चार्जशीट दाखिल होने के बाद भी दी जा सकती है अग्रिम जमानतः इलाहाबाद हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

19 Dec 2020 4:57 PM IST

  • चार्जशीट दाखिल होने के बाद भी दी जा सकती है अग्रिम जमानतः इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में माना है कि आपराधिक मामले में चार्जशीट दायर होने के बाद भी अग्रिम जमानत दी जा सकती है।

    यह निर्णय न्यायमूर्ति सिद्धार्थ की एकल पीठ ने,8 दिसंबर को, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के एक लॉ स्टूडेंट आदिल की तरफ से दायर की गई प्री-अरेस्ट जमानत याचिका पर सुनवाई के बाद दिया है। आदिल के खिलाफ आईपीसी की धारा 307 (हत्या का प्रयास) और 504 (शांति भंग करने के इरादे से जानबूझकर अपमान करना) के तहत केस दर्ज किया गया था।

    कोर्ट ने अपने फैसले में सुशीला अग्रवाल बनाम राज्य ( एनसीटी आॅफ दिल्ली) के मामले का हवाला दिया और कहा कि अग्रिम जमानत देने की आवश्यकता सीमित समय के लिए नहीं होनी चाहिए। कई मामलों में, यह केस के समापन तक भी चल सकती है। आरोपपत्र दायर होने के बाद भी आवेदक को अग्रिम जमानत देने की हाईकोर्ट की शक्ति समाप्त नहीं होती है।

    खंडपीठ ने सुशीला मामले से उद्धृत किया, ''यदि दिए गए मामले के तथ्य आवेदक को अग्रिम जमानत देने के लिए हकदार बनाते हैं तो ऐसे में भले ही उसके खिलाफ आरोप पत्र दायर कर दिया गया हो और न्यायालय द्वारा उस पर संज्ञान भी ले लिया गया हो,दूसरी अग्रिम जमानत याचिका हाईकोर्ट के समक्ष सुनवाई योग्य होगी,बेशक आवेदक को पहले हाईकोर्ट द्वारा आरोप पत्र दायर करने तक अग्रिम जमानत दी गई थी।''

    वर्तमान याचिकाकर्ता को पहले सीआरपीसी की धारा 173 (2) के तहत पुलिस रिपोर्ट प्रस्तुत करने तक अग्रिम जमानत दी गई थी।

    मामले में जांच अधिकारी द्वारा आरोप पत्र दायर करने के बाद सीजेएम, अलीगढ़ ने याचिकाकर्ता को समन जारी किया था। जिसके बाद याचिकाकर्ता ने दूसरी बार अग्रिम जमानत की मांग करते हुए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।

    राज्य की ओर से पेश एजीए ने तर्क दिया था कि जब एक बार आवेदक को अग्रिम जमानत दे दी गई है और उसने ऐसी जमानत का लाभ भी उठा लिया है, तो ऐसी कोई परिस्थिति नहीं है जहां मुकदमे के समापन तक उसे अग्रिम जमानत दी जा सके।

    एजीए ने कहा कि,''चूंकि चार्जशीट दायर कर दी गई है और सीजेएम द्वारा उस पर संज्ञान भी ले लिया गया है, इसलिए आवेदक सीआरपीसी की धारा 439 के तहत नियमित जमानत के लिए आवेदन कर सकता है या वह चार्जशीट और सीजेएम द्वारा पारित समन के आदेश को चुनौती दे सकता है।''

    उन्होंने सलाउद्दीन अब्दुल समद शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य, (1996) VI ससीसी 667 मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले का हवाला दिया। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि जब सत्र न्यायालय या हाईकोर्ट द्वारा अग्रिम जमानत दी जाती है, तो यह अधूरी जाँच का चरण होता है। अपराधी के खिलाफ अपराध की प्रकृति अदालत के समक्ष नहीं होती है, इसलिए, अग्रिम जमानत का आदेश केवल सीमित अवधि का होना चाहिए और उपरोक्त अवधि समाप्त होने के बाद मामले को नियमित अदालत पर छोड़ देना चाहिए ताकि वह इस पर विचार कर सकें और अग्रिम जमानत देने वाली अदालत को मूल अदालत की स्थानापन्न/प्रतिनिधि नहीं बनना चाहिए।

    न्यायमूर्ति सिद्धार्थ ने हालांकि कहा कि उपरोक्त मामला अदालत पर अग्रिम जमानत देने के लिए कोई प्रतिबंध या पूर्ण रोक नहीं लगाता है, यहां तक कि उन मामलों में भी नहीं,जिनमें या तो संज्ञान ले लिया गया है या चार्जशीट दायर कर दी गई है।

    न्यायाधीश ने कहा कि सलाउद्दीन का मामला ''केवल एक दिशानिर्देश देता है जो किसी अभियुक्त के खिलाफ प्रथम दृष्टया बनाए गए मामले, संज्ञान लेने और आरोप पत्र दायर करने के तथ्य पर विचार करते समय निष्कर्ष पर आने के लिए कुछ सहायता कर सके कि क्या अभियुक्त अग्रिम जमानत का हकदार है या नहीं?''

    न्यायाधीश ने आगे कहा कि इस मामले को सुशीला अग्रवाल मामले (सुप्रा) में 5 न्यायाधीशों की खंडपीठ द्वारा खारिज कर दिया गया है।

    याचिकाकर्ता के वकील ने अनिरुद्ध प्रसाद उर्फ साधु यादव बनाम बिहार राज्य, (2006) मामले में दिए गए फैसले की ओर भी अदालत का ध्यान आकर्षित किया। जिसमें शीर्ष कोर्ट ने पटना हाईकोर्ट को निर्देश दिया था कि वह उस आवेदक की जमानत याचिका पर विचार करें, जिसने पुलिस रिपोर्ट प्रस्तुत दायर करने के बाद अग्रिम जमानत के लिए दूसरी याचिका दायर की थी।

    इसलिए, वर्तमान याचिका को स्वीकार कर लिया गया।

    केस शीर्षकः आदिल बनाम यूपी राज्य

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