IPC की धारा 498A का गलत इस्तेमाल: सबूत नहीं मिलने पर सुप्रीम कोर्ट ने 26 साल पुराने दहेज उत्पीड़न केस में पति को बरी किया

Shahadat

15 May 2025 10:28 AM IST

  • IPC की धारा 498A का गलत इस्तेमाल: सबूत नहीं मिलने पर सुप्रीम कोर्ट ने 26 साल पुराने दहेज उत्पीड़न केस में पति को बरी किया

    सुप्रीम कोर्ट ने पत्नी और उसके रिश्तेदारों द्वारा बिना ठोस सबूत के पति और ससुराल वालों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498ए (क्रूरता के मामले) के 'क्रूर दुरुपयोग' के खिलाफ चेतावनी दी।

    अदालत ने कहा,

    "क्रूरता" शब्द का पक्षकारों द्वारा क्रूर दुरुपयोग किया जाता है और इसे बिना किसी विशिष्ट उदाहरण के सरलता से स्थापित नहीं किया जा सकता है। किसी विशिष्ट तिथि, समय या घटना का उल्लेख किए बिना इन धाराओं को जोड़ने की प्रवृत्ति अभियोजन पक्ष के मामले को कमजोर करती है। शिकायतकर्ता के संस्करण की व्यवहार्यता पर गंभीर संदेह पैदा करती है।"

    जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस एससी शर्मा की खंडपीठ ने अपीलकर्ता-पति को IPC की धारा 498ए और दहेज निषेध अधिनियम की धारा 4 के तहत आरोपों से बरी करते हुए ये टिप्पणियां कीं। आरोप है कि उसने अपनी पत्नी के साथ क्रूरता की और दहेज की मांग की। FIR वर्ष 1999 में दर्ज की गई थी।

    पत्नी ने आरोप लगाया कि अपीलकर्ता ने उसे शारीरिक और मानसिक क्रूरता के साथ प्रताड़ित किया, जिसमें लात-घूंसे मारना, नशीले पदार्थों का जबरन सेवन और अपमान शामिल है। उसने यह भी दावा किया कि उसने 2 लाख रुपये की दहेज की मांग की और मारपीट के जरिए गर्भपात करवाया। हालांकि इस दावे का समर्थन करने के लिए कोई मेडिकल सबूत नहीं दिया गया। उल्लेखनीय है कि दंपति ने अपनी शादी के बाद केवल 12 दिनों तक ही साथ रहा।

    जस्टिस शर्मा द्वारा लिखे गए फैसले में कहा गया कि अपीलकर्ता के खिलाफ लगाए गए आरोप अस्पष्ट, बहुविकल्पीय थे। उनमें कोई विशिष्टता नहीं थी (कोई तारीख, समय या स्वतंत्र गवाह नहीं)।

    दारा लक्ष्मी नारायण और अन्य बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य में हाल ही में दिए गए फैसले पर भरोसा करते हुए, जिसमें न्यायालय ने विश्वसनीय साक्ष्य के बिना पतियों और उनके परिवार के सदस्यों के खिलाफ क्रूरता के मामले दर्ज करने की बढ़ती प्रवृत्ति पर अपनी चिंता दोहराई। इसने पाया कि इस तरह का दुरुपयोग न केवल अभियोजन पक्ष के मामले को कमजोर करता है, बल्कि शिकायतकर्ता-पत्नी के आरोपों की विश्वसनीयता पर भी गंभीर संदेह पैदा करता है।

    खंडपीठ ने कहा,

    “मामले के गुण-दोष के बावजूद, हम इस बात से व्यथित हैं कि किस तरह से IPC की धारा 498ए और DP Act, 1961 की धारा 3 और 4 के तहत अपराधों को शिकायतकर्ता पत्नियों द्वारा दुर्भावनापूर्ण तरीके से फंसाया जा रहा है, जिसमें वृद्ध माता-पिता, दूर के रिश्तेदार, अलग-अलग रहने वाली विवाहित बहनें शामिल हैं, जिन्हें वैवाहिक मामलों में आरोपी बनाया गया। पति के हर रिश्तेदार को शामिल करने की यह बढ़ती प्रवृत्ति, शिकायतकर्ता पत्नी या उसके परिवार के सदस्यों द्वारा लगाए गए आरोपों की सत्यता पर गंभीर संदेह पैदा करती है और एक सुरक्षात्मक कानून के उद्देश्य को ही नष्ट कर देती है।”

    अदालत ने आगे कहा,

    "हम आपराधिक शिकायत में छूटी हुई बारीकियों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते, जो राज्य की आपराधिक मशीनरी को लागू करने का आधार है। जैसा भी हो, हमें सूचित किया गया कि अपीलकर्ता का विवाह पहले ही भंग हो चुका है। तलाक का आदेश अंतिम रूप ले चुका है। इसलिए अपीलकर्ता के खिलाफ़ आगे कोई भी मुकदमा चलाना क़ानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग करने के समान होगा।"

    तदनुसार, अपील को अनुमति दी गई।

    केस टाइटल: राजेश चड्ढा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य

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