न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता जो सेवा में रहते हुए राजद्रोह कानून के दुरुपयोग और बहुसंख्यकवाद के खिलाफ खुलकर बोले, जानिए उनके द्वारा दिए गए प्रमुख फैसले

LiveLaw News Network

7 May 2020 2:08 AM GMT

  • न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता जो सेवा में रहते हुए राजद्रोह कानून के दुरुपयोग और बहुसंख्यकवाद के खिलाफ खुलकर बोले, जानिए उनके द्वारा दिए गए प्रमुख फैसले

    तीन साल से अधिक समय तक सुप्रीम कोर्ट में जज के रूप में काम करने वाले जस्टिस दीपक गुप्ता का बुधवार को शीर्ष अदालत में अंतिम कार्य दिवस था। उन्होंने 15 फरवरी, 2017 को एससी जज का पद ग्रहण किया था।

    लॉकडाउन के कारण सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने बुधवार शाम को न्यायमूर्ति गुप्ता को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से वर्चुअल फेयरवेल दी। सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में इस तरह का यह पहला मौका था, जब किसी न्यायाधीश को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से विदाई दी गई।

    कई उल्लेखनीय निर्णयों का हिस्सा रहे जस्टिस गुप्ता

    जस्टिस गुप्ता कई उल्लेखनीय निर्णयों का हिस्सा रह चुके हैं, परंतु उन्हें राजद्रोह कानून के दुरुपयोग और असहमतिपूर्ण आवाजों को दबाने की बढ़ती प्रवृत्ति पर उनके स्पष्ट और बेबाक भाषणों के लिए विशेष रूप से याद किया जाता है।

    सितंबर 2019 में अहमदाबाद में न्यायमूर्ति पीडी देसाई मेमोरियल लेक्चर में उन्होंने भाग लिया था और अपने विचार प्रकट किए थे।

    न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा था कि-

    ''पिछले कुछ वर्षों में कई ऐसे मामले सामने आए हैं , जहां राजद्रोह कानून या असामंजस्य पैदा करने के कानून का पुलिस ने दुरुपयोग किया है। इन मामलों में पुलिस ने ऐसे लोगों को गिरफ्तार करके प्रताड़ित किया है, जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ द्वारा देशद्रोह के अपराध के लिए दी गई निर्धारित व्यवस्था के अनुसार ऐसा अपराध नहीं किया था।

    आईपीसी धारा 124ए के प्रावधानों का जिस तरह से दुरूपयोग हो रहा है, उससे यह सवाल उठता है कि क्या हमें इस पर फिर से ध्यान देना चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संवैधानिक अधिकार होने के कारण राजद्रोह के कानूनों पर प्रधानता या तरजीह मिलनी चाहिए।''

    कार्यपालिका, न्यायपालिका, सशस्त्र सेनाओं की आलोचना राजद्रोह नहीं है : न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता

    सरकार पर सवाल उठाने वालों को देशद्रोही कहने की प्रवृत्ति पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा था कि-

    ''कोई व्यक्ति सत्ता में आई सरकार के साथ सहमत नहीं है या सत्ता में आई सरकार की आलोचना करता है, सिर्फ इस आधार उसे यह नहीं कहा जा सकता है कि वह देशभक्त नहीं है या सत्ता में बैठे लोगों की तुलना में उसकी देशभक्ती कम है। आज की दुनिया में, अगर कोई व्यक्ति कहना चाहता है कि ''राष्ट्रवाद एक है महान खतरा है'' तो उस पर पर राजद्रोह का आरोप लगाया जा सकता है।''

    उन्होंने यह भी कहा था कि-

    ''लोकतंत्र का एक बहुत महत्वपूर्ण पहलू यह है कि नागरिकों को सरकार से कोई डर नहीं होना चाहिए। उन्हें उन विचारों को व्यक्त करने में कोई डर महसूस नहीं होना चाहिए, जो सत्ता में रहने वाले लोगों को पसंद न आते हों। इसमें कोई संदेह नहीं है कि हिंसा को भड़काए बिना विचारों को सभ्य तरीके से व्यक्त किया जाना चाहिए, लेकिन इस तरह के विचारों की अभिव्यक्ति केवल कोई अपराध नहीं हो सकता है। वहीं इन्हें नागरिकों के खिलाफ उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। अगर लोग केस दायर होने या सोशल मीडिया पर ट्रोल होने के किसी डर के बिना अपनी राय रख पाएं तो यह दुनिया रहने के लिए एक बेहतर जगह होगी।''

    उन्होंने जोर देते हुए कहा कि कार्यपालिका, न्यायपालिका, नौकरशाही या सशस्त्र बलों की आलोचना को देशद्रोह नहीं कहा जा सकता।

    एससीबीए द्वारा पिछले साल फरवरी में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान न्यायमूर्ति गुप्ता ने बहुसंख्यकवाद या बहुमतवाद के खतरों के बारे में बात की थी। उन्होंने ने कहा कि बहुमतवाद लोकतंत्र का विरोधी है।

    उन्होंने कहा कि अगर किसी पार्टी को 51 प्रतिशत वोट मिलते हैं, तो इसका मतलब यह नहीं है कि अन्य 49 प्रतिशत को बिना किसी विरोध के वह सब स्वीकार कर लेना चाहिए, जो बहुमत वाली पार्टी करेगी।

    अगर किसी पार्टी को 51% वोट मिले हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि 49% लोग उसकी सारी बातें बिना किसी विरोध के मान लें : न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता

