मजिस्ट्रेट को सात साल से कम कारावास वाले दंडनीय अपराधों में हिरासत में लेने की अनुमति लापरवाहीपूर्वक नहीं देनी चाहिए: गुजरात हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

20 Sep 2022 6:23 AM GMT

  • गुजरात हाईकोर्ट

    गुजरात हाईकोर्ट

    गुजरात हाईकोर्ट ने एक बार फिर कहा है कि जिस अपराध के लिए जुर्माना के साथ या इसके बिना सात साल से कम या अधिकतम सात साल के कारावास की सजा का प्रावधान है, उसमें पुलिस अधिकारियों को अभियुक्तों को अनावश्यक रूप से गिरफ्तार नहीं करना चाहिए और मजिस्ट्रेट को आकस्मिक और यंत्रवत् हिरासत की मंजूरी नहीं देनी चाहिए।

    जस्टिस एसी जोशी की बेंच ने आईपीसी की धारा 406, 420 और 120-बी के अपराधों के आरोपी प्रतिवादियों को दी गई जमानत रद्द करने से इनकार कर दिया। इन अपराधों के लिए अधिकतम सजा सात साल थी। इसके अतिरिक्त, सिंगल जज बेंच ने कहा कि प्रतिवादियों ने जमानत की किसी भी शर्त का उल्लंघन नहीं किया है।

    पीठ सीआरपीसी की धारा 439(2) के तहत दायर अर्जियों पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें सत्र अदालत द्वारा प्रतिवादी संख्या 2 को दी गई जमानत को रद्द करने की मांग की गई थी।

    शिकायतकर्ता ने जोर देकर कहा था कि प्रतिवादी संख्या-2 पर 35 लाख रुपये की धोखाधड़ी और विश्वासघात के गंभीर अपराधों के लिए मुकदमा चलाया गया था और फिर भी प्रथम दृष्टया मामला होने के बावजूद अग्रिम जमानत दी गई थी। सबूतों के साथ छेड़छाड़ किये जाने और मामले को बाधित करने की भी आशंका थी।

    इन दलीलों का जवाब देते हुए, जस्टिस जोशी ने 'अर्नेश कुमार बनाम बिहार सरकार' मामले में दिये गये फैसले पर व्यापक रूप से भरोसा जताया, जहां शीर्ष अदालत ने कहा था:

    ''इस फैसले में हमारा प्रयास यह सुनिश्चित करना है कि पुलिस अधिकारी अभियुक्तों को अनावश्यक रूप से गिरफ्तार न करें और मजिस्ट्रेट लापरवाही और यंत्रवत् हिरासत की मंजूरी न दें ..।"

    हाईकोर्ट ने 'विवेकानंद मिश्रा बनाम यू.पी. सरकार एवं अन्य' के फैसले का भी उल्लेख किया, जहां शीर्ष अदालत ने निम्नलिखित दिशानिर्देश निर्धारित किए थे:

    जमानत देते समय, कोर्ट को आरोपों की प्रकृति और सजा की गंभीरता को ध्यान में रखना होगा और यदि आरोप में दोषसिद्धि होती है तो आरोपों के समर्थन में साक्ष्य की प्रकृति और गवाह से छेड़छाड़ की उचित आशंकाओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए।

    आरोप के समर्थन में कोर्ट की प्रथम दृष्टया संतुष्टि जरूरी है।

    अभियोजन में लापरवाही पर हमेशा विचार किया जाना चाहिए और जमानत देने में वास्तविकता के तत्व पर विचार किया जाना चाहिए।

    'संजय चंद्र बनाम सीबीआई' मामले में दिये गये फैसला पर भरोसा जताते हुए जमानत मंजूर करते समय एक कारक के रूप में 'आरोप की गंभीरता' को पहचानने पर विशेष जोर दिया गया था। हाईकोर्ट ने इस सिद्धांत को भी दोहराया कि एक बार जमानत मिल जाने के बाद, अपीलीय कोर्ट आमतौर पर उसमें हस्तक्षेप करने में परहेज करता है, क्योंकि यह किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता से संबंधित है।

    इन कारकों को ध्यान में रखते हुए, हाईकोर्ट ने पाया कि प्रतिवादियों की समाज अच्छी खासी प्रतिष्ठा थी और उनके न्याय से भागने की संभावना नहीं थी।

    ऐसे में जमानत रद्द करने की अर्जी खारिज कर दी गई।

    केस नंबर: आर/सीआर.एमए/12390/2022

    केस शीर्षक: कामुबेन सोमाजी भवजी ठाकोर बनाम गुजरात सरकार



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