'निर्णय में त्रुटि कदाचार नहीं': नियोक्ता की ओर से 'अस्वीकार्य' लोक अदालत समझौता करने के लिए कर्मचारी को बर्खास्त करने पर गुजरात हाईकोर्ट ने कहा

Avanish Pathak

15 Sep 2023 6:56 AM GMT

  • निर्णय में त्रुटि कदाचार नहीं: नियोक्ता की ओर से अस्वीकार्य लोक अदालत समझौता करने के लिए कर्मचारी को बर्खास्त करने पर गुजरात हाईकोर्ट ने कहा

    गुजरात हाईकोर्ट ने एक फैसले में कहा है कि लोक अदालत में सेटलमेंट क्लेम पर हस्ताक्षर करना कदाचार की श्रेणी में नहीं आता है।

    कोर्ट ने स्पष्ट किया, भले ही किसी कर्मचारी के कार्य निर्णय में त्रुटि या कर्तव्यों में लापरवाही प्रतीत होते हों, लेकिन ऐसे कार्य तब तक कदाचार नहीं माने जाएंगे, जब तक कि कंपनी यह न दिखा सके कि उन्हें उन कार्यों से अपूरणीय क्षति हुई है।

    कोर्ट ने इस प्रकार ऐसे मामलों में लापरवाही की गंभीरता को स्थापित करने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।

    चीफ जस्टिस सुनीता अग्रवाल और जस्टिस एनवी अंजारिया की खंडपीठ ने कहा,

    “यह याचिकाकर्ता की ओर से अपने कर्तव्य के निर्वहन में निर्णय की त्रुटि या लापरवाही का मामला हो सकता है लेकिन यह स्वयं कदाचार नहीं होगा, क्योंकि यह अपीलकर्ता - कंपनी द्वारा दिखाया या स्थापित नहीं किया गया है कि अपीलकर्ता के उक्त कृत्य से कंपनी को अपूरणीय क्षति हुई है, जिससे लापरवाही की गंभीरता का संकेत मिलता हो।

    पीठ ने कहा,

    “विद्वान एकल न्यायाधीश के निर्णय में किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है। अपीलकर्ता कंपनी द्वारा दायर की गई अपील लेटर्स पेटेंट अपील संख्या 1114/2022 है, को योग्यता से रहित होने के कारण खारिज किया जाता है।

    मामला

    अदालत दो संबंधित अपीलों पर विचार कर रही थी।

    पहली अपील बीमा कंपनी ने एक फैसले और आदेश के खिलाफ दायर की थी, जिसके तहत याचिकाकर्ता की सेवा से बर्खास्तगी को पलट दिया गया था और उन्हें सभी संबंधित लाभों का हकदार बना दिया गया था। फैसले में बर्खास्तगी को ऐसे माना गया था जैसे कि यह कभी हुई ही नहीं थी।

    याचिकाकर्ता द्वारा दायर की गई दूसरी अपील, पूरी तरह से बर्खास्तगी आदेश के रद्द होने और उसके बाद की अपील की पुष्टि के बाद पेंशन और अन्य लाभों पर ब्याज के लिए उनके दावे की अस्वीकृति को चुनौती देने पर केंद्रित थी।

    मामले में आरोप यह था कि वरिष्ठ मंडल प्रबंधक के रूप में कार्यरत याचिकाकर्ता ने 2014-15 में कथित तौर पर गुप्त उद्देश्यों के साथ लोक अदालत में 10 दावों का निपटारा किया था। आरोपों में ईमानदारी की कमी, कंपनी के हितों के खिलाफ काम करना और अनियमित सेटलमेंट प्रैक्टिस के आरोप शामिल थे। दावा किया गया कि इन सेटलमेंट से कंपनी को 66,81,105 रुपये का घाटा हुआ।

    जांच रिपोर्ट में नोट किया गया था कि याचिकाकर्ता की भूमिका समझौता दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने की थी, लेकिन ऐसा कोई आरोप नहीं था कि निर्णय केवल उसके थे। रिपोर्ट में निपटान प्रक्रिया की सहयोगात्मक प्रकृति पर भी प्रकाश डाला गया और गलत इरादों या गुप्त उद्देश्यों के आरोपों का समर्थन करने के लिए सबूत भी अपर्याप्त पाए गए।

