आरोपी को नोटिस नहीं दिया गया था, इसलिए मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने जमानत रद्द करने का आदेश वापस लिया

Avanish Pathak

18 May 2022 2:54 PM GMT

  • मध्य प्रदेश हाईकोर्ट

    मध्य प्रदेश हाईकोर्ट

    मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की ग्वालियर बेंच ने हाल ही में जमानत रद्द करने के अपने एक आदेश को वापस ले लिया, जिसे एकतरफा पारित किया गया था। आदेश में कहा गया था कि जिसे जमानत दी गई थी, उसे विधिवत नोटिस नहीं दिया गया था और इसलिए वह उक्त आवेदन को चुनौती देने के लिए अदालत के सामने पेश नहीं हो सका।

    जस्टिस आनंद पाठक दरअसल धारा 482 सीआरपीसी के तहत एक आवेदन पर सुनवाई कर रहे थे, जिसे आवेदक ने आक्षेपित आदेश, जिसके तहत धारा 439 (2) सीआरपीसी के तहत उसकी जमानत रद्द कर दी गई थी, को वापस लेने के लिए दायर किया था।

    मामले के तथ्य यह थे कि धारा 307 आईपीसी के तहत दंडनीय अपराधों के आरोपी आवेदक को अदालत ने जमानत दी थी। शिकायतकर्ता ने बाद में आवेदक के खिलाफ धारा 336, 195-ए आईपीसी के तहत एक और अपराध दर्ज किया और उसकी जमानत रद्द करने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया।

    आक्षेपित आदेश में न्यायालय ने कहा कि आवेदक को विधिवत नोटिस दिया गया था लेकिन वह कार्यवाही के लिए उपस्थित नहीं हुआ अदालत ने फिर शिकायतकर्ता के बयानों के आधार पर आवेदक की जमानत एकतरफा रद्द कर दी। उक्त आदेश से व्यथित, आवेदक ने उसी को चुनौती देने के लिए न्यायालय का रुख किया।

    आवेदक ने अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया कि रजिस्ट्री के जर‌िए भेजी गई नोटिस उसके पास कभी नहीं पहुंची क्योंकि लिफाफे पर उसका पता अधूरा था। उसने आगे तर्क दिया कि मध्य प्रदेश हाईकोर्ट रूल्स, 2008 के चेप्टर XV रूल्स 11 के अनुसार डीम्ड सर्विस क्लॉज रिट याचिका पर लागू है, जबकि उनका मामला सीआरपीसी की धारा 64 के तहत शासित था।

    उन्होंने यह भी बताया कि पुलिस ने अदालत को अवगत कराया था कि उन्होंने उसकी पत्नी को कार्यवाही के बारे में सूचित किया था, जबकि वह कुंवारा था। इसलिए, उक्त कारणों से आवेदक ने तर्क दिया कि सम्मन की तामील कानून में खराब थी।

    विष्णु अग्रवाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य और असित कुमार कार बनाम पश्चिम बंगाल राज्य में सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों पर भरोसा करते हुए आवेदक ने प्रस्तुत किया कि ऐसे मामले में जहां किसी व्यक्ति को तामील नहीं दी जाती है और आपराधिक अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए कोई आदेश पारित किया जाता है, तो धारा 362 सीआरपीसी के तहत रोक उस व्यक्ति के नुकसान के लिए भूमिका में नहीं आती है, क्योंकि उक्त प्रावधान पर न्याय के लक्ष्य को हराने के लिए कठोर और अति तकनीकी तरीके से विचार नहीं किया जा सकता है।

    इसके विपरीत राज्य ने प्रस्तुत किया कि आवेदक को अवसर दिए गए थे लेकिन वह सहायता के लिए न्यायालय के समक्ष पेश नहीं हुआ और चूंकि उसे पंजीकृत एडी के जरिए डीम्ड सेवा के माध्यम से जानकारी सर्व की गई थी, इसलिए हस्तक्षेप का कोई मामला नहीं बनाया गया था। इसलिए प्रार्थना की गई कि आवेदन को खारिज किया जाए।

    पार्टियों की प्रस्तुतियों और रिकॉर्ड पर मौजूद दस्तावेजों की जांच करते हुए कोर्ट ने कहा कि लिफाफे/पंजीकृत एडी पर एक एंडॉर्समेंट किया गया था कि पता गलत होने के कारण नोटिस की तामील नहीं की जा सकी और संबंधित डाकिया ने अधिकारियों से नोटिस की तामील के लिए घर का नंबर प्रदान करने के लिए कहा था। कोर्ट ने आगे आवेदक की इस दलील से सहमति जताई कि उसके मामले में डीम्ड सर्विस क्लॉज लागू नहीं था।

    इसलिए, हाईकोर्ट रूल्स, 2008 के चेप्टर XV रूल 11 के अनुसार इसे डीम्ड सेवा के रूप में नहीं माना जा सकता है, हालांकि याचिकाकर्ता के वकील सही प्रतीत होते हैं जब वह तर्क देते हैं कि हाईकोर्ट रूल्स, 2008 का चेप्टर XV रूल 11 रिट क्षेत्राधिकार में जारी किए गए समन की तामील के संबंध में है, क्योंकि मुकदमे की मूल प्रकृति और जिला न्यायालय की अदालती कार्यवाही से पैदा अन्य मामलों में समन/नोटिस सिविल प्रक्रिया संहिता, आपराधिक प्रक्रिया संहिता, सिविल कोर्ट मैनुअल या आपराधिक न्यायालय मैनुअल में प्रदान किए गए तंत्र के माध्यम से, जैसा भी मामला हो, तामील किया जाना है...और यहां याचिकाकर्ता के वकील का विशिष्ट अनुरोध है कि याचिकाकर्ता अभी तक विवाहित नहीं है, यह तथ्य समन पत्नी को दिया गया है, गलत प्रतीत होता है।

    कोर्ट ने माना कि आवेदक को जमानत रद्द करने के लिए आवेदन की सुनवाई के समय विधिवत सेवा नहीं दी गई थी, जिसके बाद आक्षेपित आदेश को वापस ले लिया और आवेदक की दलीलों को सुनने के बाद मामले को फिर से तय करने के लिए मामला संख्या बहाल कर दी।

    केस शीर्षक : शिवम शर्मा बनाम मध्य प्रदेश राज्य और अन्य

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