    उन्होंने कहा कि

    " भारत जैसे देश में जहां लोकतंत्र फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम पर आधारित है, वहां सत्ता में आने वाले मतदाताओं के बहुमत का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।"

    जस्टिस गुप्ता ने कहा कि असंतोष का अधिकार खुद जीवन के अधिकार का एक हिस्सा है।

    ''... असंतोष का अधिकार और सवाल करने का अधिकार न केवल लोकतंत्र का एक अंतर्निहित हिस्सा है, बल्कि यह स्वयं जीवन के अधिकार का निहित पक्ष भी हैं।''

    "अगर किसी देश को समग्र रूप से विकसित होना है तो न केवल आर्थिक विकास और सैन्य जरूरी है बल्कि नागरिकों के नागरिक अधिकारों की रक्षा भी की जानी चाहिए। सवाल करना, चुनौती देना, सत्यापन करना, सरकार से जवाब मांगना, ये हर नागरिक के अधिकार हैं। इन अधिकारों को वापस लेने से हम एक निर्विवाद, रुग्ण समाज बन जाएंगे, जो आगे विकसित नहीं हो पाएगा।''

    इस जबरदस्त भाषण के बाद, एससीबीए अध्यक्ष के वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने न्यायमूर्ति गुप्ता से कहा था कि ''आज के भय के माहौल में, आपने जो कहा है, वह बहुत सारे दिलों में जोश भर देगा।''

    दवे ने कहा था कि ''आपका व्याख्यान आज के समय में बहुत महत्व देगा क्योंकि आपने हमें बोलने के लिए प्रोत्साहित किया है।''

    विदाई समारोह में अटॉर्नी जनरल के.के वेणुगोपाल ने जस्टिस गुप्ता के भाषणों का उल्लेख किया और कहा कि ''यह एक सेवारत न्यायाधीश का बड़ा साहसिक बयान था।''

    महत्वपूर्ण फैसले

    जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस एमबी लोकुर की पीठ ने निपुन सक्सेना मामले में फैसला सुनाया था, जिसमें बलात्कार के अपराधों की रिपोर्टिंग करते समय बलात्कार पीड़िताओं की गोपनीयता और गरिमा की रक्षा के लिए विस्तृत दिशानिर्देश दिए गए थे।

    इंडिपेंडेंट थॉट बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में भी जस्टिस दीपक गुप्ता बेंच का हिस्सा थे। जहां एससी ने आईपीसी की धारा 375 के अपवाद-दो को पढ़ते हुए माना था कि नाबालिग पत्नी के साथ सेक्स करना भी बलात्कार होता है।

    न्यायमूर्ति गुप्ता ने उस पीठ का भी नेतृत्व किया जिसने स्वत संज्ञान लेते हुए विशेष अदालतों के गठन और POCSO के मामलों के लिए विशेष लोक अभियोजकों की नियुक्ति के निर्देश दिए थे।

    शिल्पा मित्तल बनाम स्टेट ऑफ एनसीटी ऑफ दिल्ली मामले में पिछले दिनों ही उन्होंने अपना फैसला सुनाया था। जो यह बताने के लिए महत्वपूर्ण है कि किशोर न्याय अधिनियम 2015 के तहत किसे ''जघन्य अपराध'' के समान माना जाएगा।

    डीएवी कॉलेज ट्रस्ट एंड मैनेजमेंट सोसाइटी बनाम डायरेक्टर ऑफ पब्लिक इंस्ट्रक्शंस मामले में उनके नेतृत्व वाली पीठ ने कहा था कि सरकार द्वारा वित्तपोषित गैर-सरकारी संगठनों को सूचना के अधिकार अधिनियम 2005 के अधीन माना जाएगा।

    वह उस बेंच (न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा के साथ) का हिस्सा भी थे, जिसने दिल्ली में प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए कई दिशा-निर्देश दिए थे और समय सीमा के तहत ऑटोमोबाइल के लिए बीएस- VI मानदंडों को लागू करना भी सुनिश्चित किया था। यहां यह उल्लेख करना उचित होगा कि उन्होंने हिमाचल प्रदेश हाईकोट के न्यायाधीश के रूप में ''ग्रीन बेंच'' का नेतृत्व भी किया था।

    एनडीटीवी को जारी किए गए आयकर पुनर्मूल्यांकन नोटिस को खारिज करने वाले फैसले को उन्होंने ही लिखा था (न्यायमूर्ति नागेश्वर राव की अध्यक्षता वाली पीठ के हिस्से के रूप में)।

    सेवानिवृत्ति से कुछ समय पहले न्यायमूर्ति गुप्ता की अगुवाई वाली पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के खिलाफ ''निंदनीय और घृणित'' आरोप लगाने वाले तीन व्यक्तियों को अवमानना का दोषी ठहराया और उन्हें तीन महीने के कारावास की सजा सुनाई।

    न्यायमूर्ति गुप्ता ने संविधान पीठ के फैसले में अलग परंतु निर्णायक निर्णय दिया था, जो रेजर मैथ्यू बनाम साउथ इंडियन बैंक लिमिटेड व अन्य के मामले में दिया गया था। न्यायिक स्वतंत्रता और सेवानिवृत्ति के बाद के लाभों पर टिप्पणियों के लिए यह उल्लेखनीय है।

    उन्होंने अपने फैसले में कहा था कि ''जो लोग रिटायरमेंट की दहलीज़ पर हैं और सत्ता के गलियारों में रिटायरमेंट के बाद आराम दायक नौकरी पाने की कशमकश में है, उनसे न्याय की उम्मीद नहीं की जा सकती।''


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