धमकी देकर प्राप्त की गई सहमति बेकार, आईपीसी की धारा 90 के तहत मान्य नहीं: गुवाहाटी हाईकोर्ट ने बलात्कार की दोषसिद्धि को बरकरार रखा

LiveLaw News Network

3 May 2022 11:25 AM GMT

  • गुवाहाटी हाईकोर्ट

    गुवाहाटी हाईकोर्ट 

    गुवाहाटी हाईकोर्ट ने हाल ही में एक नाबालिग लड़की से बलात्कार के एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि अगर पीड़िता को धमकी दी गई और आरोपी याचिकाकर्ता के साथ रहने के लिए मजबूर किया गया तो इस तरह की सहमति को आईपीसी की धारा 90 के दायरे में सहमति नहीं कहा जा सकता है।

    यह टिप्पणी जस्टिस रूमी कुमार फुकन ने की, जिन्होंने कहा कि भले ही पीड़िता एक बालिग थीं, दी गई परिस्थितियों में सहमति महत्वहीन है:

    "दिए गए मामले में, पीड़िता को आरोपी याचिकाकर्ता के साथ धमकी और मजबूरी में रखा गया था, जिसे आईपीसी की धारा 90 के दायरे में सहमति नहीं कहा जा सकता है। भले ही उसे बालिग माना जाता है, ऐसी सहमति स्वयं सारहीन है।"

    तथ्य

    19 मई, 2009 को शिकायतकर्ता प्रदीप दास की पीड़िता/बेटी, जो नौवीं कक्षा का छात्र है, स्कूल की परीक्षा में शामिल होने के बाद दोपहर लगभग 2.30 बजे तक घर नहीं लौटी। उसके पिता/ शिकायतकर्ता ने स्कूल परिसर में उसकी तलाश की और पता चला कि आरोपी याचिकाकर्ता भैरब दास ने पीड़ित लड़की का एक काले रंग की इंडिका में अपहरण कर लिया और भाग गया। घटना के तुरंत बाद पीड़िता के पिता ने याचिकाकर्ता के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई, जिसे मोरीगांव पुल‌िस थाना में धारा 366-ए आईपीसी के तहत मामला संख्या 89/2009 के रूप में दर्ज किया गया।

    जांच के दौरान पीड़ित लड़की को बरामद कर लिया गया है। आरोपी भैरब दास ने अदालत के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया और जांच पूरी होने के बाद आरोपी याचिकाकर्ता के खिलाफ धारा 366-ए/376 आईपीसी के तहत आरोप पत्र पेश किया गया। ट्रायल कोर्ट ने आरोपी याचिकाकर्ता को आईपीसी की धारा 366/376 के तहत दोषी करार दिया। उसे धारा 366 आईपीसी के तहत चार साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई है और 2,000 रुपये का जुर्माना लगाया गया है, जिसे ना देने पर दो महीने की सामान्य सजा का आदेश दिया गया।

    उन्हें आईपीसी की धारा 376 के तहत पांच साल के लिए कठोर कारावास की सजा सुनाई गई है और 2,000 रुपये का जुर्माना लगाया गया, जिसे ना देने पर दो महीने की सामान्य सजा का आदेश दिया गया। दोषी ने सत्र न्यायाधीश, मोरीगांव के समक्ष एक अपील दायर की, जहां अदालत ने ट्रायल कोर्ट के आदेश को बरकरार रखा। इससे क्षुब्ध होकर उसने हाईकोर्ट का रुख किया।

    याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि

    1) पीड़िता बालिग थी और विद्वान न्यायालय गलत तरीके से इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि पीड़िता नाबालिग थी;

    2) अभियोजन पक्ष द्वारा लड़की की उम्र को ठीक से साबित नहीं किया गया था, और पीड़ित के अभिभावक/माता-पिता भी अपनी बेटी/पीड़ित लड़की के जन्म की तारीख साबित नहीं कर सके;

    3) एमओ के अनुसार, पीड़िता की उम्र 15 से 16 साल है और दोनों तरफ से दो साल जोड़कर उसकी उम्र में बदलाव किया जा सकता है;

    4) जो एफआईआर दर्ज है वह दूसरी एफआईआर है और पहले दर्ज की गई एफआईआर साबित नहीं होती है। इसलिए, अभियोजन का मामला संदिग्ध है;

    5) पीड़िता की अपुष्ट गवाही, यहां तक ​​कि चिकित्सा अधिकारी द्वारा समर्थित न होने पर भी, दोषसिद्धि को बनाए रखने के लिए भरोसा करना सुरक्षित नहीं है।

    6) पीड़िता के आचरण का उल्लेख करते हुए, यह कहा गया है कि वह स्वेच्छा से आरोपी व्यक्ति के साथ गई और बिना किसी विरोध के कई दिनों तक उसके साथ रही, जो संकेत करता है कि आरोपी द्वारा कोई अपराध नहीं किया गया था और चिकित्सा साक्ष्य भी प्रकट नहीं करता है पीड़ित लड़की के साथ संभोग किया गया था।

    रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों को देखने के बाद, अदालत ने कहा कि यह याचिकाकर्ता की मिलीभगत को साबित करता है जो पीड़ित लड़की के बयान का समर्थन करता है। उनके साक्ष्य से यह भी पता चलता है कि आरोपी एक विवाहित व्यक्ति है जिसे स्वयं आरोपी ने सीआरपीसी की धारा 313 के तहत अपने बयान में स्वीकार किया है।

    उम्र के सवाल पर आते हुए अदालत ने कहा कि अभियोजन का मामला न केवल पीड़िता की उम्र साबित करने के लिए चिकित्सा अधिकारी के साक्ष्य पर निर्भर करता है बल्कि उसकी उम्र को उसके माता-पिता के साथ-साथ स्कूल प्राधिकरण ने भी साबित किया है। इसलिए, चिकित्सा साक्ष्य जो केवल राय है, रिकॉर्ड पर मौजूद अन्य साक्ष्यों के ऊपर प्रबल नहीं हो सकता है।

    सहमति के मुद्दे पर कोर्ट ने सतपाल सिंह बनाम हरियाणा राज्य में सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनाए गए फैसले पर भरोसा किया, जिसमें यह माना गया था कि एक महिला तभी सहमति दे सकती है, जब वह स्वतंत्र रूप से खुद को प्रस्तुत करने के लिए सहमत हो, जब वह स्वतंत्र हो और बिना किसी दबाव में अपनी शारीरिक और नैतिक शक्ति के इस प्रकार नियंत्रण में हो कि अपनी इच्छानुसार कार्य कर सके।

    उपरोक्त के मद्देनजर, अदालत ने अभियोजन पक्ष की प्रस्तुतियां स्वीकार कर ली और पुनर्विचार याचिका को खारिज कर दिया।

    केस शीर्षक: श्री भैरब दास बनाम असम राज्य

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