    सिंगल जज ने अपने निष्कर्षों में इस बात पर जोर दिया कि एक टीम के भीतर किए गए कार्यों के लिए अकेले याचिकाकर्ता को दंडित करना उत्पीड़न के समान है। एकल न्यायाधीश ने निष्कर्ष निकाला कि समझौता गलत इरादों या गुप्त उद्देश्यों से नहीं किया गया था, और याचिकाकर्ता द्वारा व्यक्तिगत लाभ का संकेत देने वाला कोई आरोप नहीं था।

    सिंगल जज के निष्कर्षों की समीक्षा करने के बाद, डिवीजन बेंच ने राय दी कि अपीलकर्ता कंपनी के वकील उनमें से किसी भी निष्कर्ष को सफलतापूर्वक चुनौती देने में विफल रहे। न्यायालय ने निपटान प्रक्रिया की सहयोगात्मक प्रकृति पर जोर देते हुए कहा कि आरोपों में गलत इरादे या अनुचित वित्तीय लाभ के आरोप शामिल नहीं हैं।

    अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि दावों को निपटाने में याचिकाकर्ता एकमात्र निर्णय लेने वाला नहीं था और दावों की योग्यता का आकलन करने के लिए विभिन्न हितधारकों को शामिल करते हुए एक बातचीत प्रक्रिया का पालन किया गया था।

    अदालत ने आगे स्वीकार किया कि कुछ मामलों में, कंपनी ने लंबे और महंगे अदालती विवादों से बचने के लिए दावों का निपटान करने का विकल्प चुना, यह सुझाव देते हुए कि याचिकाकर्ता की ओर से किसी भी संभावित गलत काम को, अधिक से अधिक, निर्णय में त्रुटि या लापरवाही के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।

    याचिकाकर्ता की भूमिका के संबंध में, अदालत ने जोर देकर कहा कि यह कानूनी विभाग द्वारा प्रस्तुत निपटान प्रस्तावों का समर्थन करने तक सीमित थी।

    कंपनी की कानून अधिकारी सुश्री शिप्रा तंवर, पीनल एडवोकेट्स और दावेदार के वकीलों के बीच परामर्श के जर‌िए समझौते का मसौदा तैयार किया गया था, जिसमें याचिकाकर्ता की ओर से गलत इरादे का कोई संकेत नहीं था।

    इसके अलावा, न्यायालय ने कहा कि कंपनी ने लोक अदालत द्वारा निपटाए गए दावों के लिए न्यायालय में कोई रिव्यू दायर नहीं की, जिसे कंपनी ने कानूनी रूप से अस्वीकार्य माना, और अनुशासनात्मक कार्यवाही में दुर्भावना का कोई आरोप नहीं लगाया गया।

    याचिकाकर्ता द्वारा दायर क्रॉस-अपील के संबंध में, अदालत ने स्वीकार किया कि याचिकाकर्ता 31 मार्च, 2016 को रिटायरमेंट की आयु तक पहुंचने पर रिटायर हो गया था, और हालांकि उसकी पेंशन निर्धारित की गई थी, लेकिन अनुशासनात्मक कार्यवाई के कारण उसकी ग्रेच्युटी रोक दी गई। इसके बाद बर्खास्तगी आदेश जारी होने के बाद फरवरी 2019 से पेंशन रोक दी गई।

    इस प्रकार कोर्ट ने अपील का निस्तारण करते हुए कहा,

    “इसलिए, हम निर्देश देते हैं कि सभी रिट याचिकाकर्ता को, इस आदेश की कॉपी की सक्षम प्राधिकारी के समक्ष तामील की तारीख से दो महीने की अवधि के भीतर, यह मानते हुए कि उसकी सेवा से बर्खास्तगी नहीं हुई थी, सभी पर‌िणामी लाभ, रोके गए या काटे गए सेवानिवृत्ति लाभ, उसे दिए जाएंगे। सभी लंबित देय राशि पर रोक लगाने की तारीख से लेकर भुगतान की वास्तविक तारीख तक वर्तमान बैंक दर पर साधारण ब्याज लगेगा।

    केस टाइटल: द न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम चंद्रकांत गोकलभाई पटेल

    केस नंबर: आर/लेटर्स पेटेंट अपील नंबर 1114/2022

    लाइव लॉ साइटेशन: 2023 लाइवलॉ (गुजरात) 151

    फैसला पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें


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