व्यक्तिगत अधिकारों को राष्ट्रीय हित को संरक्षित करना चाहिए': केरल उच्च न्यायालय ने UAPA मामले में पत्रकारिता के छात्र की जमानत रद्द की

LiveLaw News Network

5 Jan 2021 4:00 AM GMT

  • व्यक्तिगत अधिकारों को राष्ट्रीय हित को संरक्षित करना चाहिए: केरल उच्च न्यायालय ने UAPA मामले में पत्रकारिता के छात्र की जमानत रद्द की

    केरल हाईकोर्ट

    "व्यक्तिगत अधिकारों को राष्ट्रीय हितों का संरक्षण करना चाहिए।" केरला हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी यूएपीए के एक मामले में क‌थ‌ित माओवादी लिंक के आरोप में गिरफ्तार थ्वाहा फसल को विशेष एनआईए कोर्ट, कोच्चि द्वारा जमानत देने के आदेश को रद्द करते हुए की है।

    ज‌स्ट‌िस ए हरिप्रसाद और के हरिपाल की खंडपीठ ने कहा कि जब व्यक्तिगत अधिकारों को राष्ट्रीय हितों और सुरक्षा के खिलाफ खड़ा किया जाता है, तो राष्ट्रीय हितों और सुरक्षा को प्रमुखता दी जानी चाहिए। अदालत ने कहा है कि अभियुक्तों के पास से बरामद दस्तावेजों में अलगाववादी विचारधारा के बीज हैं।

    पिछले साल सितंबर में एनआईए कोर्ट ने, आरोपियों को हिरासत के लगभग दस महीने बाद जमानत दी थी। कोर्ट ने कहा था कि राष्ट्रीय जांच एजेंसी आरोप‌ियों के खिलाफ गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए), 1967 के तहत प्रथम दृष्टया मामला स्थापित करने में विफल रही है।

    यूनियन ऑफ इंडिया द्वारा दायर अपील पर विचार करते हुए, पीठ ने यूएपीए अधिनियम के प्रावधानों का उल्लेख किया और कहा कि यदि यह समझने के लिए सामग्री है कि आरोपियों ने किसी आतंकवादी संगठन की गतिविधियों को बढ़ावा देने या उत्साहित करने के लिए कुछ किया है या उसकी गतिविधियों को आगे बढ़ाने के इरादे से उसका समर्थन करते हुए कुछ किया है, तो यह अपराधों लागू होंगे।

    कोर्ट ने कहा, "जब भी अधिनियम के अध्याय IV और VI के तहत दिए किसी अपराध का अरोप किसी आरोपी पर लगता है तो केस डायरी या अंतिम रिपोर्ट के अवलोकन के बाद, कि यह मानने के लिए उचित आधार हैं कि उक्त व्यक्ति के खिलाफ आरोप प्रथम दृष्टया सच हैं, अधिनियम अदालत को उसे जमानत पर रिहा करने से रोक देता है।"

    पीठ ने यह भी कहा कि विशेष जज ने अभियोजन पक्ष की ओर से पेश दस्तावेजों का पूरी तरह पिटा-पिटाया विश्लेषण किया था।

    पीठ ने कहा, "हम विशेष जज द्वारा लिए गए दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करते हैं। उनका दृढ़ दृष्टिकोण है...कि जमानत नियम और जेल अपवाद है। भले ही यह सामान्य धारणा, सामान्य अपराधों में लागू हो, मगर जब अभियुक्त विशेष अधिनियम के तहत आरोप का सामना करता है, तब जमानत का उसक अधिकार, विशेष कानून के प्रावधानों द्वारा नियंत्रित किया जाएगा। ऐसे मामलों में, संहिता के तहत प्रावधानों को आसानी से लागू नहीं किया जा सकता है। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, अधिनियम की धारा 43-डी (5), संहिता के प्रावधानों का एक अपवाद है, जो संहिता के कुछ प्रावधानों के संशोधित अनुप्रयोगों को स्वयं सिद्ध मान लेता है....। जब अधिनियम के अध्याय IV और VI के तहत अपराध का आरोप लगाया जाता है, तो अदालत को जमानत नहीं देनी चाहिए, जब तक अभियोजक को अदालत को संबोधित करने की स्वतंत्रता नहीं दी जाती है।

