मेडिकल लापरवाही मामले में एक्सपर्ट कमेटी का फैसला डॉक्टर के पक्ष में होने पर नाराजी याचिका की अनुमति नहीं दे सकते: झारखंड हाईकोर्ट

Shahadat

30 March 2023 5:41 AM GMT

  • मेडिकल लापरवाही मामले में एक्सपर्ट कमेटी का फैसला डॉक्टर के पक्ष में होने पर नाराजी याचिका की अनुमति नहीं दे सकते: झारखंड हाईकोर्ट

    झारखंड हाईकोर्ट ने माना कि मेडिकल लापरवाही मामले में गठित एक्सपर्ट कमेटी का निष्कर्ष डॉक्टर के पक्ष में होने पर नाराजी याचिका (Protest Petition) पर आगे कार्यवाही करना कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग है।

    अदालत ने उपरोक्त आदेश आपराधिक विविध याचिका में पारित किया, जो पूरी आपराधिक कार्यवाही रद्द करने के लिए दायर की गई, जिसमें साहिबगंज के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा याचिकाकर्ता-डॉक्टर के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 304-ए सपठित धारा 34 के तहत संज्ञान लिए जाने वाले मामले के संबंध में संज्ञान लेने का आदेश भी शामिल है।

    शुरुआत में मामला दर्ज किया गया, जिसमें आरोप लगाया गया कि शिकायतकर्ता अपने पिता को याचिकाकर्ता के क्लिनिक साहिबगंज में हर्निया के ऑपरेशन के लिए लाया। शिकायतकर्ता के अनुसार, शाम 7.30 बजे उनके पिता को ऑपरेशन रूम में ले जाया गया और 30 मिनट के बाद उन्हें ऑपरेशन थिएटर से बाहर निकाल कर दूसरे कमरे में शिफ्ट कर दिया गया।

    जानिए क्या होती है नाराजी याचिका

    उस दौरान शिकायतकर्ता अपने पिता के होश में आने का इंतजार कर रहा था, जब उसने दावा किया कि उसके पिता की नसें रुक गई। उसके बाद डॉक्टर ने रोगी को देखा, अपने कमरे में गया और संदेश भेजा कि रोगी की मृत्यु हो गई है; जब डॉक्टर को फिर से बुलाया गया तो वह कोई सबूत दिखाने में नाकाम रहे।

    शिकायतकर्ताओं में से एक ने थाना प्रभारी के समक्ष लिखित आवेदन दिया, जिसकी पुलिस ने जांच की और पुलिस द्वारा तथ्यों की गलती बताते हुए अंतिम प्रपत्र प्रस्तुत किया गया।

    वैकल्पिक रूप से, याचिकाकर्ता के वकील पांडे नीरज राय ने प्रस्तुत किया कि याचिकाकर्ता प्रैक्टिनर डॉक्टर है, उसने रोगी का सफलतापूर्वक ऑपरेशन किया। बाद में जब उन्हें रोगी की अस्वस्थता के बारे में जानकारी मिली तो उन्होंने तुरंत रोगी को देखा और मेडिकल जांच में रोगी को मृत पाया।

    हालांकि, उन्होंने आगे कहा कि शिकायतकर्ता ने नर्सिंग होम में लगभग 100 से 150 लोगों को बुलाया और भीड़ का नेतृत्व पांच आरोपी व्यक्तियों ने किया और नर्सिंग होम में तोड़फोड़ की गई। नर्सिंग होम के स्टाफ सदस्यों के साथ मारपीट की गई। अदालत को बताया गया कि भीड़ याचिकाकर्ता को मारने के लिए चिल्ला रही थी।

    इसके आधार पर आईपीसी की धारा 341, 323, 427, 504, 34 के तहत पांच नामजद आरोपितों व 100 से 150 अज्ञात के खिलाफ अपराध दर्ज कर लिखित रिपोर्ट दर्ज की गयी। तत्पश्चात, विवेचना के पश्चात् आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया तथा मामले में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा संज्ञान लिया गया।

    फिर उन्होंने बताया कि अदालत ने प्रतिवादी नंबर 2 द्वारा आईपीसी की धारा 304-ए सपठित धारा 34 के तहत दायर विरोध याचिका का संज्ञान लिया, जो कानून के जनादेश के खिलाफ है। प्रतिवादी नंबर 2 द्वारा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को सूचित किया गया और उसके बाद याचिकाकर्ता के खिलाफ जांच समिति गठित करने का निर्देश दिया गया। समिति इस निष्कर्ष पर पहुंची कि ऐसा कोई तकनीकी साक्ष्य नहीं है, जिससे यह कहा जा सके कि उक्त हर्निया के ऑपरेशन के दौरान लापरवाही के कारण मृतक की मौत हुई।

