एससी / एसटी एक्ट - आरोपी पर ट्रायल चलाने से पहले यह वांछनीय है कि जाति संबंधी कथनों को एफआईआर या चार्जशीट में रेखांकित किया गया हो : सुप्रीम कोर्ट

LiveLaw News Network

27 May 2023 12:16 PM IST

  • एससी / एसटी एक्ट - आरोपी पर ट्रायल चलाने से पहले यह वांछनीय है कि जाति संबंधी कथनों को एफआईआर या चार्जशीट में रेखांकित किया गया हो : सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में कहा है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3(1)(x) के तहत कथित अपराध के लिए किसी आरोपी पर ट्रायल चलाने से पहले, यह वांछनीय है कि जाति संबंधी कथनों को या तो एफआईआर में या कम से कम चार्जशीट में रेखांकित किया गया हो । पीठ ने कहा कि ये मामले का संज्ञान लेने से पहले यह पता लगाने में सक्षम होगा कि क्या अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति अधिनियम के तहत अपराध के लिए मामला बनता है (रमेश चंद्र वैश्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य)।

    "चूंकि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 18 धारा 438, सीआरपीसी के तहत अदालत के अधिकार क्षेत्र के आह्वान पर रोक लगाती है और अन्य कानूनों पर अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम के ओवरराइडिंग प्रभाव के संबंध में, यह वांछनीय है कि एक अभियुक्त को धारा 3(1)(x) के तहत अपराध के कथित गठन के लिए एक ट्रायल के अधीन होने से पहले , उसके द्वारा सार्वजनिक दृश्य के किसी भी स्थान पर किए गए बयानों को रेखांकित किया गया हो, यदि एफआईआर में नहीं है (जो सभी तथ्यों और घटनाओं का एक विश्वकोश होना आवश्यक नहीं है), लेकिन कम से कम चार्जशीट में (जो या तो जांच के दौरान या अन्यथा रिकॉर्ड किए गए गवाहों के बयानों के आधार पर तैयार किया गया है) ताकि अदालत को यह पता लगाने में सक्षम बनाया जा सके क्या चार्जशीट एससी/एसटी अधिनियम के तहत एक अपराध का मामला बनाती है, जो अपराध का संज्ञान लेने से पहले, इससे पहले की स्थिति के परिप्रेक्ष्य में एक उचित राय बनाने के लिए प्रतिबद्ध है।"

    जस्टिस एस रवींद्र भट और जस्टिस दीपांकर दत्ता की पीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती देने वाली एक विशेष अनुमति याचिका का फैसला करते हुए उक्त विचार व्यक्त किया, जिसमें उसने अभियुक्त (अपीलकर्ता) के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की मांग करने वाली याचिका को खारिज कर दिया था। आरोप है कि शिकायतकर्ता और उसके परिवार के सदस्यों को जातिसूचक गालियां दी गईं।

    तथ्यात्मक पृष्ठभूमि

    अभियोजन पक्ष का मामला यह है कि शिकायतकर्ता के साथ विवाद में शामिल होने के दौरान, अपीलकर्ता ने शिकायतकर्ता और उसके परिवार के सदस्यों के प्रति जातिगत गालियां दीं। उसने शिकायतकर्ता के साथ मारपीट भी की थी। इसके बाद, अपीलकर्ता के खिलाफ धारा 323 (स्वेच्छा से चोट पहुंचाने की सजा) और 504 आईपीसी (शांति भंग करने के इरादे से जानबूझकर अपमान) और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989की धारा 3 (1) (x) के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई थी। (अत्याचार अपराधों के लिए सजा) । एक दिन में जांच की गई और फलस्वरूप चार्जशीट दायर की गई।

    अपीलकर्ता ने दावा किया कि उसका इरादा उसी घटना के संबंध में प्राथमिकी दर्ज करने का भी था, क्योंकि शिकायतकर्ता और उसके बेटे द्वारा उसे बुरी तरह पीटा गया था। लेकिन उनकी एफआईआर दर्ज नहीं हुई। अपीलकर्ता को धारा 151 (संज्ञेय अपराध के गठन को रोकने के लिए गिरफ्तारी), 107 (अन्य मामलों में शांति बनाए रखने के लिए सुरक्षा) और 116 (सूचना की सच्चाई के रूप में पूछताछ) सीआरपीसी के तहत चालान और हिरासत में लिया गया था। एक बार जमानत पर रिहा होने के बाद, अपीलकर्ता ने धारा 156 (3) सीआरपीसी (पुलिस अधिकारी की संज्ञेय अपराध की जांच करने की शक्ति) के तहत एक आवेदन दायर किया। मजिस्ट्रेट के आदेश के अनुसार शिकायत करने वाले के खिलाफ धारा 323, 325 (स्वेच्छा से गंभीर चोट पहुंचाने की सजा), 392 (डकैती की सजा), 452 (चोट, मारपीट या गलत तरीके से रोकने की तैयारी के बाद घर में जबरन घुसना), 504, 506 आईपीसी (आपराधिक धमकी के लिए सजा) के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई थी। अपीलकर्ता ने अपीलकर्ता की भूमि पर स्थायी अतिक्रमण के लिए शिकायतकर्ता के खिलाफ स्थायी निषेधाज्ञा की मांग करते हुए एक वाद भी चलाया था।