    इसके अलावा, धारा 43-डी (5) के प्रावधान जमानत देने के मामले में अदालत पर एक वैधानिक निषेधाज्ञा के रूप में काम करता है; यदि यह विश्वास करने के लिए प्रथम दृष्टया परिस्थितियां हैं कि आरोप सत्य हैं तो नियम के रूप में जमानत नहीं दी जा सकती है; वटाली में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने ने कहा है कि जमानत आवेदन पर विचार करते समय अदालत के सामने रखी गई सामग्रियों को कैसे समझा जाना चाहिए।"

    पीठ ने आगे कहा कि, जमानत नियम है और जेल अपवाद है, यह सिद्धांत इस प्रकार के मामलों में लागू नहीं होगा, विशेषकर जब आरोपियों के ख‌िलाफ अधिनियम के अध्याय IV और VI के तहत अपराध आरोपित हैं। अदालत ने कहा कि इस बात को नजरअंदाज करें कि अभियुक्तों के पास ऐसा साहित्य या लेखन था, जिसे सीपीआई (माओवादी) ने प्रकाशित किया था, जो कि एक प्रतिबंध‌ित, अंडरवर्ल्ड संगठन है।

    कोर्ट ने कहा, "अगर वे, युवा के रूप में नई और नवेली विचारधाराओं को समझने और आत्मसात करने में रुचि रखते थे, तो उनके पास से मात्र किसी एक विशेष संगठन की सामग्री नहीं पाई जाती। आपराधिक मनःस्थिति के तत्व को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। यह कहने के लिए, कम से कम इस स्तर पर परिस्‍थ‌ित‌ियां पर्याप्त हैं कि वे कि वे संगठन में प्रमुख भूमिका में थे।"

    थ्‍वाहा को दी गई जमानत को रद्द करते हुए कोर्ट ने कहा, "यह भी कहा जाना चाहिए कि विद्वान विशेष न्यायाधीश ने कई अथॅरिटीज़ पर संदर्भ से बाहर भरोसा किया था। इस सवाल पर विचार करते हुए कि क्या अधिनियम की धारा 38 और 39 के तहत यह समझने के लिए प्रथम दृष्टया सामग्री कि अपराध किया गया है, अदालत पूछताछ के क्षेत्र तक ही सीमित रहना चाहिए था। इसमें कोई संदेह नहीं है कि अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पवित्र हैं। न्यायालय इसकी रक्षा करने के लिए बाध्य हैं। इसी समय, व्यक्तिगत अधिकारों को राष्ट्रीय हित का संरक्षण करना चाहिए। जब व्यक्तिगत अधिकारों को राष्ट्रीय हितों और सुरक्षा के खिलाफ खड़ा किया जाता है, तो राष्ट्रीय हितों और सुरक्षा को प्रमुखता दी जानी चाहिए।"

    हालांकि, पीठ ने एक अन्य आरोपी एलन शुएब को दी गई जमानत को रद्द नहीं किया। कोर्ट ने कहा कि उसके पक्ष में कई विषम परिस्थितियां हैं। पीठ ने विशेष अदालत को एक वर्ष के भीतर लंबित मामले के निस्तारण का प्रयास करने का निर्देश दिया ।

    पीठ ने कहा, "हम विद्वान जज को यह भी याद दिलाना चाहते हैं कि उक्त आदेश को ऐसे तैयार किया गया है जैसे कि यह एक कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड है, जो अनावश्यक था। इसी प्रकार, विद्वान जज ने सुप्रीम कोर्ट के कुछ निर्णयों को उद्धृत करते हुए कहा है, माननीय न्यायाधीशों के नाम दिए है, जिन्होंने उन्हें लिखा था, हैं, वह बेकार है।"

    केस: यून‌ियन ऑफ इंडिया बनाम थ्वाहा फसल [CRL.A.No.705,706 of 2020]

    कोरम: जस्टिस ए हरिप्रसाद और के हरिपाल

    प्र‌तिनिधि: एएसजी पी विजय कुमार, एडवोकेट केएस मधुसूदन, और एडवाकेट एस राजीव

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