कार्यपालिका, न्यायपालिका, सशस्त्र सेनाओं की आलोचना राजद्रोह नहीं है : न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता
LiveLaw News Network
9 Sept 2019 9:23 AM IST
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश, न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने राज्य की संस्थाओं/निकायों की वैध आलोचना के खिलाफ राजद्रोह कानून के उपयोग के कारण उत्पन्न 'चिलिंग प्रभाव' के बारे में विस्तार से बात की। उन्होंने न्यायपालिका की निष्पक्ष आलोचना के सापेक्ष कंटेम्प्ट कार्रवाई के खतरों का भी उल्लेख किया।
"न्यायपालिका आलोचना से ऊपर नहीं है। यदि उच्चतर न्यायालयों के न्यायाधीश उनके द्वारा प्राप्त सभी अवमानना संचारों पर ध्यान देने लगें, तो अवमानना कार्यवाही के अलावा अदालतों में कोई काम नहीं हो सकेगा। वास्तव में, मैं न्यायपालिका की आलोचना का स्वागत करता हूं क्योंकि यदि आलोचना होगी, तभी सुधार होगा। न केवल आलोचना होनी चाहिए, बल्कि आत्ममंथन भी होना चाहिए। जब हम आत्ममंथन करेंगे, तो हम पाएंगे कि हमारे द्वारा लिए गए कई फैसलों को सुधारने की आवश्यकता है।
कार्यपालिका, न्यायपालिका, नौकरशाही या सशस्त्र बलों की आलोचना को देशद्रोह नहीं कहा जा सकता। यदि हम विधायिका, कार्यपालिका या न्यायपालिका या राज्य के अन्य निकायों की आलोचना को रोकने का प्रयास करते हैं, तो हम एक लोकतंत्र के बजाय एक पुलिस राज्य बन जाएंगे और हमारे देश के संस्थापकों ने इस देश से कभी यह उम्मीद नहीं की थी।"
न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता, अहमदाबाद में प्रलीन पब्लिक चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा आयोजित एक कार्यशाला में बोल रहे थे, सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दीपक गुप्ता ने "लॉ ऑफ सेडिशन इन इंडिया एंड फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन" विषय पर गहरायी से बात की।
उल्लेखनीय रूप से, जस्टिस गुप्ता ने रैपर हार्ड कौर, बंगाल भाजपा नेता प्रियंका शर्मा, मणिपुर के पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेम, तमिल फिल्म निर्देशक पा रंजीत आदि के खिलाफ आपराधिक कानून के उपयोग (इन सभी के द्वारा अपनी राय व्यक्त करने के चलते) की हाल की घटनाओं का उल्लेख किया।
"छत्तीसगढ़ में, एक 53 वर्षीय व्यक्ति को राज्य में बिजली कटौती के बारे में सोशल मीडिया पर अफवाहें फैलाने के लिए राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। यह कहा गया था कि ऐसा, राज्य में सत्ताधारी सरकार की छवि को धूमिल करने के लिए किया गया था। यह आरोप बेतुका था और यह फिर से सत्ता के दुरुपयोग को उजागर करता है।
मणिपुर में, एक पत्रकार ने राज्य के मुख्यमंत्री पर एक अपमानजनक हमला किया और देश के प्रधान मंत्री के खिलाफ पूरी तरह से असभ्य भाषा का इस्तेमाल किया। उस पत्रकार की भाषा तीखी और असभ्य थी लेकिन यह राजद्रोह का मामला नहीं था। यह आपराधिक मानहानि का सबसे अच्छा मामला था। पत्रकार को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत महीनों तक सलाखों के पीछे रखा गया था।"
पश्चिम बंगाल में, एक पार्टी नेता को मुख्यमंत्री की तस्वीर बिगाड़ने/उससे छेड़छाड़ करने के चलते गिरफ्तार किया गया था और यूपी में, देश के प्रधान मंत्री की तस्वीर बिगाड़ने, उससे छेड़छाड़ करने चलते एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया गया था और यह आश्चर्यजनक है कि वह तस्वीर 5 वर्ष पुरानी थी। 5 वर्ष बाद इस आदमी को अचानक गिरफ्तार करने की क्या जल्दी थी?
