सुरक्षित रखे जाएं, एजेंसियां ​​सहयोग करें, गवाहों को सुरक्षा मिले और जांच का मकसद न सिर्फ़ अपराधियों की पहचान करना है, बल्कि हमले के पीछे के मकसद और इरादे का भी पता लगाना है– यह वह जानकारी है जिसके पीड़ित संवैधानिक रूप से हकदार हैं।”

    अलग-अलग UAPA मामलों का हवाला देते हुए याचिका में कहा गया कि पिछले तीन दशकों में आतंकवाद के मुकदमों की असलियत यह दिखाती है कि सीधे संवैधानिक कोर्ट की सुपरविज़न के बिना, NIA के मामले देरी के बोझ तले “अक्सर नाकाम” हो जाते हैं।

    याचिकाकर्ता का कहना है कि TADA, POTA और UAPA के तहत आतंकवाद के मुकदमों को पूरा होने में 12 से 27 साल लगते हैं, जिससे सबूत खत्म हो जाते हैं, गवाहों की याददाश्त चली जाती है, बार-बार सुनवाई टल जाती है, गवाह अपने बयान से मुकर जाते हैं, कस्टडी की चेन टूट जाती है। आखिर में दोबारा ट्रायल होते हैं या बड़े पैमाने पर लोग बरी हो जाते हैं।

    याचिका में आगे कहा गया कि हाईकोर्ट की निगरानी में रोज़ाना का ट्रायल न सिर्फ़ “कानूनी ज़िम्मेदारियों को पूरा करता है” बल्कि यह भी पक्का करता है कि “सच तेज़ी से, भरोसे के साथ और बाहरी दखल के बिना सामने आए।”

    याचिका में कहा गया,

    “कोर्ट-मॉनिटर्ड स्पेशल रिजीम (CMSR)—रोज़ाना की कार्रवाई लगातार निगरानी और समय पर पालन पक्का करना—कोई खास तरीका नहीं है, बल्कि यह एक प्रैक्टिकल संवैधानिक ज़रूरत है ताकि मौजूदा केस को उन देरी से चल रहे या पटरी से उतर चुके आतंकवाद के ट्रायल की लंबी लिस्ट में एक और नाम बनने से रोका जा सके, जिन्होंने न्याय व्यवस्था में लोगों का भरोसा खत्म कर दिया।”

    Title: DR. PANKAJ PUSHKAR v. UNION OF INDIA AND ORS

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