सुप्रीम कोर्ट ने धन जमा करने की पेशकश करके तथा बाद में शर्त को चुनौती देकर जमानत प्राप्त करने की रणनीति को बताया बोझिल
Shahadat
23 Jun 2025 4:09 PM IST

सुप्रीम कोर्ट ने पक्षकारों द्वारा स्वेच्छा से पर्याप्त राशि जमा करने की पेशकश करने के पश्चात न्यायालयों से अग्रिम/नियमित जमानत आदेश प्राप्त करने की प्रथा की कड़ी निंदा की, लेकिन बाद में अपने बयानों से मुकर गए तथा हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। दावा किया कि जमानत प्रदान करते समय लगाई गई शर्त बोझिल है या संबंधित वकील के पास बयान देने का अधिकार नहीं है।
जस्टिस केवी विश्वनाथन तथा जस्टिस एन कोटिश्वर सिंह की खंडपीठ ने कहा,
"हम इस प्रथा की कड़ी निंदा करते हैं...हमें न्यायिक प्रक्रिया की पवित्रता के प्रति सचेत रहना होगा। हम पक्षकारों को न्यायालय के साथ छल-कपट करने की अनुमति नहीं दे सकते...हम पक्षकारों को रिहाई के आदेश प्राप्त करने के लिए उनके द्वारा अपनाए गए किसी उपाय का लाभ उठाने की अनुमति नहीं दे सकते।"
न्यायालय ने कहा कि पक्षकारों द्वारा सुप्रीम कोर्ट के समक्ष इस प्रकार के दावे करने की प्रथा "आम बात" बनती जा रही है, जिसके परिणामस्वरूप हाईकोर्ट द्वारा गुण-दोष के आधार पर मामलों पर विचार करना बंद हो गया।
कोर्ट ने कहा,
"इस बात पर कोई विवाद नहीं हो सकता कि अत्यधिक जमानत कोई जमानत नहीं है। जमानत देते समय कठोर शर्तें नहीं लगाई जानी चाहिए। कठोर शर्त क्या है, यह व्यक्तिगत मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। परेशान करने वाली बात यह है कि जब स्वेच्छा से राशि जमा करने की पेशकश करके और उसके बाद यह कहकर मुकर जाते हैं कि वकील के पास कोई अधिकार नहीं है या शर्त कठोर है तो जमानत आवेदनों पर विचार करने से रोकने का प्रयास किया जाता है। हम इस प्रथा का समर्थन नहीं कर सकते।"
पक्षकारों द्वारा अपनाई गई प्रथा रेखांकित करते हुए खंडपीठ ने दर्ज किया:
"जब पक्ष अग्रिम/नियमित जमानत के लिए आवेदन करते हैं तो उनके वकील द्वारा स्वेच्छा से यह प्रस्ताव दिया जाता है कि वे अपनी ईमानदारी दिखाने और अपनी स्वतंत्रता को सुरक्षित करने के लिए पर्याप्त राशि जमा करेंगे। इसके बाद जो होता है, वह यह है कि जमानत आवेदनों की सुनवाई करने वाली अदालतों को मामले की योग्यता पर विचार करने से रोक दिया जाता है। वकील द्वारा राशि जमा करने की इच्छा के बारे में प्रस्तुत किए गए आदेशों को दर्ज किया जाता है और अग्रिम/नियमित जमानत के आदेश दिए जाते हैं। इसके बाद हाईकोर्ट के समक्ष शिकायत की जाती है कि जमानत के लिए लगाई गई शर्त भारी और अवैध है..."
अदालत CGST Act के तहत आरोपी की जमानत के मामले पर विचार कर रही थी, जहां 13.7 करोड़ रुपये की कर चोरी के आरोप हैं। उसे 27 मार्च 2025 को गिरफ्तार किया गया था।
याचिकाकर्ता की जमानत याचिका मद्रास हाईकोर्ट के समक्ष आई तो उसके वकील ने बयान दिया कि याचिकाकर्ता ने पहले ही 2.8 करोड़ रुपये जमा कर दिए और वह बिना किसी पूर्वाग्रह के 2.5 करोड़ रुपये की और राशि जमा करने को तैयार है। प्रस्तुतियों पर विचार करते हुए हाईकोर्ट ने बिना किसी और चर्चा के याचिकाकर्ता को 2.5 करोड़ रुपये जमा करने के निर्देश के साथ जमानत दे दी (रिहाई के लिए 50 लाख रुपये जमा करने होंगे)।
इसके बाद हाईकोर्ट ने अपने आदेश में संशोधन किया और याचिकाकर्ता को रिहाई के बाद 2.5 करोड़ रुपये की पूरी राशि जमा करने की छूट दी। ऐसा न करने पर जमानत आवेदन खारिज माना जाना है। इस आदेश को चुनौती देते हुए याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
याचिकाकर्ता की ओर से सीनियर एडवोकेट वी चिदंबरेश ने तर्क दिया कि जमानत देते समय न्यायालय द्वारा कठोर शर्तें नहीं लगाई जा सकतीं। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि हाईकोर्ट के समक्ष याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील के पास राशि जमा करने का अधिकार नहीं है।
इसके जवाब में न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्ता के संशोधन आवेदन में स्वैच्छिक जमा की पेशकश करने के लिए वकील को अधिकृत नहीं किए जाने के बारे में कोई कथन नहीं किया गया।
खंडपीठ ने कहा,
"यदि शुरू में ही धन जमा करने की पेशकश नहीं की गई होती तो हाईकोर्ट मामले पर गुण-दोष के आधार पर विचार कर सकता था और याचिकाकर्ता को राहत दे सकता है या नहीं दे सकता। आज, याचिकाकर्ता अनुमोदन और खंडन कर रहा है। हम अनुच्छेद 21 के तहत उसके अधिकारों के प्रति सचेत हैं, लेकिन हमें न्यायिक प्रक्रिया की पवित्रता के प्रति भी उतना ही सचेत रहना होगा।"
सुप्रीम कोर्ट ने शुरू में हाईकोर्ट के आदेशों को खारिज कर दिया, याचिकाकर्ता को 1 सप्ताह के भीतर ट्रायल कोर्ट के समक्ष आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया और मामले को गुण-दोष के आधार पर विचार के लिए हाईकोर्ट को वापस भेज दिया। हालांकि, बाद में संशोधन आवेदन में किए गए कथनों (याचिकाकर्ता की पत्नी के गर्भवती होने और उसके वृद्ध पिता की जिम्मेदारी होने के संबंध में) पर विचार करते हुए न्यायालय जमानत पर रिहाई के लिए अंतरिम आदेश के रूप में भुगतान के आदेश को बनाए रखने के लिए इच्छुक था।
Case Title: KUNDAN SINGH Versus THE SUPERINTENDENT OF CGST AND CENTRAL EXCISE, SLP(Crl) No. 9111/2025