एक रैपर जो भारत में रहती भी नहीं है, पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया है। उसके द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली भाषा पूरी तरह से अनावश्यक हो सकती है, जिसपर अन्य अपराध भले ही बनते हों, लेकिन राजद्रोह उनमें से एक भी नहीं है। एक अन्य गंभीर मामले में, तमिलनाडु में एक फिल्म निर्माता के खिलाफ जातीय दुश्मनी भड़काने के लिए धारा 153 और 153 ए आईपीसी के तहत मामला दर्ज किया गया है, क्योंकि उसने कथित तौर पर चोल राजवंशीय राजा के खिलाफ जातीय उत्पीड़न को लेकर टिप्पणी की थी। इस चोल राजवंश राजा की मृत्यु एक हज़ार साल पहले हो चुकी है।"
न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने इस बात पर जोर दिया कि सभ्यता के विकास के लिए आपराधिक अभियोजन के डर के बिना विचारों और विचारों की मुक्त अभिव्यक्ति के लिए अनुकूल माहौल को अनुमति देना आवश्यक है:
"यदि हर कोई एक ही मार्ग का अनुसरण करता है, तो कोई नया मार्ग नहीं बनाया जा सकेगा, कोई नया अन्वेषण नहीं किया जाएगा और नयी संभावनाएं पैदा नहीं होंगी। हम भौतिक क्षेत्र में विस्तारों और अन्वेषणों से नहीं निपट रहे हैं, बल्कि हम बड़े मुद्दों से निपट रहे हैं। अगर कोई व्यक्ति सवाल नहीं पूछता है और पुराने सिस्टम पर सवाल नहीं उठाता है, तो कोई भी नई प्रणाली विकसित नहीं होगी और मन के क्षितिज का विस्तार नहीं होगा। चाहे वह बुद्ध हों, महावीर हों, जीसस क्राइस्ट हों, पैगंबर मोहम्मद हों, गुरु दीपक देव हों, मार्टिन लूथर हों, कबीर हों, राजा राम मोहन राय हों, स्वामी दयानंद सरस्वती हों, कार्ल मार्क्स हों या महात्मा गांधी हों, अगर वे चुपचाप अपने पूर्वजों के विचारों को प्रस्तुत करते और मौजूदा धार्मिक प्रथाओं, विश्वासों और अनुष्ठानों पर सवाल नहीं उठाते तो नए विचारों और धार्मिक प्रथाओं को स्थापित नहीं किया गया होता।"
यह दुनिया रहने के लिए एक बेहतर जगह होगी, यदि लोग अभियोजन या सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग से डरे बिना निर्भीक होकर अपनी राय व्यक्त कर सकें। यह वास्तव में दुखद है कि हमारे एक प्रसिद्द व्यक्ति को सोशल मीडिया से हटना पड़ा, क्योंकि उसे और उसके परिवार के सदस्यों को गंभीर रूप से ट्रोल किया गया या धमकी दी गई।"
न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने कहा कि जब तक हिंसा के लिए भड़काने या उकसाने के साथ सरकार की आलोचना नहीं होगी, यह देशद्रोह नहीं होगा।
"सरकार की आलोचना, अपने आप में देशद्रोह का कारण नहीं बन सकती है। ऐसे देश में जो कानून के शासन द्वारा शासित होता है और जो अपने नागरिकों को बोलने, अभिव्यक्ति और विश्वास की स्वतंत्रता की गारंटी देता है, उस देश में देशद्रोह के कानून और इसी तरह के अन्य कानूनों का दुरुपयोग, आजादी की भावना के खिलाफ है, जिसके लिए स्वतंत्रता सेनानियों ने संघर्ष किया और अपने प्राण न्यौछावर कर दिए।"
आप लोगों को सरकार के प्रति स्नेह रखने के लिए मजबूर नहीं कर सकते हैं और केवल इसलिए कि लोगों में सरकार के विचारों के प्रति असहमति है या वे दृढ़ता से असहमत हैं या वे कड़े शब्दों में अपनी असहमति व्यक्त करते हैं, और यदि वे या उनके शब्द, हिंसा को बढ़ावा नहीं देते या उकसाते या उत्तेजित नहीं करते हैं और सार्वजनिक व्यवस्था को खतरे में नहीं डालते हैं, तब तक उनके खिलाफ देशद्रोह का कोई मामला नहीं बनाया जा सकता है।"
उन्होंने बहुसंख्यवाद द्वारा 'कानून के शासन' के साथ खिलवाड़ के जोखिम के बारे में भी बात की:
"बहुसंख्यवाद कानून नहीं हो सकता है। यहां तक कि अल्पसंख्यक वर्ग को भी अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार है। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि भारत में हम 'फर्स्ट पास्ट द पोस्ट' सिद्धांत का पालन करते हैं। इसके अलावा, उन्होंने यह भी कहा कि जो सरकारें भारी बहुमत से आती हैं, उन्हें 50% वोट भी नहीं मिलते। इसलिए, हालांकि वे शासन के हकदार हैं या उनके पास बहुमत है, परन्तु यह नहीं कहा जा सकता है कि वे सभी लोगों की आवाज़, विचार का प्रतिनिधित्व करते हैं।"
जस्टिस गुप्ता ने अपने भाषण की शुरुआत जस्टिस पी. डी. देसाई को श्रद्धांजलि देकर की, जो कलकत्ता और बॉम्बे हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे। उन्होंने याद किया कि जस्टिस गुप्ता एक निडर न्यायाधीश थे जिन्होंने अथक परिश्रम किया।