केरल हाईकोर्ट ने रद्द की न्यायिक अधिकारी की अनिवार्य सेवानिवृत्ति के खिलाफ दायर याचिका
LiveLaw News Network
25 Feb 2020 12:45 PM GMT
मामले में याचिकाकर्ता वी जयकुमार को केरल न्यायिक सेवा नियम 1991 के नियम 13 ए के तहत अनिवार्य रूप से सेवानिवृत्त किया गया था।
केरल हाईकोर्ट ने कहा है कि यदि असंतोषजनक आचरण के पर्याप्त सबूत उपलब्ध हों तो न्यायिक अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई में हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश नहीं है। कोर्ट ने कहा, "न्यायिक समीक्षा के रूप में हस्तक्षेप तभी संभव हो जब कार्रवाई एकपक्षीय, स्वैच्छिक, दुर्भावनार्ण हो या किसी महत्वपूर्ण सामग्री को नजरअंदाज किया गया हो।"
मामले में याचिकाकर्ता वी जयकुमार, पूर्व न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी, पठानमथिट्टा, को केरल न्यायिक सेवा नियम 1991 के नियम 13 ए के तहत अनिवार्य रूप से सेवानिवृत्त किया गया था। अनिवार्य सेवानिवृत्ति की कार्रवाई जयकुमार के सर्विस रिकॉर्ड के मूल्यांकन के बाद की गई थी। उस समय उनकी उम्र 50 साल थी।
जस्टिस के विनोद चंद्रन और जस्टिस वीजी अरुण की खंडपीठ ने कहा कि अनिवार्य सेवानिवृत्ति का आदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली न्यायाधीशों की समिति ने दिया था। उक्त समिति ने याचिकाकर्ता को न्यायिक अधिकारी के रूप में अपने पद पर बने रहने का पात्र नहीं पाया था। उनके प्रदर्शन के मूल्यांकन के आधार पर आदेश दिया था।
वहीं, याचिकाकर्ता के वकील ने केरल न्यायिक सेवा नियम 1991 के नियम 13 ए के तहत जारी अनिवार्य सेवानिवृत्ति के आदेश के खिलाफ कई दलीलें पेश कीं। उन्होंने कहा कि केरल सर्विस रूल्स (केएसआर) का रूल 60 (एए) न्यायिक अधिकारियों की सेवानिवृत्ति से संबंधित है। ये न्यायिक अधिकारियों को 58 साल की उम्र में सेवानिवृत्त होने के विकल्प के साथ केवल 60 साल की उम्र में सेवानिवृत्ति का आदेश देता है।
याचिका में प्रतिवाद किया गया था कि सेवा में निरंतरता, जो कि केरल सेवा नियमों के अनुसार उच्च न्यायालय की समीक्षा के अधीन हो सकती है, केवल 50 वर्ष की आयु से आगे की निरंतर हो सकती है।
याचिकाकर्ता की अन्य दो दलीलें थी कि कथित अपराध के संबंध में उसे कोई भी सामग्री नहीं दी गई, जिसके कारण उसे 50 साल की उम्र के बाद सेवा जारी रखने का पात्र नहीं पाया गया। दूसरी दलील अनिवार्य सेवानिवृत्ति के आदेश के बाद, एक समीक्षा में प्रतिकूल टिप्पणियों के बारे में थी ।
अदालत ने मामले में पहले याचिकाकर्ता के उस तर्क पर बात की कि नियम 13 ए, KSR भाग एक के नियम 66 (एए) के कारण प्रवर्तनीय नहीं है, उपयुक्त रूप से संशोधित नहीं किया गया है। कोर्ट ने माया मैथ्यू बनाम केरल राज्य के सुप्रीम कोर्ट के मामले पर भरोसा करने के साथ-साथ Generaliabus Specialia दरोगांत के सिद्धांत पर भरोसा किया।
कोर्ट ने कहा,
"KSR एक सामान्य नियम है, जबकि 1991 का नियम विशेष नियम है। यह राज्य की न्यायिक सेवा पर लागू होता है।"
याचिकाकर्ता की फाइलों की जांच करते हुए, अदालत ने पाया कि उन्हें उचित सुनवाई के बिना और सहायक लोक अभियोजक को नोटिस दिए बिना धारा 239 Cr.PCके तहत आपराधिक मामलों में अभियुक्तों को बरी करने की आदत में थी। यह भी पाया गया कि धारा 498Aआईपीसी के तहत मामलों में बिना कारण रिकॉर्ड किए, एक जैसे आदेश दिए गए थे।
अदालत ने यह भी पाया कि याचिकाकर्ता ने मुन्सिफ-मजिस्ट्रेट के रूप में काम करते हुए सिविल मामलों में फैसला देने से परहेज किया और उन्हें किसी ना किसी कारण से टाल दिया। अदालत ने टिप्पणी की कि याचिकाकर्ता का एकमात्र स्पष्टीकरण यह था कि वह सिविल मामलों को पहली बार देख रहे थे।
इन उदाहरणों के अलावा अदालत ने कई अन्य उदाहरणों पर भी ध्यान दिया, जहां याचिकाकर्ता अपने काम में उदासीन और असंवेदनशील पाए गए थे।
"न्यायाधीशों की समिति ने अधिकारी के खिलाफ़, बिना गवाहों को सुने और जांच किए मामलों का निस्तारण फटाफट करने की शिकायतों को विशेष रूप से सुना।"
डिवीजन बेंच ने राम मूर्ति यादव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया, जिसमें कोर्ट ने न्यायिक समीक्षा के सीमित दायरे को सीमित पाया था, जबकि अनिवार्य सेवानिवृत्ति का आदेश नियोक्ता के व्यक्तिपरक संतुष्टि पर आधारित हो। उपरोक्त मामले पर भरोसा करते हुए अदालत ने कहा,
"हमें नहीं लगता कि मामले में हस्तक्षेप के लिए गुंजाइश है ... न्यायिक समीक्षा के रूप में हस्तक्षेप तभी संभव था, जब कार्रवाई एकपक्षीय, स्वैच्छिक, दुर्भावनार्ण हो या किसी महत्पणूर्ण सामग्री को नजरअंदाज किया गया होता।"
अदालत ने राजेंद्र सिंह वर्मा बनाम उपराज्यपाल (एनसीटी ऑफ दिल्ली) के फैसले पर भी भरोसा किया, जहां सुप्रीम कोर्ट कहा था कि यदि हाईकोर्ट की फुल कोर्ट अधिकारी की अनिवार्य सेवानिवृत्ति को मान्यता दे चुकी है तो न्यायिक समीक्षा का प्रयोग सावधानी के साथ किया जाना चाहिए।
अदालत ने रिट याचिका को खारिज करते हुए आदेश दिया कि याचिकाकर्ता को नोटिस पीरियड के तीन महीनों के वेतन को काटकर, अनिवार्य सेवानवृत्ति की तारीख (01.08.2010) से राज्यपाल के आदेश (11.10.2011) तक के पूरे वेतन और भत्ते का भुगतान किया जाए।
जजमेंट डाउनलोड करने के लिए क्लिक करें