राष्ट्रीयकृत बैंक कर्मचारी 'लोक सेवक', लेकिन सीआरपीसी की धारा 197 के तहत सुरक्षा उसे उपलब्ध नहीं: सुप्रीम कोर्ट
Avanish Pathak
9 Aug 2023 3:47 PM IST
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि राष्ट्रीयकृत बैंक में कार्यरत व्यक्ति को सीआरपीसी की धारा 197 की सुरक्षा उपलब्ध नहीं है।
जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस जे बी पारदीवाला की पीठ ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 197 केवल उन मामलों में लागू होती है, जहां लोक सेवक ऐसा होता है, जिसे सरकार की अनुमति के बिना सेवा से हटाया नहीं जा सकता है।
मौजूदा मामले में आरोपी स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, ओवरसीज बैंक, हैदराबाद में सहायक महाप्रबंधक के रूप में कार्यरत थे। उन पर आरोप था कि उन्होंने अन्य सह-अभियुक्तों के साथ मिलकर मेसर्स स्वेन जेनेटेक लिमिटेड, सिकंदराबाद के पक्ष में 22.50 करोड़ रुपये का कॉर्पोरेट ऋण स्वीकृत करके बैंक को धोखा देने की साजिश रची।
उनके खिलाफ भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 120-बी सहपठित धारा 420, 468 और 471 के तहत एफआईआर दर्ज की गई। एफआईआर को रद्द करने की मांग को लेकर उन्होंने तेलंगाना हाईकोर्ट में याचिका दायर की, जिसे खारिज कर दिया गया।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपील में उन्होंने निम्न मुद्दे उठाए-
(i) क्या अपीलकर्ता, जो भारतीय स्टेट बैंक, ओवरसीज बैंक में सहायक महाप्रबंधक के रूप में सेवारत है, उसे सरकार द्वारा या उसकी अनुमति के बिना पद से हटाया जा सकता है, ताकि सीआरपीसी की धारा 197 को लागू किया जा सके?
(ii) क्या विशेष न्यायालय (सीबीआई) के लिए अपीलकर्ता के खिलाफ आईपीसी के तहत दंडनीय अपराधों के लिए आगे बढ़ना स्वीकार्य है, इस तथ्य के बावजूद कि पीसी एक्ट, 1988 के तहत अपराधों के लिए अपीलकर्ता पर मुकदमा चलाने के लिए पीसी एक्ट, 1988 की धारा 19 के तहत मंजूरी, रिकॉर्ड पर नहीं है, क्योंकि इसे अस्वीकार कर दिया गया था?
पहले सवाल का उत्तर देने के लिए अदालत ने सीआरपीसी की धारा 197 के प्रावधानों पर गौर किया और कहा,
"यद्यपि राष्ट्रीयकृत बैंक में काम करने वाला व्यक्ति एक लोक सेवक है, फिर भी सीआरपीसी की धारा 197 के प्रावधान बिल्कुल भी लागू नहीं होंगे क्योंकि धारा 197 केवल उन मामलों में लागू होती है, जहां लोक सेवक ऐसा है जिसे उसकी सेवा से सरकार द्वारा या उसकी अनुमति के बिना हटाया नहीं जा सकता है। इसमें कोई विवाद नहीं है कि अपीलकर्ता कोई ऐसा पद धारण नहीं कर रहा है, जहां उसे सरकार की अनुमति के बिना सेवा से हटाया नहीं जा सकता है। भले ही आरोप है कि यहां अपीलकर्ता एक लोक सेवक है, फिर भी सीआरपीसी की धारा 197 के प्रावधान बिल्कुल भी लागू नहीं होते हैं।''
एक अन्य तर्क यह उठाया गया कि चूंकि पीसी एक्ट, 1988 की धारा 19 के तहत अनुमति नहीं दी गई है, अपीलकर्ता पर केवल आईपीसी के तहत अपराधों के लिए मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है और उसे आपराधिक कार्यवाही से मुक्त किया जाना चाहिए। इस संबंध में कोर्ट ने कहा,
"ऐसा कोई नियम नहीं हो सकता है कि विशेष न्यायाधीश की अदालत के समक्ष अभियोजन में, पीसी एक्ट, 1988 की धारा 19 के तहत पूर्व अनुमति हमेशा एकमात्र शर्त होगी। जिन अपराधों के आरोप में लोक सेवक पर मुकदमा चलाया जाना अपेक्षित है, यदि उनमें पीसी एक्ट, 1988 के अलावा सामान्य कानून ( यानि आईपीसी) के तहत दंडनीय अपराध भी शामिल हैं, अदालत संज्ञान के समय और, यदि आवश्यक हो, बाद के चरणों में (जैसे-जैसे मामला आगे बढ़ता है) यह जांच करने के लिए बाध्य है कि क्या सीआरपीसी की धारा 197 के तहत अनुमति की आवश्यकता है।
यदि अपराध का आरोप है, तो लोक सेवक है मुकदमे में रखे जाने की उम्मीद में पीसी अधिनियम, 1988 के तहत दंडनीय अपराधों के अलावा अन्य अपराध भी शामिल हैं, यानी सामान्य कानून (यानी आईपीसी) के तहत, अदालत संज्ञान के समय और यदि आवश्यक हो, तो जांच करने के लिए बाध्य है। बाद के चरणों में (जैसे-जैसे मामला आगे बढ़ता है) कि क्या सीआरपीसी की धारा 197 के तहत मंजूरी की आवश्यकता है।
एक ओर पीसी एक्ट, 1988 की धारा 19 और दूसरी ओर सीआरपीसी की धारा 197 की वैधानिक आवश्यकताओं के बीच एक भौतिक अंतर है। विशेष रूप से पीसी एक्ट, 1988 के तहत अपराधों के अभियोजन में, लोक सेवक के मामले में मंजूरी अनिवार्य है। लोक सेवक के खिलाफ सामान्य दंड कानून के तहत मामलों में, सीआरपीसी की धारा 197 के तहत मंजूरी की आवश्यकता (या अन्यथा) तथ्यात्मक पहलुओं पर निर्भर करती है।"
केस टाइटल: ए. श्रीनिवास रेड्डी बनाम राकेश शर्मा | 2023 लाइव लॉ (एससी) 614 | 2023 आईएनएससी 682