आपराधिक मामले में बरी करने से विभागीय कार्यवाही प्रभावित नहीं होती, जब तक कि बरी करना 'साफ या सम्मानजनक' न हो: आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट

Avanish Pathak

30 Aug 2023 4:49 PM IST

  • आपराधिक मामले में बरी करने से विभागीय कार्यवाही प्रभावित नहीं होती, जब तक कि बरी करना साफ या सम्मानजनक न हो: आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट

    आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने हाल ही में माना कि आपराधिक कार्यवाही में बरी करने के आदेश का विभागीय कार्यवाही पर कोई असर नहीं होगा जब तक कि बरी करना साफ-सुथरा या सम्मानजनक न हो। जस्टिस रविनाथ तिलहरी और जस्टिस मनमाधा राव की खंडपीठ आंध्र प्रदेश प्रशासनिक न्यायाधिकरण (एपीएटी) के एक आदेश के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई कर रही थी।

    याचिकाकर्ता ने खुद को जिला रजिस्ट्रार कार्यालय में कनिष्ठ सहायक के पद पर वापस बहाल कराने के लिए एपीएटी के समक्ष आवेदन किया था, जिसे खरिज कर दिया गया था।

    कोर्ट ने फैसले में कहा,

    "हमारा विचार है कि याचिकाकर्ता को तकनीकी आधार पर बरी किया गया है। दस्तावेज़ का फर्जी या नकली साबित ना कर पाने के कारण यह माना गया कि अभियोजन पक्ष ने आरोप को उचित संदेह से परे साबित नहीं किया है। हमारे विचार में, इस तरह का बरी होना, साफ-सुथरा बरी होना या सम्मानजनक बरी होना नहीं होगा।"

    1992 में जब याचिकाकर्ता को रजिस्ट्रार कार्यालय में परिचारक के पद से कनिष्ठ सहायक के पद पर पदोन्नत किया गया तो यह पाया गया कि याचिकाकर्ता ने जो मैट्रिकुलेशन प्रमाणपत्र प्रस्तुत किया था वह गलत था। याचिकाकर्ता को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया गया और वेतन वृद्धि भी अस्वीकृत कर दी गई।

    इसके बाद, एक विभागीय जांच की गई और जांच में यह निष्कर्ष निकला कि प्रमाणपत्र ओरिजनल नहीं था। याचिकाकर्ता को अपने मामले की पैरवी करने का मौका दिया गया और उसकी सुनवाई के बाद 1994 में महानिरीक्षक पंजीकरण और स्टाम्प ने उसे सेवा से हटा दिया।

    याचिकाकर्ता के खिलाफ आईपीसी की धारा 471 के तहत एक आपराधिक मामला भी शुरू किया गया, जिसमें उसे ट्रायल कोर्ट में दोषी ठहराया गया था, जब कि बाद में अपील में वह बरी हो गया। बरी होने पर, याचिकाकर्ता ने संबंधित विभाग के समक्ष बहाली के लिए एक आवेदन दायर किया और उसी राहत की मांग करते हुए एपीएटी के समक्ष भी एक आवेदन दायर किया, हालांकि, दोनों आवेदनों को अस्वीकार कर दिया गया।

    न्यायालय के समक्ष उठाए गए मुद्दे थे कि क्या महानिरीक्षक के पास सजा बढ़ाने का अधिकार था, क्या याचिकाकर्ता बरी होने के बाद बहाली का हकदार था, और क्या सजा उचित थी।

    न्यायालय ने आंध्र प्रदेश सिविल सेवा (वर्गीकरण, नियंत्रण और अपील) नियम, 1991 के नियम 40 का उल्लेख करने के बाद माना कि निरीक्षक को सजा बढ़ाने का अधिकार है, बशर्ते कि संबंधित सरकारी कर्मचारी को निष्पक्ष सुनवाई का मौका दिया जाए, जो कि वर्तमान मामले में वह था।

    याचिकाकर्ता ने यह भी तर्क दिया कि एक बार जब वह आपराधिक मामले में बरी हो गया तो सेवा से हटाने का आधार नहीं रह गया और इसलिए उसे उचित पद पर बहाल किया जाना चाहिए।

    पीठ ने एपीएटी की ओर से पारित फैसले का हवाला दिया और कहा कि ट्रिब्यूनल ने याचिकाकर्ता को तकनीकी आधार पर बरी कर दिया था क्योंकि अभियोजन पक्ष उचित संदेह से परे अपने मामले को स्थापित नहीं कर सका था, न कि इसलिए कि यह एक सम्मानजनक बरी था।

    अदालत ने आगे कहा कि याचिकाकर्ता के कॉलेज की ओर से प्रस्तुत रिकॉर्ड से पता चलता है कि, उसने अपनी मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण नहीं की थी।

    एस भास्कर रेड्डी और अन्य बनाम पुलिस अधीक्षक और अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट की ओर से पारित फैसले की सराहना करते हुए, न्यायालय ने उचित संदेह से परे मामला बनाने में अभियोजन पक्ष की विफलता से उत्पन्न एक सम्मानजनक बरी और बरी के बीच अंतर पर ध्यान दिया।

    कोर्ट ने कहा,

    "यह सटीक रूप से परिभाषित करना मुश्किल है कि "सम्मानपूर्वक बरी" का क्या मतलब है।

    जब अभियोजन पक्ष के सबूतों पर पूरी तरह विचार करने के बाद आरोपी को बरी कर दिया जाता है और अभियोजन पक्ष आरोपी के खिलाफ लगाए गए आरोपों को साबित करने में बुरी तरह विफल रहा है, तो संभवतः यह कहा जा सकता है कि आरोपी को बाइज्जत बरी कर दिया गया।”

    यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य बनाम मेथु मेडा पर भरोसा करते हुए कहा गया कि नियोक्ता को यह विवेकाधिकार दिया जाना चाहिए कि कर्मचारी को बरी किए जाने की प्रकृति के आधार पर बहाल किया जाना चाहिए या नहीं।

    न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि विभागीय जांच की तुलना आपराधिक मुकदमे से नहीं की जा सकती। इसमें कहा गया है कि, विभागीय जांच संभावनाओं पर आधारित है, और याचिकाकर्ता ने जाली प्रमाणपत्र जमा करने की कार्यवाही में दया की गुहार लगाई थी।

    कोर्ट ने कहा,

    "परिणामस्वरूप, हमारा विचार है कि याचिकाकर्ता के आपराधिक अपील में बरी होने से, सबूतों की प्रमुखता पर विभागीय कार्यवाही में दर्ज निष्कर्ष को देखते हुए, विभागीय कार्यवाही में सजा के आदेश को प्रभावित नहीं किया जाएगा।"

    पीठ ने अंततः कहा कि आरोप की प्रकृति को देखते हुए, सेवा से हटाने की सजा 'असंगत' नहीं है और इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।

    केस टाइटल: कोल्लीपारा कोटेश्वर राव (मृत) बनाम पंजीकरण महानिरीक्षक और अन्य।

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