आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने सिविल न्यायालयों द्वारा 'आवश्यक कानूनी सामग्री पर विचार किए बिना' निषेधाज्ञा आदेश पारित करने पर चिंता जताई
Shahadat
3 Oct 2023 1:13 PM IST
आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने अंतरिम निषेधाज्ञा के मामलों में अक्सर दायर किए जा रहे हल्के/संक्षिप्त हलफनामों पर नाराजगी व्यक्त की है और न्यायाधीशों द्वारा प्रत्येक मामले में "आवश्यक कानूनी सामग्री पर विचार किए बिना" आदेश पारित किए जा रहे हैं।
बेंच ने एलआर के माध्यम से मारिया मार्गरिडा सिकेरा फर्नांडीस और अन्य बनाम इरास्मो जैक डी सिकेरा (मृत) (2012) मामले पर भरोसा किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने राय दी कि सिविल मामले का भाग्य अक्सर अंतरिम आदेश देने या अस्वीकार करने से तय होता है। इसलिए न्यायिक अधिकारियों द्वारा सावधानी बरती जानी चाहिए।
मामले के तथ्य
इस मामले के तथ्यों के अनुसार, पत्नी और उसके नाबालिग बच्चे द्वारा वाद अनुसूची संपत्तियों के बंटवारे के लिए मुकदमा दायर किया गया। बिना वसीयत किए उसके पति की मृत्यु के बाद प्रतिवादी यानी ससुराल वालों ने उसे घर में रहने की अनुमति देने से इनकार कर दिया। उन्होंने संपत्तियों के हस्तांतरण पर रोक लगाने के लिए आदेश 39 नियम 1 सीपीसी के तहत अंतरिम आवेदन भी दायर किया। दोनों पक्षों को सुनने के बाद आवेदन को अनुमति देने वाला आक्षेपित आदेश पारित किया गया।
प्रतिवादियों/अपीलकर्ताओं के वकील एम. चलपति राव ने अंतरिम आवेदन में आदेश पर सवाल उठाया। उन्होंने तर्क दिया कि मुकदमा अनुसूची संपत्तियां मृतक के पिता की स्व-अर्जित संपत्तियां हैं और इस पहलू को ट्रायल कोर्ट ने नजरअंदाज कर दिया।
जवाब में प्रतिवादी वकील पीएसपी सुरेश कुमार ने बताया कि ट्रायल कोर्ट ने नाबालिग और उसकी मां के हितों की रक्षा के लिए सही निर्णय लिया, क्योंकि संपत्ति के हस्तांतरित होने का खतरा था और प्रतिवादियों को यथास्थिति बनाए रखने से कोई नुकसान नहीं होगा।
न्यायालय का अवलोकन
जस्टिस डीवीएसएस सोमयाजुलु और जस्टिस दुप्पाला वेंकट रमण की खंडपीठ ने कहा कि दायर अंतरिम आवेदन में केवल 'प्रथम दृष्टया' मामले और 'सुविधा के संतुलन' के पहलू को थोड़ा-सा छुआ गया है, लेकिन दायर किया गया जवाब विस्तृत है और इसमें कई दलीलें हैं।
इसमें कहा गया कि कानून तय है कि केवल पूछने मात्र से निषेधाज्ञा नहीं दी जा सकती और याचिकाकर्ता को यह साबित करना होगा कि अंतिम सुनवाई होने तक मौजूदा स्थिति को बनाए रखने के लिए आदेश आवश्यक है।
कोर्ट ने कहा,
याचिकाकर्ता को प्रथम दृष्टया यह साबित करना होगा कि खतरा है और संपत्ति को हस्तांतरित होने से बचाने की जरूरत है।
कोर्ट ने पाया कि हलफनामे में पूरी तरह से ब्योरा नहीं दिया गया। आवेदन में ऐसा कोई उल्लेख नहीं था कि संपत्ति हस्तांतरित की जा रही थी, या कोई बाधा पैदा की जा रही थी। फिर भी ट्रायल कोर्ट द्वारा निषेधाज्ञा दी गई थी।
मामले की परिस्थितियों में आक्षेपित आदेश रद्द कर दिया गया। मामले को ख़त्म करने से पहले न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियां कीं:
1. हलफनामे/आवेदन का मसौदा तैयार करने वाले वकील और आदेश पारित करने वाली अदालतें दोनों ही ऐसे मामलों में बहुत सावधान और मेहनती होने के बाध्य कर्तव्य के तहत हैं, क्योंकि अंतरिम मामले ज्यादातर हलफनामों पर तय किए जाते हैं।
2. बिना विवरण के हल्के हलफनामे राहत देने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। यदि बेदखली/विध्वंस/अलगाव का खतरा है तो खतरे का उचित स्पष्टता के साथ वर्णन किया जाना चाहिए। यदि किसी अधिकार का उल्लंघन हुआ है तो उल्लंघन का तरीका उचित स्पष्टता के साथ बताया जाना चाहिए। कथित चोट को भी स्पष्ट किया जाना चाहिए।
3. निषेधाज्ञा के लिए आवेदन का मसौदा तैयार करने वाले वकीलों को विषय पर स्थापित कानून पर ध्यान देना चाहिए और पर्याप्त स्पष्टता और विवरण के साथ हलफनामा तैयार करना चाहिए। खतरा या आशंका; अधिकार का उल्लंघन होने की संभावना आदि को स्पष्टता के साथ समझाया जाना चाहिए, जिससे न्यायालय प्रस्तुत तथ्यों के आधार पर आदेश देने में सक्षम हो सके।
4. जहां तक अदालतों का सवाल है, उनका भी कर्तव्य है कि दायर किए गए हलफनामों का सावधानीपूर्वक विश्लेषण करें, जिससे यह तय किया जा सके कि क्या कोई उल्लंघन या खतरा है, जिसके कारण सुरक्षा के आदेश की आवश्यकता है। जिस प्रकार उक्त उल्लंघन, धमकी आदि का वर्णन किया गया है, उस पर विचार किया जाना चाहिए। संभावित चोट का पता लगाने में सक्षम होना चाहिए। आदेश देने से पहले स्पष्टता होनी चाहिए। प्रथम दृष्टया मामला; सुविधा का संतुलन और अपूरणीय क्षति कोरे वाक्यांश नहीं हैं।
इन टिप्पणियों के साथ सिविल विविध अपील की अनुमति दी गई।
अपीलकर्ता के वकील: एम. चलपति राव और प्रतिवादी के वकील: पीएसपी सुरेश कुमार