जमानत आवेदनों पर फैसला करते समय मुकदमे की सुनवाई में देरी एक महत्वपूर्ण विचार: गुजरात हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

9 March 2022 10:30 AM GMT

  • जमानत आवेदनों पर फैसला करते समय मुकदमे की सुनवाई में देरी एक महत्वपूर्ण विचार: गुजरात हाईकोर्ट

    Gujarat High Court

    गुजरात हाईकोर्ट ने पुष्टि की है कि "जमानत आवेदनों पर निर्णय लेने में एक महत्वपूर्ण कारक जिसे निश्चित रूप से अदालत द्वारा ध्यान में रखा जाना चाहिए, वह है मुकदमे के समापन में ‌विलंब।"

    उक्त टिप्‍पणियों के साथ जस्टिस गीता गोपी की खंडपीठ ने केंद्रीय माल और सेवा अधिनियम, 2017 के तहत एक आरोपी को जमानत दे दी।

    कोर्ट ने कहा,

    "यहां विभाग की ओर से अपनाई गई जांच की प्रक्रिया ओर इस प्रकार एकत्र किए गए साक्ष्य को ध्यान में रखते हुए मुकदमे में काफी समय लगेगा और ऐसा हो सकता है, अगर जमानत से इनकार किया जाता है, तो न्यायिक हिरासत सजा की वैधानिक अवधि, जो कि पांच साल, से ज्यादा हो सकता है।"

    मामले में आवेदक-आरोपी ने सीआरपीसी की धारा 439 के तहत नियमित जमानत की मांग की थी। वह धारा 132(1)(बी), 132(1)(सी) सहपठित धारा 132(1)(i) और धारा 132(5) और धारा 132(1)(b), 132(1)(c) सहपठित गुजरात जीएसटी अधिनियम, 2017 की धारा 132(1)(i) और धारा 132(5) और धारा 120(B) आईपीसी के तहत आरोपी था।

    यह मामला शेल कंपनियों निर्माण से संबंधित था, जिसमें किसी असली माल की आपूर्ति के बिना चालान जारी किया गया था और अमान्य इनपुट टैक्स क्रेडिट (आईटीसी) पास किया गया था। आवेदक पर 10.29 करोड़ रुपये के इनपुट टैक्स क्रेडिट को अनधिकृत रूप से प्राप्त करने और उसका उपयोग करने का आरोप था। साथ ही उसने फिजिकल रसीद और माल की आपूर्ति के बिना कई बोगस फर्मों बनाकर अपने खरीदारों को फ्रॉड आईटीसी पास किया था।

    तदनुसार, आवेदक को सितंबर 2021 में सीजीएसटी एक्ट, 2017 की धारा 69 के तहत गिरफ्तार किया गया और न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। इसके बाद सीआरपीसी की धारा 437 के तहत उनकी जमानत याचिका खारिज कर दी गई। बाद में, आपराधिक विविध आवेदन को भी अक्टूबर 2021 में खारिज कर दिया गया।

    आवेदक का सबसे महत्वपूर्ण तर्क यह था कि उसे बिना किसी आधार या सबूत के गिरफ्तार किया गया था। इसके अलावा वह फेरस स्क्रैप, आयरन आदि के व्यवसाय में लगा हुआ था और पूर्ववर्ती वैट रेजीम के तहत पंजीकृत था। और उसके बाद धारा 139 के तहत जीएसटी रेजीम के तहत पंजीकृत था, जिससे पता चला कि वह करदाता नागरिक था और उसका व्यवसाय केवल कागज पर नहीं होता था।

    डी-सीलिंग प्रक्रिया के दरमियान अधिकारियों को आवेदक के व्यावसायिक परिसर में लोहे के कबाड़ का स्टॉक भी मिला, जिसके कानूनी और वैध दस्तावेजों और चालान भी मौजूद थे।

    एक अतिरिक्त तर्क यह था कि जीएसटी अधिनियम एक राजकोषीय कानून था और कानून का उद्देश्य धारा 69(1) के तहत सरकार को देय राशि की वसूली के लिए एक तंत्र प्रदान करना था, इसके बावजूद सरकार की ओर से ऐसा कोई कदम नहीं उठाया गया।

    इसके विपरीत, प्रतिवादी प्राधिकारी ने विरोध किया कि आवेदक के दुकान परिसर में लोहे का कबाड़ बिना स्टॉक रजिस्टर के था, जो सीजीएसटी अधिनियम की धारा 35 के तहत अनिवार्य था।

    तदनुसार, अधिनियम की धारा 67 के तहत माल को जब्त कर लिया गया। व्यवसाय के प्रमुख स्थान का पता लगाने का भी प्रयास किया गया लेकिन स्थान नहीं मिल सका। इसलिए, यह निष्कर्ष निकाला गया कि यह इकाई मौजूद नहीं थी।

    परिणाम

    शुरुआत में, कोर्ट ने कहा कि इस मामले में मुकदमे को समाप्त होने में अपना समय लगेगा।

    संजय चंद्र बनाम सीबीआई , [2012 1 एससीसी 40] पर भरोसा रखा गया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने देखा था कि जमानत आवेदनों पर निर्णय लेने में, 'मुकदमे के समापन में देरी' को एक प्रासंगिक कारक माना जाना चाहिए। पीठ ने तब सीजीएसटी अधिनियम की धारा 138 का उल्लेख किया जो अपराध के आरोपी व्यक्ति द्वारा भुगतान पर अभियोजन की स्थापना के बाद भी अपराधों के कंपाउंडिंग का प्रावधान करती है।

    इस पृष्ठभूमि में कोर्ट ने कहा,

    "कानून के प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए और इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि आयुक्त को देय राशि की वसूली करने का अधिकार है और कार्यवाही को कम करने का प्रस्ताव है और चूंकि मुकदमे को समाप्त होने में अपना समय लगेगा, यह न्यायालय इसे एक उपयुक्त मामला मानता है जहां विवेकाधिकार आवेदक के पक्ष में प्रयोग किया जा सकता है। "

    एक लाख रुपये के व्यक्तिगत बांड पर जमानत याचिका अनुमति दी गई।

    केस शीर्षक: मोहसिन सलीम भाई कुरैशी बनाम गुजरात राज्य

    केस नंबर: आर/सीआर.एमए/91/2022

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