POCSO मामलों में जिरह के दौरान चूक को चिह्नित करने में विफल रहने पर गवाह को फिर से नहीं बुला सकते : केरल हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

14 Dec 2021 4:39 PM GMT

  • POCSO मामलों में जिरह के दौरान चूक को चिह्नित करने में विफल रहने पर गवाह को फिर से नहीं बुला सकते : केरल हाईकोर्ट

    केरल हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया है कि पॉक्सो मामलों में जिरह के दौरान एक गवाह के पिछले बयानों की चूक (ओमिशन) को चिह्नित करने में विफल रहना हमेशा उन गवाहों को फिर से बुलाने का एक वैध आधार नहीं होता है।

    हालांकि, याचिका का निपटारा करने से पहले, न्यायमूर्ति एमआर अनीथा ने स्पष्ट किया है किः

    ''मैं यह भी स्पष्ट करती हूं कि मैं इसे एक मिसाल के रूप में नहीं बनाना चाहती हूं कि गवाहों से जिरह के दौरान महत्वपूर्ण चूक को चिह्नित करने की आवश्यकता नहीं है।''

    पृष्ठभूमिः

    याचिकाकर्ता के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 376(2)(एफ) (बलात्कार) और यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम(पॉक्सो) की धारा 3 (पेनेट्रेटिव यौन हमला) रिड विद धारा 4, धारा 5 (ऐग्रवेटिड पेनेट्रेटिव यौन हमला) रिड विद 6 तहत मामला दर्ज किया गया था।

    याचिकाकर्ता के अनुसार, जांच अधिकारी को छोड़कर अभियोजन पक्ष के सभी गवाहों से जिरह हो चुकी है। हालांकि, उसने आरोप लगाया है कि अभियोजन पक्ष के पहले दो गवाहों से जिरह के दौरान, वह अपने वकील को उन गवाहों से पूछे जाने वाले कुछ सवालों के बारे में निर्देश देने में विफल रहा है।

    याचिकाकर्ता ने दलील दी है कि ये सवाल उसकी बेगुनाही साबित करने के लिए जरूरी हैं। आगे यह भी कहा गया कि पीड़िता व उसकी मां के सीआरपीसी की धारा 161 और धारा 164 के तहत दर्ज कराए गए बयानों में काफी विरोधाभास है। लेकिन उसका वकील गवाहों के बयान का खंडन करने के लिए उनके पिछले बयानों पर गवाहों का ध्यान आकर्षित करने से चूक गया था।

    इसलिए उसने विशेष अदालत के समक्ष पीड़िता और उसकी मां को फिर से कोर्ट बुलाने के लिए सीआरपीसी की धारा 311 के तहत एक याचिका दायर की थी।

    इस याचिका को निचली अदालत ने खारिज कर दिया था। उसी से व्यथित, याचिकाकर्ता ने अधिवक्ता के.एम. फिरोज और एम. शजना के जरिए हाईकोर्ट में याचिका दायर की है।

    दलीलें

    आरोपी ने तर्क दिया कि यह कानून की एक स्थापित स्थिति है कि महत्वपूर्ण चूक विरोधाभास के समान है और प्रासंगिक हिस्से को गवाहों के सामने रखा जाना चाहिए और गवाहों को विसंगति को समझाने का अवसर दिया जाना चाहिए।

    आगे यह तर्क दिया गया कि पीडब्ल्यू 1 और पीडब्ल्यू 2 से जिरह के दौरान, कई महत्वपूर्ण चूक सामने आई थी लेकिन उन्हें चिह्नित नहीं किया गया था। उन चूकों को चिन्हित करने के उद्देश्य से, उन्होंने तर्क दिया कि गवाहों को फिर से कोर्ट बुलाना अत्यंत आवश्यक है।

    हालांकि, लोक अभियोजक संगीथराज एन.आर. ने कोर्ट द्वारा इस याचिका पर विचार करने पर कड़ी आपत्ति जताई और दलील दी कि पॉक्सो एक्ट की धारा 33(5) के तहत यह रोक है कि पॉक्सो एक्ट के मामलों में पीड़ित को बार-बार कोर्ट न बुलाया जाए।

    मुख्य निष्कर्षः

    पॉक्सो एक्ट की धारा 33(5) में प्रावधान है कि विशेष अदालत यह सुनिश्चित करेगी कि बच्चे को बार-बार अदालत में गवाही देने के लिए न बुलाया जाए।

    अदालत ने कहा कि चूंकि धारा 31 एक गैर-बाधक खंड (non-obstante clause)से शुरू होती है, इसलिए सीआरपीसी प्रावधानों के तहत दायर आवेदन अधिनियम की धारा 33(5) के अधीन होगा, जो अदालत में गवाही देने के लिए बच्चे को बार-बार बुलाने से विशेष अदालत को सतर्क करती है।

    तदनुसार, न्यायाधीश ने पाया कि इस तरह से मामले के पीड़ित को अदालत के समक्ष गवाही देने के लिए बार-बार बुलाने के लिए एक रोक है। कोर्ट ने आगे यह भी कहा कि यह तथ्य कि जिरह के दौरान चूक को चिह्नित नहीं किया गया था, गवाहों को फिर से बुलाने का एक कारण नहीं हो सकता है।

    दरअसल, मां के बयान से पता चलता है कि जिरह के दौरान सामने लाई गई लगभग सभी चूकों को उन्होंने स्पष्ट कर दिया था।

    अदालत ने यह भी नोट किया कि चूक को चिह्नित करने में विफल रहने की दलील और इस तरह गवाहों को फिर से बुलाने की मांग शायद आरोपी के कहने के बाद ही की गई है।

    ''... धारा 311 के तहत याचिका दायर करते समय अभियुक्त का विशिष्ट आरोप यह था कि वह अधिवक्ता को पीडब्ल्यू1 और पीडब्ल्यू 2 से पूछे जाने वाले कुछ प्रश्नों के संबंध में निर्देश देने से चूक गया था। उसके पास धारा 311 के तहत याचिका दायर करते समय गवाहों से क्रॉस के दौरान चूक को चिह्नित करने में विफल रहने का कोई मामला नहीं है।''

    चूंकि चूक को गवाहों द्वारा पहले ही समझाया जा चुका है और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 145 के तहत प्रक्रियाओं का पर्याप्त अनुपालन हुआ है, अदालत ने कहा कि इस मामले में पीड़िता और उसकी मां को फिर से गवाही के लिए बुलाने की कोई आवश्यकता नहीं है।

    राजा राम प्रसाद यादव बनाम बिहार राज्य व एनआर (2014 (4) एससीसी (सीआरएल) 256) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एक अदालत एक गवाह को फिर से बुला सकती है यदि यह पाया जाता है कि मामले के न्यायोचित निर्णय या सत्य का पता लगाने या तथ्यों का उचित प्रमाण प्राप्त करने के लिए पेश किए जाने वाले साक्ष्य आवश्यक हैं।

    हालांकि, न्यायाधीश ने यह माना कि इस मामले के न्यायसंगत निर्णय के लिए पीड़िता और उसकी माँ को फिर से बुलाना आवश्यक नहीं है।

    विशेष न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश में हस्तक्षेप करने का कोई कारण न पाते हुए याचिका खारिज कर दी गई।

    आदेश पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें



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