यदि कोई समझौता नहीं होता है तो लोक अदालत अपराधों से संबंधित विवादों का निर्णय नहीं कर सकती: बॉम्बे हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

24 Jan 2022 8:40 AM GMT

  • बॉम्बे हाईकोर्ट, मुंबई

    बॉम्बे हाईकोर्ट

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 और बिजली अधिनियम, 2003 के अन्योन्य प्रभावों की व्याख्या की है। कोर्ट ने कहा है, जहां स्थायी लोक अदालत के समक्ष पेश विवाद एक समाधेय (compoundable) अपराध के बराबर हो सकता है, सुलह और समझौते (conciliation and settlement) के उद्देश्य से स्थायी लोक अदालत इस पर विचार कर सकती है, हालांकि अगर सुलह विफल हो जाती है और अगर यह अपराध से संबंधित है तो, अपराध के समाधेय होने के बावजूद भी यह स्थायी लोक अदालत के अधिकार क्षेत्र में नहीं है कि वह मामले को गुण-दोष के आधार पर तय करे।

    बिजली अधिनियम, 2003 की धारा 135 के तहत बिजली चोरी के अपराध से संबंधित एक मामले में यह सवाल आया था। अपीलकर्ता-इलेक्ट्रि‌सिटी बोर्ड ने प्रतिवादी के खिलाफ धारा 135 के तहत मामला दर्ज किया था, उसका मौजूदा मीटर जब्त कर लिया था और उसकी बिजली काट दी थी। उसे जारी किए गए बिल का भुगतान लंबित है। स्थायी लोक अदालत, औरंगाबाद ने अपने फैसले में याचिकाकर्ता को प्रतिवादी को नियमित बिल जारी करने और उसकी बिजली आपूर्ति को डिस्कनेक्ट नहीं करने का निर्देश दिया था। गौरतलब है कि स्थायी लोक अदालत ने कहा था कि प्रतिवादी को जारी बिजली बिल अवैध था, इस आशय का अवॉर्ड पारित करना उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं था।

    अपीलकर्ता-इलेक्ट्रि‌सिटी बोर्ड ने आक्षेपित आदेश के खिलाफ अपील की और तर्क दिया कि स्थायी लोक अदालत ने अपनी निहित शक्तियों को पार कर लिया। यह तर्क दिया गया था कि 1987 अधिनियम की धारा 22 (सी) (8) के मद्देनजर, जहां पक्ष उप-धारा (7) के तहत एक समझौते पर पहुंचने में विफल होते हैं, स्थायी लोक अदालत, यदि विवाद किसी अपराध से संबंधित नहीं है अपराध, विवाद का निर्णय नहीं कर सकता।

    अपीलकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया कि लाइसेंसी निर्धारित राशि जमा करने के बाद बिजली की आपूर्ति बहाल कर सकता है। इसके विपरीत, प्रतिवादी ने तर्क दिया कि 1987 अधिनियम की धारा 22 (सी) (1) एक अपराध, जो कानून में समाधेय नहीं है, से संबंधित मामले को निस्तारित करने के लिए स्थायी लोक अदालत को अधिकार क्षेत्र प्रदान करती है।

    इस सवाल का जवाब देते हुए कि क्या स्थायी लोक अदालत के पास मौजूदा किस्म के विवाद को हल करने का अधिकार है- जहां आवेदक पर बिजली की चोरी का आरोप है और उस पर 2003 के अधिनियम के प्रावधानों के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है- जस्टिस भारती डांगरे द्वारा लिखित निर्णय में कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम की धारा 22 (सी) का अवलोकन किया गया और यह कहा गया कि स्थायी लोक अदालत कंपाउंडेबल अपराधों से संबंधित मामलों के संबंध में अधिकार क्षेत्र का प्रयोग कर सकती है।

    कोर्ट ने कहा,

    "धारा 22 (सी) स्थायी लोक अदालत के अधिकार क्षेत्र को निर्धारित करती है और यह मानती है कि स्थायी लोक अदालत किसी अपराध से संबंधित किसी भी मामले के संबंध में अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करेगी, जो कि किसी भी कानून के तहत कंपाउंडेबल है। उस हद तक आक्षेपित आदेश में स्थायी लोक अदालत के अधिकार क्षेत्र का प्रयोग न्यायोचित प्रतीत होता है क्योंकि इलेक्ट्रि‌सिटी एक्ट के तहत अपराध कंपाउंडेबल हैं।" (पैरा 11)

    कोर्ट ने कहा, हालांकि समान रूप से यह महत्वपूर्ण है कि स्थायी लोक अदालत के लिए यह अनिवार्य है कि वह एक निर्णायक प्राधिकारी की भूमिका ग्रहण करने से पहले सुलह की कार्यवाही शुरू करने का प्रयास करे। कोर्ट ने नोट किया कि जब पार्टियां सुलह के प्रयास पर एक समझौते पर पहुंचने में विफल रहती हैं, और यदि विवाद किसी अपराध से संबंधित नहीं है तो स्थायी लोक अदालत विवाद का फैसला करने के लिए आगे बढ़ेगी।

    मौजूदा मामले के संदर्भ में धारा 22 (सी) के महत्व की व्याख्या करने के बाद कोर्ट ने नोट किया कि इलेक्ट्रि‌सिटी अधिनियम की धारा 135 के तहत अपराध कंपाउंडेबल हैं और इस प्रकार लोक अदालत के पास अपराध, जो कंपाउंडेबल है, के संबंध में आवेदन पर विचार करने का अधिकार क्षेत्र होगा। कोर्ट ने कहा, चूंकि मामले में सुलह के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया था, स्थायी लोक अदालत के पास विवाद पर निर्णय पारित करने का कोई अधिकार नहीं था क्योंकि यह "अपराध" से संबंधित था।

    न्यायालय ने दक्षिण हरियाणा बिजली वितरण निगम लिमिटेड और अन्य बनाम स्थायी लोक अदालत, पब्‍ल्‍कि यूटिलीटी सर्व‌िसेज़, गुड़गांव और अन्य में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के निर्णय पर भी भरोसा किया, जहां यह माना गया था कि लोक अदालत ने बिजली अधिनियम की धारा 154 के तहत एक मामले को तय करने में गलती से अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग किया था।

    तद्नुसार, न्यायालय ने स्थायी लोक अदालत, औरंगाबाद के आक्षेपित निर्णय को रद्द कर दिया।

    केस टाइटल: महाराष्ट्र स्टेट इलेक्ट्रि‌सिटी डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी लिमिटेड बनाम बद्रीनाथ पेमा राठौड़

    कोरम: जस्टिस भारती डांगरे

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