हाईकोर्ट मजिस्ट्रेट के सामने रखे जाने से पहले "ड्राफ्ट चार्ज-शीट" पर भरोसा कर धारा 482 के तहत आपराधिक कार्यवाही रद्द नहीं कर सकता : सुप्रीम कोर्ट
LiveLaw News Network
13 Nov 2021 10:24 AM IST
सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार (12 नवंबर 2021) को दिए गए एक फैसले में कहा, " कोई उच्च न्यायालय उस "ड्राफ्ट चार्ज-शीट" पर भरोसा नहीं कर सकता है, जिसे दंड प्रक्रिया की धारा 482 के तहत आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिए मजिस्ट्रेट के सामने रखा जाना बाकी है।"
न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना की पीठ ने कहा कि उच्च न्यायालय न तो किसी जांच एजेंसी को उसके समक्ष जांच रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दे सकता है और न ही वह धारा 482 के तहत आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर सकता है, जब मजिस्ट्रेट के समक्ष रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की गई हो।
इस मामले में एक शिकायत पर गांधीग्राम थाना राजकोट द्वारा आरोपी के खिलाफ आईपीसी की धारा 465, 467, 468 और 120बी के तहत प्राथमिकी दर्ज की गयी थी।
कुछ आरोपियों द्वारा दायर सीआरपीसी की धारा 482 के तहत दायर एक याचिका में, उच्च न्यायालय ने निर्देश दिया कि जांच जारी रह सकती है लेकिन आरोप पत्र उसकी अनुमति से ही दायर किया जा सकता है। आईपीसी की धारा 385, 389, 418, 477, 506 (2), 120बी और 34 के तहत दंडनीय अपराधों के लिए एक ड्राफ्ट चार्जशीट उच्च न्यायालय के समक्ष रखी गई।ड्राफ्ट चार्जशीट की सामग्री को ध्यान में रखते हुए, उच्च न्यायालय ने कुछ आरोपियों के खिलाफ प्राथमिकी रद्द कर दी।
अपील में, सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने उच्च न्यायालय द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया पर गंभीर अपवाद लिया।
अदालत ने कहा,
"अपने 2 मई 2016 के अंतरिम आदेश में, उच्च न्यायालय ने आरोपी के खिलाफ जांच जारी रखने की अनुमति दी, लेकिन निर्देश दिया कि उसकी अनुमति के बिना मजिस्ट्रेट को अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की जा सकती। ये निर्देश किसी भी तर्क द्वारा समर्थित नहीं था। यहां तक कि अंतरिम चरण में, उच्च न्यायालय को विवेक के आवेदन का प्रदर्शन करना चाहिए और किसी भी पारस्परिक निर्देश को जारी करने के लिए कारण प्रस्तुत करना चाहिए, जो इस न्यायालय के समक्ष एक उपयुक्त मामले में परीक्षण करने में सक्षम हो। अंतरिम निर्देश सीआरपीसी के तहत परिकल्पित जांच प्रक्रिया में एक अनावश्यक हस्तक्षेप के समान है। उच्च न्यायालय ने पुलिस को मजिस्ट्रेट के समक्ष आरोप-पत्र प्रस्तुत करने से प्रतिबंधित करके और उसके समक्ष कार्यवाही में "ड्राफ्ट चार्ज-शीट" की सामग्री को आगे बढ़ाकर उसे प्रदान की गई शक्तियों के दायरे का उल्लंघन किया है।
अदालत ने कहा कि पुलिस को सीआरपीसी की धारा 154 और 156 के तहत संज्ञेय अपराध की जांच करने का वैधानिक अधिकार है।
"सीआरपीसी की धारा 173 की उप-धारा 2 (i) में प्रावधान है कि जांच पूरी होने के बाद, थाने का प्रभारी पुलिस अधिकारी अंतिम रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को भेजेगा, जिसे रिपोर्ट में बताए कथित अपराध का संज्ञान लेने का अधिकार है अपराध का संज्ञान लेने से पहले, मजिस्ट्रेट को अपना विवेक लगाना होगा और वो पुलिस द्वारा निकाले गए निष्कर्षों से बाध्य नहीं है। प्रतिभा बनाम रामेश्वरी देवी में, इस न्यायालय की दो-न्यायाधीशों की पीठ ने माना है कि उच्च अदालत न तो किसी जांच एजेंसी को उसके सामने जांच रिपोर्ट जमा करने का निर्देश दे सकती है और न ही वह धारा 482 के तहत आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर सकती है, जब रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को प्रस्तुत नहीं की गई हो।
अदालत ने कहा कि उच्च न्यायालय के समक्ष कार्यवाही में असाधारण नहीं तो एक असामान्य प्रक्रिया का पालन किया गया है। फैसले में इस मामले में विभिन्न तथ्यात्मक पहलुओं को भी नोट किया गया और निष्कर्ष निकाला कि उच्च न्यायालय द्वारा प्राथमिकी को रद्द करना अनुचित था।
अदालत ने फैसले को रद्द करते हुए कहा,
"उच्च न्यायालय ने प्राथमिकी और सभी परिणामी कार्यवाही को रद्द करने में सीआरपीसी की धारा 482 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र के प्रयोग की सीमाओं का उल्लंघन किया। उच्च न्यायालय के समक्ष प्रक्रिया का स्पष्ट दुरुपयोग हुआ है।"
केस और उद्धरण: जीतुल जयंतीलाल कोटेचा बनाम गुजरात राज्य | LL 2021 SC 642
मामला संख्या। और दिनांक: 2021 की सीआरए 1328-1333 | 12 नवंबर 2021
पीठ : जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस बीवी नागरत्ना
वकील: अपीलकर्ता के लिए वकील निखिल गोयल
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