डिफॉल्ट बेल : बलात्कार के आरोपी की याचिका पर विचार करते समय पीड़िता का पक्ष सुनना अनिवार्य नहीं : केरल हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

13 Sep 2020 4:30 AM GMT

  • डिफॉल्ट बेल :  बलात्कार के आरोपी की याचिका पर विचार करते समय पीड़िता का पक्ष सुनना अनिवार्य नहीं : केरल हाईकोर्ट

    केरल हाईकोर्ट

    केरल हाईकोर्ट ने माना है कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 439 (1ए) में निहित प्रावधान सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत दायर जमानत के आवेदन पर लागू नहीं होते हैं।

    सीआरपीसी की धारा 439 (1ए) के अनुसार, सूचना देने वाले या उसके द्वारा अधिकृत किसी भी व्यक्ति की उपस्थिति उस समय अनिवार्य होगी, जब आईपीसी की धारा 376 की उप-धारा (3) या धारा 376एबी या धारा 376डीए या धारा 376डीबी के तहत जमानत के लिए आवेदन दायर किया जाता है।

    हाईकोर्ट के समक्ष आए इस मामले में अभियुक्त (जिस स्कूल में पीड़िता पढ़ाई कर रही थी,आरोपी उसी स्कूल में शिक्षक था) के खिलाफ मामला आईपीसी की धारा 376 (2) (एफ), 376एबी और 354बी और पाॅक्सो एक्ट (the Protection of Children from Sexual Offences Act, 2012 ) की धारा 5 (एफ), 5 (एल) और 5 (एम) रिड विद सेक्शन 6 के तहत दर्ज किया गया था। इस मामले में आरोपी 90 दिनों से हिरासत में था और उसके बावजूद भी इस मामले में अंतिम रिपोर्ट दायर नहीं की गई थी।

    इसलिए अभियुक्त ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के तहत जमानत के लिए विशेष अदालत का रुख किया था। विशेष अदालत ने उसे जमानत देते हुए कहा था कि आरोपी 90 दिनों से हिरासत में है,उसके बावजूद भी मामले की जांच अभी तक पूरी नहीं हुई है। इसलिए आरोपी स्वत: ज़मानत (डिफॉल्ट बेल) का हकदार है।

    हाईकोर्ट के समक्ष पीड़िता ने दलील दी कि अभियुक्त के खिलाफ आईपीसी की 376एबी के तहत दंडनीय अपराध में मामला बनाया गया है,इसलिए अदालत को आरोपी को जमानत देते समय संहिता की धारा 439 (1ए) के अनुसार पीड़िता का पक्ष भी सुनना चाहिए था। इसलिए, न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या अदालत के लिए यह आवश्यक है कि संहिता की धारा 167 (2) के तहत किसी अभियुक्त को जमानत देते समय वह संहिता की धारा 439 (1 ए) के तहत दिए गए प्रावधान का भी पालन करे ?

    अदालत ने कहा कि संहिता की धारा 167 (2) के तहत मांगी गई जमानत संहिता की धारा 437, 438 और 439 के तहत मांगी गई जमानत से मौलिक रूप से अलग है।

    जस्टिस पीबी सुरेश कुमार ने यह भी कहा कि,

    विशेष रूप से दोनों एकदम भिन्न है। जहां सीआरपीसी की धारा 167 (2) एक अभियुक्त को अपरिहार्य अधिकार प्रदान करती है, वहीं धारा 437, 438 और 439 अभियुक्त को इस तरह का कोई अधिकार नहीं देती हैं और इन प्रावधानों के तहत जमानत देना केवल न्यायिक विवेक का मामला है। एक अभियुक्त को धारा 167 (2) के तहत जमानत मांगने का अधिकार उस समय मिलता है,जब जांच अधिकारी प्रावधान में निर्दिष्ट समय अवधि के भीतर मामले की जांच पूरी नहीं कर पाता है। वहीं धारा 167 (2) के तहत जमानत के लिए दायर आवेदन पर विचार करते समय, अदालत मामले की योग्यता या मैरिट पर विचार नहीं करती है। ऐसे में अदालत सिर्फ इस सवाल पर विचार करती है कि क्या निर्धारित अवधि के तहत मामले की जांच पूरी करने में जांच एजेंसी की ओर से चूक हुई है या नहीं? यदि जांच एजेंसी निर्धारित समय के भीतर मामले में अंतिम रिपोर्ट दर्ज करने में विफल रहती है, तो हिरासत में रखे गए आरोपी को जमानत का पूर्ण अधिकार प्राप्त हो जाता है।

    धारा 167 (2) के विपरीत, धारा 437 और 439 के तहत काम करने वाली अदालत को अपने न्यायिक विवेक का उपयोग करने के लिए विभिन्न विचारों या तर्कों द्वारा निर्देशित किया जाता है,जो इस प्रकार हैं-(1) आरोप की प्रकृति और दोषी पाए जाने के मामले में सजा की गंभीरता और अभियोजन पक्ष द्वारा पेश की जाने वाली सामग्री की प्रकृति, (2) गवाहों के साथ छेड़छाड़ की उचित आशंका या शिकायतकर्ता व गवाहों को खतरे की आशंका,(3) मुकदमे के समय अभियुक्त की उपस्थिति को सुरक्षित रखने की उचित संभावना , (4) आरोपी का चरित्र व व्यवहार और परिस्थितियां,जो आरोपी के लिए अजीब हो,(5) जनता या राज्य का बड़ा हित और इसी तरह के अन्य विचार।

    अदालत ने कहा कि संहिता की धारा 439 (1ए) का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि जमानत याचिका पर निर्णय देने से पहले पीड़ित व्यक्ति या पीड़ित के हित में काम करने वाले व्यक्ति का पक्ष भी सुना जाए। वहीं संहिता की धारा 167 (2) के तहत दायर जमानत के आवेदन पर निर्णय करते समय कोर्ट सिर्फ अभियुक्त द्वारा हिरासत में बिताई गई अवधि पर विचार करती है। ऐसे में संहिता की धारा 439 (1 ए) में निहित प्रावधान का अनुपालन करने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

    ''भले ही संहिता की धारा 439 (1 ए) में प्रयुक्त शब्दावली पर विश्वास करते हुए यह मान लिया जाए कि इस धारा के प्रावधानों का ,संहिता की धारा 167 (2) के तहत जमानत देते समय पालन किया जाना चाहिए, तो भी यह एक महज औपचारिकता होगी। धारा 167 (2) का उद्देश्य किसी ऐसे व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करना है जिसे हिरासत में लिया गया है और मामले में लंबित जांच के दौरान उसे हिरासत में ही रखा जाएगा। यह भी सही है कि किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित मामलों में, अदालत को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के पक्ष में झुकना चाहिए। उपर्युक्त परिस्थितियों में, मेरा यह मानना​है कि संहिता की धारा 439 (1 ए) में निहित प्रावधान, धारा 167 (2) के तहत दायर जमानत के आवेदन पर लागू नहीं होते हैं।''

    इस प्रकार पीठ ने माना कि आरोपी संहिता की धारा 167 (2) के तहत जमानत का हकदार है।

    मामले का विवरण-

    केस का नाम- एक्स बनाम केरल राज्य

    केस नंबर-सीआरएल.एमसी. नंबर 3463/2020

    कोरम-न्यायमूर्ति पीबी सुरेश कुमार

    प्रतिनिधित्व-एडवोकेट सूरज टी इलेनजिकल,स्पेशल जीपी सुमन चक्रवर्ती,एडवोकेट एस राजीव

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