पक्षकारों को जब मध्यस्थता के लिए भेजा जाता है तो सिविल कोर्ट आदेश पारित करने से पहले मध्यस्थता रिपोर्ट का इंतजार करने के लिए बाध्य: केरल हाईकोर्ट
Shahadat
20 Aug 2022 2:25 PM IST
केरल हाईकोर्ट ने हाल ही में माना कि जब दीवानी अदालत ने सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 89 के तहत मध्यस्थता (Mediation) के लिए दीवानी मुकदमे के पक्षकारों को भेजा जाता है तो मुकदमे में आगे के आदेश पारित करने से पहले मध्यस्थता रिपोर्ट की प्रतीक्षा करने का दायित्व है।
जस्टिस सी.एस. डायस ने मामले की सुनवाई करते हुए पूछा कि क्या निचली अदालत ने मुकदमे को 'दबाया नहीं' कहकर खारिज करने में गलती की है।
उन्होंने कहा,
"यह वैधानिक है कि जब कोई मुकदमा संहिता की धारा 89 के तहत बिना किसी औपचारिक निर्णय के निपटाया जाता है तो वादी केरल कोर्ट फीस और सूट वैल्यूएशन एक्ट, 1959 की धारा 69 (ए) में दिये गए प्रावधान के अनुसार पूरी कोर्ट फीस वापस पाने का हकदार है।"
मुंसिफ कोर्ट के कोर्ट फीस की वापसी से इनकार करने के आदेश को रद्द करने के लिए वर्तमान मामले में मूल याचिका दायर की गई है।
सिविल सूट के क्रमशः पूर्व वादी और प्रतिवादी रहे वर्तमान मामले में याचिकाकर्ता और प्रतिवादी को मुकदमे के लंबित रहने के दौरान मध्यस्थता के लिए भेजा गया। इसके बाद वे एक समझौता करने में सक्षम हुए और मध्यस्थ के समक्ष समझौता ज्ञापन दिया, जो जिला मध्यस्थता केंद्र, कोल्लम से जुड़ा है।
याचिकाकर्ता ने तब केरल कोर्ट फीस और सूट वैल्यूएशन एक्ट की धारा 69 (ए) के तहत भुगतान किए गए कोर्ट फीस की वापसी के लिए इंटरलोक्यूटरी आवेदन दायर किया। हालांकि, इसे मुंसिफ कोर्ट ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि चूंकि मुकदमा 'दबाया नहीं गया' के रूप में खारिज कर दिया गया, याचिकाकर्ता कोर्ट फीस की वापसी का हकदार नहीं है।
मामला जब हाईकोर्ट के समक्ष विचार के लिए आया तो उसने नोट किया कि मध्यस्थता रिपोर्ट प्राप्त होने से पहले ही वादी ने मुंसिफ कोर्ट में ज्ञापन दायर कर दिया, जिसमें कहा गया कि मुकदमा 'दबाया नहीं गया' के रूप में खारिज किया जा सकता है। इसी आलोक में मुंसिफ कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेते हुए मामले को आगे बढ़ाया और मुकदमा खारिज कर दिया गया।
कोर्ट ने माना कि मुंसिफ कोर्ट द्वारा पारित आदेश गलत है, क्योंकि बाद में अगले आदेश पारित करने से पहले मध्यस्थता रिपोर्ट की प्रतीक्षा नहीं की गई। कोर्ट ने कहा कि मध्यस्थता समझौते में निर्धारित नियमों और शर्तों के अनुसार मुकदमे का निपटारा किया जाना चाहिए, न कि इसे दबाए जाने के रूप में खारिज किया जाना चाहिए। हालांकि, कोर्ट ने कहा कि चूंकि सूट में डिक्री पहले ही पारित हो चुकी है तो याचिकाकर्ता के लिए उपयुक्त उपाय यह होगा कि वह डिक्री की समीक्षा की मांग करे।
इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने निर्देश दिया कि चूंकि वाद का निपटारा बिना किसी निर्णय के संहिता की धारा 89 के तहत किया गया, वादी केरल कोर्ट फीस और सूट मूल्यांकन अधिनियम, 1959 की धारा 69 (ए) में प्रदान किए गए पूरी कोर्ट फीस की वापसी का हकदार है।
वर्तमान मामले में याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व एडवोकेट एमआर सरीन ने किया।
केस टाइटल: शाइबू बी. वी. संजीव
साइटेशन: 2022 लाइव लॉ (केरल) 442
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