यदि जांच के बाद फाइनल रिपोर्ट में केवल गैर-संज्ञेय अपराध पाया जाता है तो मजिस्ट्रेट ट्रायल आगे बढ़ा सकता है: केरल हाईकोर्ट

Shahadat

24 July 2023 5:50 AM GMT

  • यदि जांच के बाद फाइनल रिपोर्ट में केवल गैर-संज्ञेय अपराध पाया जाता है तो मजिस्ट्रेट ट्रायल आगे बढ़ा सकता है: केरल हाईकोर्ट

    केरल हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि यदि कोई मजिस्ट्रेट संज्ञेय और गैर-संज्ञेय दोनों अपराधों से जुड़ी शिकायत पुलिस को भेजता है और पुलिस जांच में केवल गैर-संज्ञेय अपराध का पता चलता है तो मजिस्ट्रेट कानूनी रूप से उस अपराध के मुकदमे को आगे बढ़ाने के लिए अधिकृत है।

    जस्टिस ए बदरुद्दीन ने दोहराया कि यदि किसी मामले में संज्ञेय और गैर-संज्ञेय दोनों अपराध शामिल हैं तो पुलिस सीआरपीसी की धारा 155 (4) के अनुसार सभी अपराधों के लिए जांच कर सकती है और आरोप पत्र दायर कर सकती है।

    हाईकोर्ट ने कहा,

    "...यदि पुलिस को रिपोर्ट किए गए तथ्य संज्ञेय और गैर-संज्ञेय दोनों अपराधों का खुलासा करते हैं तो पुलिस दोनों अपराधों की जांच में अपने अधिकार के दायरे में काम करेगी, क्योंकि उप-धारा (4) [धारा 155 की] में अधिनियमित कानूनी कथा यह प्रावधान करती है कि उस स्थिति में एक गैर-संज्ञेय मामले को भी संज्ञेय माना जाएगा।"

    कोर्ट ने आगे कहा,

    "चूंकि कानून दिए गए मामले के तथ्यों में तय है। हालांकि मजिस्ट्रेट ने संज्ञेय और गैर-संज्ञेय प्रकृति के अपराधों से जुड़ी शिकायत पुलिस को भेज दी और पुलिस रिपोर्ट दर्ज करती है, जिसमें पाया गया कि गैर-संज्ञेय अपराध किया गया तो मजिस्ट्रेट कानूनी रूप से मुकदमे को आगे बढ़ाने के लिए सशक्त है।"

    वास्तव में शिकायतकर्ता ने मजिस्ट्रेट के समक्ष आईपीसी की धारा 376 और 493 के तहत अपराध का आरोप लगाते हुए याचिकाकर्ता के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई। मजिस्ट्रेट ने शिकायत को जांच के लिए पुलिस को भेजा और जांच अधिकारी ने पाया कि केवल आईपीसी की धारा 493 के तहत अपराध बनाया गया और आरोपी को आईपीसी की धारा 376 के तहत उत्तरदायी ठहराने के लिए कोई सामग्री नहीं है।

    यह तर्क दिया गया कि अदालत पुलिस रिपोर्ट पर कार्रवाई करते हुए आईपीसी की धारा 493 के तहत दंडनीय अपराध का संज्ञान नहीं ले सकती। इस प्रकार याचिकाकर्ता ने न्यायिक प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट कोर्ट, पेरुंबवूर के समक्ष लंबित कार्यवाही रद्द करने की मांग करते हुए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

    याचिकाकर्ता के वकील सी.के. सुरेश और मंसूर बी.एच. ने तर्क दिया कि चूंकि आरोप पत्र में केवल आईपीसी की धारा 493 के तहत अपराध का आरोप लगाया गया, इसलिए अदालत आईपीसी की धारा 198 के तहत रोक के कारण पुलिस रिपोर्ट के आधार पर इस अपराध का संज्ञान नहीं ले सकती। उस आधार पर, यह तर्क दिया गया कि संज्ञान कानून की नजर में खराब है और इसलिए इसे रद्द किया जा सकता है।

    दूसरी ओर, लोक अभियोजक सनल पी राज ने तर्क दिया कि जब संज्ञेय और गैर-संज्ञेय दोनों अपराधों की जांच की जाती है तो ऐसी कोई रोक नहीं है। मामले में वास्तविक शिकायतकर्ता की ओर से एडवोकेट पी. एंटो थॉमस, बाबू चेरुकारा और जीमन जॉन उपस्थित हुए।

    इस प्रकार न्यायालय को पुलिस द्वारा दायर फाइनल रिपोर्ट के कानूनी प्रभाव का निर्धारण करने, संज्ञेय और गैर-संज्ञेय दोनों अपराधों से जुड़े मामले की जांच के बाद गैर-संज्ञेय अपराध का पता लगाने का काम सौंपा गया।

    न्यायाधीश ने याद दिलाया कि सीआरपीसी की धारा 198 में प्रावधान है कि कोई भी अदालत कुछ व्यक्तियों द्वारा की गई शिकायत के अलावा आईपीसी के अध्याय XX के तहत दंडनीय अपराध का संज्ञान नहीं लेगी। इस मामले में शिकायतकर्ता ने उचित अदालत के समक्ष शिकायत दर्ज की, जिसने इसे जांच के लिए पुलिस को भेज दिया, क्योंकि शिकायतकर्ता ने संज्ञेय और गैर-संज्ञेय दोनों अपराधों के कमीशन का आरोप लगाया।

    इसके अलावा, धारा 2(डी) स्पष्ट करती है कि पुलिस अधिकारी द्वारा जांच के बाद गैर-संज्ञेय अपराध का खुलासा करने वाली रिपोर्ट को शिकायत माना जाएगा और रिपोर्ट करने वाले पुलिस अधिकारी को शिकायतकर्ता माना जाएगा।

    न्यायालय ने उड़ीसा राज्य बनाम शरत चंद्र साहू मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भी भरोसा किया, जो स्पष्ट करता है कि यदि किसी मामले में दो या दो से अधिक अपराध शामिल हैं, जिनमें से कम से कम एक संज्ञेय है तो पूरा मामला संज्ञेय माना जाएगा, भले ही कुछ अपराध गैर-संज्ञेय हों, जैसा कि धारा 155(4) में प्रावधान किया गया है।

    इस मामले में सिद्धांत लागू करते हुए न्यायालय ने फैसला सुनाया कि यदि पुलिस को रिपोर्ट किए गए तथ्य संज्ञेय और गैर-संज्ञेय दोनों अपराधों का खुलासा करते हैं तो पुलिस दोनों प्रकार के अपराधों की जांच करने और आरोप पत्र प्रस्तुत करने के लिए अधिकृत है।

    वर्तमान मामले में मजिस्ट्रेट ने दोनों प्रकार के अपराधों से जुड़ी शिकायत पुलिस को भेजी और पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज की, जिसमें पाया गया कि गैर-संज्ञेय अपराध किया गया। इसलिए मजिस्ट्रेट को मुकदमे को आगे बढ़ाने के लिए कानूनी रूप से सशक्त पाया गया।

    तदनुसार याचिका खारिज कर दी गई।

    केस टाइटल: सुमेश बनाम केरल राज्य एवं अन्य

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