    राय ने अंत में प्रस्तुत किया कि कार्यवाही को जारी रखने की अनुमति देना और एक्सपर्ट कमेटी की राय के बावजूद, नाराजी याचिका पर संज्ञान लेना कि डॉक्टर की ओर से कोई लापरवाही नहीं हुई है, कानून में गलत है।

    जस्टिस संजय कुमार द्विवेदी ने नाराजी याचिका का उल्लेख करते हुए कहा कि निस्संदेह एक बार अंतिम प्रपत्र जमा हो जाने के बाद मजिस्ट्रेट के पास चार विकल्प हैं:-

    (1) वह पुलिस के निष्कर्ष से सहमत हो सकता है और अंतिम रिपोर्ट को स्वीकार कर सकता है और कार्यवाही छोड़ सकता है।

    (2) वह सीआरपीसी की धारा 190 (1) (बी) के तहत संज्ञान ले सकता है और जांच एजेंसी के निष्कर्ष से बंधे बिना आरोपी को सीधे प्रक्रिया जारी कर सकता है, जहां वह संतुष्ट है कि पुलिस द्वारा खोजे गए तथ्यों पर पर्याप्त है।

    (3) वह आगे की जांच के लिए आदेश दे सकता है, यदि वह संतुष्ट है कि जांच लापरवाही से की गई।

    (4) वह मूल शिकायत या नाराजी याचिका पर सीआरपीसी की धारा 190 (1) (ए) के तहत प्रक्रिया जारी किए बिना और कार्यवाही को शिकायत के रूप में मान सकता है और सीआरपीसी की धारा 200 और 202 के तहत कार्रवाई कर सकता है। उसके बाद चाहे बर्खास्त की शिकायत की जानी चाहिए या इसकी प्रक्रिया जारी की जाए।

    जस्टिस द्विवेदी की राय थी कि मजिस्ट्रेट ने चौथा विकल्प चुना और ऐसा करते हुए उन्होंने कानून के अनुसार कार्यवाही की। हालांकि, उन्होंने मार्टिन एफ. डिसूजा के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले को ध्यान में नहीं रखा। साथ ही "जैकब मैथ्यू बनाम पंजाब राज्य 2005 (6) एससीसी 1 में” सुप्रीम कोर्ट की चिंता यह थी कि किसी भी डॉक्टर की कार्रवाई को अनावश्यक रूप से नागरिक या आपराधिक गलत का विषय नहीं बनाया जा सकता। यह भी निर्देश दिया गया कि एक्सपर्ट की राय लेने के बाद ही अदालत डॉक्टर के खिलाफ कार्रवाई कर सकती है।

    इस मामले में एक्सपर्ट रिपोर्ट पहले से ही मौजूद है और उसके बाद ही अंतिम फॉर्म जमा किया गया। मामले को देखते हुए अदालत ने पाया कि नाराजी याचिका पर आगे कार्यवाही करना, जबकि एक्सपर्ट कमेटी का निष्कर्ष याचिकाकर्ता के पक्ष में है, कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग है।

    जस्टिस द्विवेदी ने उल्लेख किया,

    "मामले में डॉक्टर ने अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन किया। ऑपरेशन सफल रहा। मरीज को वार्ड में लाया गया, उसके बाद ओपी नंबर 2 के पिता की हालत बिगड़ गई। मार्टिन एफ डिसूजा के मामले में (सुप्रा) माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इस तथ्य पर ध्यान दिया कि अदालतें और उपभोक्ता फोरम मेडिकल साइंस के एक्सपर्ट नहीं हैं और उन्हें एक्सपर्ट के अपने विचारों को प्रतिस्थापित नहीं करना चाहिए। यह सच है कि मेडिकल पेशे का एक हद तक व्यावसायीकरण हो गया है और ऐसे कई डॉक्टर हैं, जो पैसा बनाने के अपने स्वार्थी सिरों के लिए अपनी हिप्पोक्रेटिक शपथ से विदा लेते हैं। हालांकि, केवल कुछ स्वार्थी लोगों के कारण पूरी मेडिकल बिरादरी को दोष नहीं दिया जा सकता है, या उनकी ईमानदारी या क्षमता की कमी के रूप में ब्रांडेड नहीं किया जा सकता।

    जस्टिस द्विवेदी ने अंत में कहा,

    "यह सर्वविदित है कि कभी-कभी डॉक्टर द्वारा किए गए सर्वोत्तम प्रयास के बावजूद वे सफल नहीं हो पाते हैं। मगर इसका मतलब यह नहीं है कि डॉक्टर को दोषी ठहराया जाना चाहिए। न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि याचिकाकर्ता का मामला सही है। माननीय सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त दो निर्णयों से पूरी तरह से आच्छादित है।"

    केस टाइटल: डॉ. विजय कुमार बनाम झारखंड राज्य Cr.M.P. नंबर 588/2013

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