    अपीलकर्ता ने इलाहाबाद हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और चार्जशीट को चुनौती दी और उसके खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की मांग की। हाईकोर्ट ने अपीलकर्ता को अंतरिम राहत देते हुए जांच एजेंसी को निर्देश दिया था कि आवेदन पर विचार होने तक कोई भी कठोर कार्रवाई न करें। हालांकि, गुण-दोष के आधार पर मामले की सुनवाई के बाद, हाईकोर्ट ने धारा 482 सीआरपीसी ( हाईकोर्ट की निहित शक्ति ) के तहत अपीलकर्ता के आवेदन को खारिज कर दिया।

    सुप्रीम कोर्ट द्वारा विश्लेषण

    अदालत ने कहा कि शिकायतकर्ता के कहने पर दर्ज की गई प्राथमिकी में घटना के स्थान का खुलासा नहीं किया गया है, जब जाति संबंधी गालियां दी गईं तो जहां मौजूद लोग थे। हालांकि, अपीलकर्ता की प्राथमिकी इंगित करती है कि घटना अपीलकर्ता के घर पर हुई थी।

    न्यायालय ने निम्नलिखित मुद्दों को निकाला -

    1. क्या यह सार्वजनिक दृष्टि से किसी स्थान पर था कि अपीलकर्ता ने अपमान करने के इरादे से शिकायतकर्ता को जाति संबंधी गालियां दीं या उसे अपमानित करने के इरादे से धमकाया - अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष ने तीन गवाहों (शिकायतकर्ता, उसकी पत्नी और उनके बेटे) से यह निष्कर्ष निकाला कि जिस समय कथित बातें कहीं गईं उस समय जनता का कोई सदस्य उपस्थित नहीं था। यह देखा गया कि चूंकि अपीलकर्ता द्वारा दिया गया बयान सार्वजनिक दृष्टि से किसी भी स्थान पर नहीं था, इसलिए अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 3(1)(x) को लागू करने के लिए मूल घटक नहीं बनता है। इसने आगे कहा - "विधायी मंशा स्पष्ट प्रतीत होती है कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 3(1)(x) के तहत हर अपमान या धमकी को एक व्यक्ति के खिलाफ अपराध नहीं माना जाएगा, जब तक कि इस तरह के अपमान या डराने-धमकाने का उद्देश्य पीड़ित को लक्षित करना न हो क्योंकि वह किसी विशेष अनुसूचित जाति या जनजाति का सदस्य है।"

    धारा 3(1)(x) को आकर्षित करने के लिए उक्तियों को जातिवादी टिप्पणियों से जोड़ा जाना चाहिए।

    1. क्या अपीलकर्ता के खिलाफ धारा 323 और 504, आईपीसी के तहत दंडनीय अपराधों के आरोप का सामना करने के मद्देनजर अपीलकर्ता के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही की अनुमति दी जानी चाहिए - आईपीसी की धारा 323 स्वेच्छा से चोट पहुंचाने के लिए सजा निर्धारित करती है। अदालत ने कहा कि हालांकि शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया था कि उसे कई चोटें आई हैं, चार्जशीट में उसकी पत्नी और बेटे के अलावा किसी भी चश्मदीद गवाह या किसी मेडिकल रिपोर्ट का जिक्र नहीं है। प्राथमिकी या आरोपपत्र में चोट की प्रकृति का कोई उल्लेख नहीं है। दूसरी ओर अपीलकर्ता को चोटें आई थीं जिनका घटना के तुरंत बाद इलाज किया गया था। आईपीसी की धारा 504 के संबंध में अदालत ने कहा कि मामले की परिस्थितियों में इसे लागू नहीं किया जा सकता था।

    जांच की प्रकृति के संबंध में न्यायालय ने कहा,

    "किसी दिए गए मामले में एक दिन के भीतर जांच पूरी करने की सराहना की जा सकती है, लेकिन वर्तमान मामले में इसका परिणाम न्याय के लिए सेवा की तुलना में हानि अधिक है। स्थिति तब और भी स्पष्ट हो जाती है जब इस कार्यवाही के दौरान प्रथम प्रतिवादी (जांच एजेंसी) सहित पक्ष हमें दूसरी प्राथमिकी के परिणाम से अवगत कराने में असमर्थ होते हैं।

    याचिका को स्वीकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा,

    "हम रिकॉर्ड करते हैं कि हाईकोर्ट ने उचित परिप्रेक्ष्य में चार्जशीट सहित आपराधिक कार्यवाही की चुनौती की सराहना करने में असफल होने और इस तरह की चुनौती को खारिज करने में न्याय की गंभीर विफलता का अवसर दिया।"

    केस विवरण- रमेश चंद्र वैश्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य।। 2023 लाइवलॉ SC 469 | एसएलपी (सीआरएल) संख्या 1249/2023 | 19 मई, 2023| जस्टिस एस रवींद्र भट और जस्टिस दीपांकर दत्ता

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